अगले 15 सालों के बिहार का चुनाव

पुष्पेन्द्र कुमार। कोई शक नहीं कि बिहार अपनी नदियों के सालाना बाढ़, मजदूरों का अनवरत प्रवास और राजनीतिक चेतना की ऐतिहासिक नियति का भूगोल है। एक सामान्य आकलन यह है कि साल 2000 के बाद हुए बिहार विधानसभा के चुनाव का स्थानीय महत्व भले ऐतिहासिक रहा हो, राष्ट्रीय या केंद्रीय राजनीति में बिहार चुनाव परिणामों का प्रभाव कम हुआ है। कारण तीन हैं। पहला कि, नई सदी के आरंभ के साथ नीतीश कुमार ने केंद्र को छोड,़ राज्य की राजनीति में अपनी नई भूमिका के लिए खुद को केंद्रित किया, और दूसरा कि, भाजपानीत एनडीए के साथ लंबी राजनीतिक साझेदारी करते हुए, एक बेगाने हमसफर के मानिंद, अपनी कथित सेकुलर पहचान को लेकर गैरसमझौतावादी बने रहे। तीसरी बात कि, 1980 के दशक में ‘संपूर्ण क्रांति’ से लेकर 1990 के दशक में सामाजिक न्याय के आंदोलन में अपने पूर्व साथी, बिहार के मुख्यमंत्री और यूपीए किंगमेकर क्लब के चहेते लालूप्रसाद यादव के शासन और सरोकारों की विफलता के आधार पर लगभग अकेले दम पर एक विकल्प बने।
बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लगभग 15 साल के कार्यकाल को मीडिया समेत आर्थिक-सामाजिक विश्लेषकों ने प्रयोगों, उम्मीदों और सुधार के बिहार के रूप में आंका है। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावएक ऐसे वक्त में हो रहे हैं जब देश कोरोना की संक्रामक चुनौतियों से जूझ रहा है। अनलॉक की प्रक्रिया में राष्ट्रजीवन भले पटरी पर लौटता दीख रहा हो और कोरोना संक्रमण के नए मामलों में कमी आ रही हो, लेकिन बिहार के प्रवासी श्रमिकों की मार्च से जून के दौरान गृहराज्य में वापसी ने आजीविका और रोजगार का जो संकट पैदा किया है, वह बिहार चुनाव में विपक्ष के लिए एक दैवीय अवसर है मानो।
लेकिन जरा सोचिए कि यदि कोरोना महामारी का दौर नहीं आता तो मौजूदा एनडीए को राजद-कांग्रेस व अन्य दलों के कथित महागठबंधन से किस प्रकार की चुनौती मिल सकती थी? इस आकलन का एक स्वाभाविक प्रतिप्रश्न यह भी है कि क्या कोविड़ संक्रमण के नियंत्रण और प्रबंधन में केंद्र की मोदी सरकार और बिहार में नीतीश सरकार जनता की अपेक्षाओं पर वैसी खरी नहीं उतरी जैसी अपेक्षा की जा सकती है? खासकर तब, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए, शुरूआत में, प्रवासी मजदूरों की राज्य वापसी के पक्ष में नहीं रहे हों, बिहार के प्रवासी मजदूरों की भावनाओं की उपेक्षा और सम्मान का मसला चुनावी बन जाना स्वाभाविक है।
महत्वपूर्ण यह भी है कि बिहार विधानसभा चुनाव दो महारथियों, लालूप्रसाद यादव और दिवंगत रामविलास पासवान, की गैरमौजूदगी में हो रहा है। कोरोना संकट ने राज्य के युवा व प्रवासी आबादी की आजीविका व रोजगार के संकट का जो सवाल खड़ा किया है, उससे राजद के तेजस्वी यादव को दोहरा अवसर मिला है। यदि नीतीश कुमार 2020 चुनाव में एनडीए नेतृत्व की सरकार बनाने में फिर से सफल हो जाते हैं तब, लालूयादव के राजनीतिक उत्तराधिकार को लेकर पारिवारिक झगड़े और अगले पांच साल तक राज्य में राजनीतिक विपक्ष के रूप में राजद का नेतृत्व, उसकी राजनीतिक साख व सक्रियता, दोनों गंभीर चुनौती बन जाएंगे। लिहाजा तेजस्वी यादव कांग्रेस व अन्य पार्टियों के साथ अपने गठबंधन के जरिए इस चुनाव में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि यह उनके भविष्य और राजद की प्रासंगिकता का निर्णायक चुनाव है। यह अस्वाभाविक नहीं है कि राहुल गांधी व प्रियंका गांधी वाड्रा के दोहरे विकल्प में फंसी कांग्रेस के अनुभवों से सीखते हुए, राजनीतिक तौर से संवेदनशील इस चुनावी वर्ष में, लालूयादव की बेटी और तेजस्वी यादव की बहन मीसा भारती की चुनावी सक्रियता गौण दिखाई देती है।
केंद्र में मंत्री रहे रामविलास पासवान का चुनावी सरगर्मियों के बीच निधन हो जाने के बाद बिहार की दलित राजनीति में, बतौर उत्तराधिकारी, उनके पुत्र चिराग पासवान भले ही लोकजनशक्ति पार्टी के निर्विवादित नेता के रूप में स्वीकार्य हो गए हों, लेकिन विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का अकेले दम पर चुनाव में सफलता हासिल करना आसान नहीं है। इसके तीन कारण हैं। पहला कि वे स्पष्ट सियासी मित्रता या व्यापक गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं। दूसरा कि, वे भाजपानीत एनडीए के मुख्यमंत्री पद के दावेदार जदयू के नीतीश कुमार के विरोधी और मोदी के अनन्य समर्थक होने की दावेदारी के कारण राजनीतिक भ्रम की स्थिति पैदा करते दीखते हैं। और तीसरी बात कि, भाजपा या जदयू की तुलना में लोकजनशक्ति पार्टी के पास बिहार के मतदाता वर्ग में अपना व्यापक सामाजिक आधार नहीं है, और फ्लोटिंग वोटर्स यानि अपने वोटरों को अपने गठबंधन सहयोगी के पक्ष में मत हस्तांतरण की क्षमता कम है।
बिहार चुनाव जनता की याद्दाश्त परीक्षण की कसौटी साबित होगी। लगभग 15 साल, बतौर मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार ने लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के 15 सालों के कथित ‘जंगलराज’ में अपहरण, अपराध और अराजकता के साथ शासकीय भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सामाजिक समीकरणों के प्रयोग के साथ सुशासन, और विकास के नाम पर चुनाव लड़ा है। उनके मुख्यमंत्रित्व में बिहार ने सडक़ों, अस्पतालों और बालिका शिक्षा समेत स्कूलों, कृषि व विद्युत आपूर्ति के क्षेत्र में संतोषजनक सुधार हासिल किया है, और अवसंरचनागत जड़ता से गतिशीलता के युग की शुरूआत के लिए नीतीश सरकार की प्रशंसा होती रही है। लेकिन बिहार की चुनौतियां अभी भी कम नहीं हैं। कोरोना संक्रमण ने राज्य के मतदाताओं में आजीविका और अवसरों को लेकर ही नहीं, विकास के टिकाउपन और उपयुक्तता का सवाल भी खड़ा कर दिया है।
लेकिन, बिहार और उसका समाज पहले जैसा नहीं है। सामाजिक न्याय की राजनीतिक पाठशाला रहे बिहार में आज जातीय समीकरणों के तमाम प्रयोगों के कई संस्करण हैं। लेकिन, कोविड-19 के कारण प्रवासी मजदूरों की कश्टमयी राज्य वापसी की घटना ने शासन की मानवीय संवेदना, नीतिगत दूरदर्शिता और टिकाउ विकास समेत आर्थिक प्रबंधन के प्रश्न चुनावी समर में उतार दिए हैं। बिहार के प्रवासियों को लेकर अक्सर यह कहा जाता रहा है कि वे अन्य विकसित राज्यों व महानगरों में अपने प्रवास के दौरान हासिल जीवनशैली और अनुभवों को लेकर नहीं लौटते, या कहें कि बिहार का स्थानीय सामाजिक मॉडल, बिहार के प्रवासियों के आर्थिक और जीवनशैलीगत अनुभवों पर भारी पड़ता है। सवाल है कि क्या 2020 का चुनाव ‘मनोविज्ञान में बदलाव’ का चुनाव होगा जब बिहार के मतदाता सामाजिक समीकरणों की जगह राज्य की आर्थिक दिशा और दशा के प्रश्न पर प्रासंगिकताओं और प्राथमिकताओं में नए ‘गुणसुत्र’ गढ़ेंगे? यदि ऐसा है तो महागठबंधन के घोषणापत्र में 10 लाख सरकारी नौकरियों के उस वायदे की अव्यावहारिकता पर लोगों की राय को समझना दिलचस्प होगा जिसके कारण बिहार के सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों के मद में हो रहे मौजूदा भुगतान का बोझ दोगुना हो जाएगा?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि, बिहार के लिए, उपरोक्त संसाधनों का प्रबंधन फिलहाल एक असंभव अर्थशास्त्र है क्योंकि कोरोना संक्रमण के कारण लगभग समान आर्थिक संकट को झेल रहे अन्य पड़ोसी गैरभाजपा शासित राज्यों झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडीशा; और महाराष्ट्र, राजस्थान और पंजाब जैसे कांग्रेसशासित राज्यों में भी इतने बड़े स्तर पर सरकारी नौकरियों का ऐलान व क्रियान्वयन नहीं हो सका है। तो क्या बिहार इतना सक्षम और सशक्त है कि वह 10 लाख सरकारी नौकरियां दे सकता है? यदि नहीं, तो क्या यह नीतीश कुमार के लगभग 15 सालों के कथित ‘सुशासन की विफलता’ है?
नीतीश चाहेंगे कि लालू दौर की उन तमाम किस्सागोईयों और अराजकता की आम चर्चाओं की धार, धारणा और धमक कतई कम न हो। लिहाजा नीतीश कुमार के 15 साल बनाम लालू परिवार के मुख्यमंत्रित्व काल के 15 सालों की तुलना के लिए याद्दाश्तों का कुरेदना आवश्यक होगा। लेकिन, इस रणनीति की चुनावी सफलता इस बात पर निर्भर है कि चुनाव में आक्रमक वोटिंग कौन करेगा; लालू दौर के अनुभवों के आधार पर नीतीश के रूप में राजनीतिक बदलाव लाने वाले 45 साल से अधिक उम्र के मतदाता, या कोरोना संक्रमण के कारण आजीविका का फौरी संकट झेल रहे 40 साल से कम उम्र वाले मतदाताओं का समूह!
मैं बिहार में ‘वोटबैंक एकाधिकार’ को क्रमश: कमजोर होता देखता हूं, और मेरा मानना है कि ‘फ्लोटिंग वोटर्स’ यानि वे मतदाता जिन्होंने अभी अपना मत व समर्थन तय नहीं किया है, निर्णायक रहेंगे। फ्लोटिंग वोटर्स की संख्या व अनुपात का बढऩा दो बातों का संकेत करता है कि मौजूदा सरकार के कामकाज को लेकर स्पश्ट सकारात्मक रूझान नहीं हैं, और दूसरा कि, वह जनता जो अब वोटबैंक के रूप में अपनी पहचान से उकता चुकी है, नेताओं के समान अपने समग्र हितों के मद्देनजर अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है। बिहार के चुनाव में परंपरागत व स्थिर वोटबैंक पर निर्भर अपेक्षाएं विजयी होंगी, मुझे संदेह है। यह चुनाव ‘फ्लोटिंग वोटर्स’ और ‘अंब्रेला सोशल एलायंस’ यानि वृहत्तर सामाजिक गठबंधन का चुनाव है।

लेखक पुष्पेन्द्र कुमार, अमात्य आईएएस/पीसीएस, मेरठ, राजनीतिक विश्लेषक (एमजेएमसी) 8279381302, 8791831531