एशिया केंद्रित नीति के यक्ष प्रश्न

s.nihal singhएस. निहाल सिंह। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की बहुचर्चित पिवेट-टू-एशिया (एशिया-की-धुरी) नामक नीतियां रही हैं, जिसके तहत मध्य-पूर्वी देशों और दक्षिण चीन सागर को लेकर बनाई गई विदेश नीतियों को एशिया के संदर्भ में सबसे अहम माना जाता था। क्या नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप भी इस लीक पर कायम रहेंगे? पीछे मुड़कर देखें तो वैसे भी यह नीति बातों में ज्यादा और अमल में कम ही लाई गई थी।
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा 12 देशों के संगठन वाली ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप संधि (टीपीपी-जिसमें चीन शामिल नहीं था), रद्द कर देने के प्रस्ताव से चीनी नेतागण बहुत खुश हैं, वैसे उन्हें इस धुरीÓ शब्द से ही चिढ़ है क्योंकि दक्षिण चीन सागर को लेकर बनाई गई अमेरिकी योजना के लिए भी इस शब्द को बरता गया है। चीनियों को पक्का यकीन है कि यह नीति उनके देश की नाकाबंदी करने के लिहाज से बनाई गई है। इस बाबत चीन के अर्ध-सरकारी सूत्रों के अनुसार अमेरिका के टोही पोतों के मिशनों की गिनती वर्ष 2009 में 200 से बढ़कर 2014 में 1200 के करीब हो गई थी।
इसमें कोई शक नहीं कि टीपीपी संधि भी राष्ट्रपति ओबामा की एशिया को लेकर बनाई गई मुख्य सामरिक नीति का ही अंग है। इस समझौते के अंतर्गत थाईलैण्ड, फिलीपींस, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और दक्षिण कोरिया के साथ अमेरिका के संबंधों की तीव्रता को बढ़ाया गया है। इसके अलावा वियतनाम और इंडोनेशिया के साथ अमेरिका सैन्य सहयोग बढ़ाने पर भी काम कर रहा है। वे चीन के बढ़ते प्रभाव का संतुलन साधने की जरूरत महसूस कर रहे थे।
ट्रंप की विदेश नीति के अनुसार जहां एक ओर वे मुस्लिम प्रवासियों को लेकर दुराव रखते हैं वहीं दूसरी तरफ कुछ अमेरिकी प्रतिबद्धाएं जैसे कि ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप का विरोध इसलिए भी करते हैं कि इसकी वजह से अमेरिकी लोगों की नौकरियां छिन रही हैं, भारत और चीन को दिए जाने वाले काम की भर्त्सना भी वे इसी कारण को गिनाकर करते रहे हैं। भारत के लिए वे भले ही अपना स्नेह दर्शाते हैं लेकिन यहां यह बात याद रखना समझदारी होगी कि चुनाव के दौरान जो जुमलेबाजी की गई थी, वह प्रशासन चलाने के लिए बनाई गई नीतियों से बहुत अलहदा होगी।
ट्रंप एशिया के लिए बनाई जाने वाली नीतियों पर तब तक इतनी रुचि नहीं लेंगे जब तक कि यह उनके नारे ‘अमेरिका को फिर से महान राष्ट्र बनाना हैÓÓ में सहायक होती दिखाई न दे। हालांकि तथाकथित आईएसआईएस के साथ टक्कर लेना इस नारे की परिभाषा में आता है लेकिन बाकी के एशिया को लेकर उनकी क्या नीति होगी, इसकी रूपरेखा अभी स्पष्ट नहीं है।
ओबामा के लिए चीन के लगातार बढ़ते प्रभाव और सैन्य आधुनिकीकरण से संतुलन बिठाना भी जरूरी था। उनके प्रशासन ने प्रशांत और दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में यह कहकर सैन्य गतिविधियों को बढ़ाया था: ये तो इस क्षेत्र की खातिर किए गए शांतिपूर्ण सैनिक अभियान हैंÓ। लेकिन अपनी तड़क-भड़क भाषणबाजी में ट्रंप कहते हैं कि यदि जापान और दक्षिण कोरिया को अमेरिका से अपने लिए सुरक्षा कवच प्राप्त करना है तो इसकी एवज में सारा खर्चा उठाएं।
ट्रंप के जीतने पर आठ साल तक ओबामा प्रशासन की जो नीतियां बासी पडऩे लगी थीं, अब उनमें नई जान का संचार होगा। परंतु ओबामा सरकार अपने पीछे यह आभास जरूर छोड़कर जाएगी कि वह समस्याओं का हल सैन्य दखलअंदाजी की बजाय शांतिपूर्ण ढंग से ही चाहती रही थी। हां, उस वक्त उनको काफी भर्त्सना का सामना करना पड़ा था जब उन्होंने सीरियाई सेना द्वारा विद्रोहियों पर रासायनिक हथियार बरतने के बावजूद राष्ट्रपति बशर अल असद पर कड़ी सैन्य कार्रवाई करने से हाथ खींच लिया था, जबकि अमेरिकी नीतियों के अनुसार उनका यह कदम लड़ाई में मानवाधिकारों की उल्लंघना के लिए खींची गई लकीर पार करने वाला था। कदाचित ट्रंप प्रशासन ऐसे किसी भी कृत्य पर जो अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ जाता हो पर तुरंत बल प्रयोग करने का रुझान रखेगा। चुनाव जीतने के बाद जिन मामलों में ट्रंप ने अपना इरादा साफ कर दिया है, उनमें एक है मेक्सिको से आए अवैध प्रवासियों की वापसी। इसका मतलब होगा तकरीबन 20-30 लाख ऐसे लोग जिन पर कार्रवाई की जाएगी। आज अमेरिका में लगभग 1.1 करोड़ अवैध मेक्सिकन प्रवासी रह रहे हैं।
ट्रंप द्वारा अब तक मंत्रिमंडल में घोषित नियुक्तियों के अनुसार वे कड़ी नीतियों का पालन करने जा रहे हैं। पर्यावरण संतुलन का मुद्दा, जिसे पहले वे एक महज बेमानी मामला कहकर खारिज किया करते थे, अब इसके बारे में कह रहे हैं कि मानव की गतिविधियां पर्यावरण पर असर डालती हैं। इसके अलावा मुसलमानों को लेकर उनकी नीति अस्पष्ट है। इन मामलों के अलावा ट्रंप-काल में ओबामा के सिद्धांतों से काफी अलग लीक पर चलने की उम्मीद है। स्पष्ट तौर पर उनकी सोच दक्षिणपंथी है, जो घर और बाहर, दोनों
जगह बंदूक के जोर पर विश्वास रखती है। इसके साथ ही उनकी नीतियों का निर्धारण राष्ट्रीय हितों के लिए जरूरी उदार रुख से बाधित हुए बिना तय होगा यानी अमेरिकी शक्ति का प्रयोग बेहयाई से राष्ट्रीय मुनाफे के लिए किया जाएगा। उनकी जीत के बाद अमेरिका में नस्लीय हिंसा के केसों में खासी बढ़ोतरी हुई है। एक दक्षिणपंथी गुट के लोगों ने तो यहां तक ऐलान कर दिया है कि उसके सदस्य आपस में अभिनंदन के तौर पर जर्मनी के कुख्यात तानाशाह हिटलर के समय प्रचलित नारे हेल हिटलरÓ (हिटलर की जय हो) की तर्ज पर हेल ट्रंपÓ कहकर किया करें। ट्रंप ने जिस स्टीव बैनन को अपना सलाहकार नियुक्त किया है, वे अपनी दक्षिणपंथी और नस्लीय सोच के लिए जाने जाते हैं।
अमेरिका अब एक नए दौर से गुजरने जा रहा है। पिछले प्रशासनों के खिलाफ पनपे लोगों के गुस्से की लहर पर सवार होकर ट्रंप विजयी हुए हैं। यूरोप के कुछ देशों में भी दक्षिणपंथी दलों की मकबूलियत बढ़ी है। दरअसल बढ़ती आय-असमानता, पश्चिमी जगत में व्याप्त आर्थिक मंदी तथा यह तथ्य कि अमेरिका और बहुत से यूरोपियन देश आज अभिजात्य वर्ग द्वारा शासित हैं और उद्योग-धंधों में अत्याधुनिक तकनीक आ जाने की वजह से कम निपुणता वाले लोगों का अचानक नकारा बन जाना, इत्यादि कारक इसके मूल में हैं।
अब देखना होगा कि ट्रंप प्रशासन उन नागरिकों का ख्याल रखने की खातिर अपने अतिवादी नारों की धार में किस हद तक कमी ला पाएगा, जिन्होंने उनको वोट नहीं डाले, इनकी संख्या का पता प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को मिले मतों की भारी मात्रा से चलता है। किंतु अमेरिकी चुनाव प्रकिया की बहुत सी अनोखी खासियतों में एक यह है कि राज्यों का अपना मतदान भी विजेता तय करने में बड़ी भूमिका निभाता है।
उपरोक्त परिस्थितियों में अमेरिका और बाकी की दुनिया एक नए युग में दाखिल हो रही है। एक राहत देने वाला तथ्य यह है कि अमेरिका की गणतांत्रिक व्यवस्था अधिकांशत: समय की कसौटी पर खरी उतरी है और यह झटकों को जज्ब करने का माद्दा रखती है। हां, ट्रंप के लिए फायदेमंद बात यह है कि अब वह सर्वोच्च न्यायालय में अपनी पंसद का नया न्यायाधीश नियुक्त करने की स्थिति में हैं।