कांग्रेस के हाथ को नहीं मिल रहा कोई साथ

congress logoयोगेश श्रीवास्तव
लखनऊ। यूपी में पिछले ढाई दशकों से राजनीतिक वनवास झेल रही कांगे्रस का अभी भी कोई हमराह बनने को तैयार नहीं है। बिहार महागठबंधन में साथ रहने के बाद वहां मिली अपेक्षित सफलता के बाद भी फिलवक्त उसके साथ कोई आने को तैयार नहीं दिख रहा है। थकहार कर कांग्रेस ने बिना किसी सहारे के ही आगे का रास्ता तय करने का मन बना लिया है। कांग्रेस के राष्टï्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सहारनपुर से शुरू हुई पदयात्रा को इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। पिछले ढाई दशकों में कांग्रेस कभी सपा तो कभी बसपा की पिछलग्गू रही और आज स्थिति यह है कि सब उसे अछूत मान रहे है। बसपा ने तो साफ कर दिया है कि वह किसी से तालमेल नहीं करने जा रही है रही बात समाजवादी पार्टी की तो उसे लगता है कि बाकी दलों से यूपी में उसकी स्थिति बेहतर है लिहाजा वह भी बिना किसी तालमेल के ही मैदान में उतरेगी। अब कांग्रेस के पास यूपी में महागठबंधन के नाम पर जेडीयू,आरजेडी,जेडीएस के अलावा कई छुटभैय्ये गैरभाजपा दल है जो उसके साथ आकर उसे महागठबंधन की शक्ल दे सकते है। 1989 में सत्ता से बेदखल होने के बाद कांग्रेस ने यूपी में दो बार तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार को समर्थन दिया तो 1996 में बसपा से गठबंधन करके चुनाव लड़ा। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की हैसियत से पीवी नरसिंह राव ने बसपा के चुनावी तालमेल किया था। समर्थन देने और गठबंधन की राजनीति का खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है। और सदन के भीतर चौथी पायदान पर खड़ी है। हालांकि कांग्रेस ने अपनी स्थिति को औरों से बेहतर बनाने की दिशा में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन बावजूद इसके वह आज भी जहां-की तहां खड़ी है। स्वयं राहुल गांधी २०१२ के विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान यात्राएं और किसान पंचायते करते रहे लेकिन उसके सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। आगामी विधानसभा चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त बाकी है कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब बिहार की तरह यूपी में भी कांग्रेस को मुख्य लड़ाई में शामिल करके अपना जौहर दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहते। यूपी में कांग्रेस को आखिरी बार 1985 में बहुमत मिला था तब 425 सदस्यों वाली विधानसभा में उसके 269 सदस्य थे। उसके बाद से जो ग्राफ गिरना शुरू हुआ तो आज स्थिति यह है कि उसके मात्र 28 सदस्य है। लेकिन बिहार के नतीजों से उत्साहित कांग्रेस को लगता है कि जिस तरह वहां 4 से 40 पर पहुंची है उसी तर्ज पर यहां भी वह 28 से काफी आगे निकल सकती है। कांग्रेस को लगता है कि बिहार में बेहतर परफारमेंस के बाद यदि यूपी में किसी तरह की महागठबंधन बने तो उसकी हैसियत का ध्यान रखा जाए। यदि सपा या बसपा दोनों ही संभावित महागठबंधन मे ंशामिल नहीं होते है तो बाकी छोटे दलों पर कांग्रेस ही भार पड़ेगी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के अंदरखाने की खबरों पर यकीन करे तो दूसरे दलों की नहीं बल्कि अपनी शर्तो पर समझौता करेगी। गुजरे मांजी पर निगाल डाले तो साफ है किसी से गठबंधन या मोर्चे का हिस्सा बनकर कांग्रेस नुकसान में ही रही। वर्ष 1996 में बसपा से गठबंधन करके चुनाव लडऩे वाली कांग्रेस ने 126 सीटों में से 33 पर जीत हासिल की थी। बसपा 296 सीटों पर लड़कर 67 सीटे जीती थी और बाद में उसने भाजपा से मिलकर सरकार बना ली थी। बदले परिवेश में बसपा जहां अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी है सपा अपने दम पर ही पूर्ण बहुमत में है ऐसे में यह दोनों ही दल एक बार फिल अकेले ही अपना जौहर दिखाने को बेताब है वे किसी सहारे की जरूरत महसूस नहीं कर रहे है। वर्ष 2007 में अकेले लड़कर मात्र 22 सीटों पर सिमट जाने वाली कांग्रेस ने जब 2012 में रालोद से गठबंधन करके चुनाव लड़ा तो उसके विधायकों की संख्या 28 तक पहुंच गई। बिहार से सबक लेकर वह इस बार भी गठबंधन के सहारे अपनी नाव पार लगाना चाहती थी लेकिन बसपा या सपा जैसा माझी पतवार ढोने को तैयार नहीं हैं। अब कांग्रेस ने अकेले ही चुनावी समर में उतरने की तैयारी कर ली है।