कामसूत्र और अर्थशास्त्र में है समानता

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बीबीसी से साभार। शिकागो विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली और हिंदुत्व पर करीब आधा दर्जन किताबें लिखने वाली अमरीकी विद्वान वेंडी डॉनिगर की एक नई किताब आई है द मेयर्स ट्रैप। उन्होंने अपनी इस किताब में कौटिल्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के कामसूत्र में समानताओं को पहचानने की कोशिश की है। वेंडी डॉनिगर से बीबीसी हिंदी के लिए श्रीरूपा ने बात की।आपकी नई किताब द मेयर्स ट्रैप खासकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के कामसूत्र में मौजूद समानता पर केंद्रित है। आपने यह निष्कर्ष कैसे निकाला कि कामसूत्र अर्थशास्त्र पर आधारित है पाठकवर्ग और विषयवस्तु के लिहाज से दोनों ग्रंथ बिल्कुल अलग समझे जाते हैं?मैं कई वर्षों से एक पाठ्यक्रम पढ़ा रही हूं जिसका विषय है कथित पुरुषार्थ (मनुष्य के लक्ष्य) या त्रिवर्ग यानी धर्म, अर्थ और काम। स्नातक कक्षाओं के पाठ्यक्रम के लिए मैं मनुस्मृति व कामसूत्र के अपने अनुवादों का और पैट्रिक ओलिवेल ने जो अर्थशास्त्र का नया अनुवाद किया है उसका इस्तेमाल करती हूँ. अर्थशास्त्र के इस नए अनुवाद में मुझे कुछ ऐसे उद्धरण और भाव मिले जो कामसूत्र में भी मौजूद हैं। फिर मैंने दोनों ग्रंथों में क्या समानताएं हैं इसकी खोज के लिए सिलसिलेवार अध्ययन शुरू किया और इनमें इतनी अधिक समानताएं पाकर मैं आश्चर्यचकित रह गई। आमतौर पर माना जाता है कि वात्स्यायन ब्रह्मचारी थे। इसके अलावा हम उनके बारे में और क्या जानते हैं?
हम यह भी नहीं जानते कि वो ब्रह्मचारी थे। उनकी किताब के अंत में एक ऐसा पद है जो बहुत स्पष्ट तो नहीं है लेकिन उसमें कहा गया है कि उन्होंने यह पुस्तक पूर्ण संयम और गहनतम ध्यान की अवस्था में लिखी है। लेकिन निश्चित ही इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने अपना शेष जीवन भी ऐसे ही बिताया. और हम उनके बारे में और कुछ भी नहीं जानते हैं। कामसूत्र प्राचीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर एक टिप्पणी है। यह अपने सामाजिक दिशा निर्देशों के कारण कितनी अनूठी है? क्या आपको लगता है कि व्यावसायिक कारणों के चलते कामसूत्र को महज यौन आसनों तक सीमित कर इसे महत्वहीन बना दिया गया है? आपकी बात बिल्कुल सही है। इसके पीछे व्यावसायिक वजहें ही हैं और इसी आधार पर पुस्तकें बिकती हैं। लेकिन इस किताब में काफ़ी कुछ है। अपने उदार सामाजिक दिशा निर्देशों, महिलाओं के प्रति सम्मान, जातिप्रथा को पूरी तरह से नकारने और समलैंगिक संबंधों के प्रति गैर-आलोचनात्मक रवैये की वजह से यह किताब शानदार है। दिक़्क़त ये भी है कि ज्यादातर लोगों ने या तो सर रिचर्ड बर्टन द्वारा किए गए कामसूत्र के अनुवाद को पढ़ा है या ऐसे अनुवाद पढ़े हैं जो रिचर्ड बर्टन के अनुवाद पर आधारित है। बर्टन ने स्त्री पक्ष को यानी महिलाओं के विचारों और उनके नजरिए को जगह नहीं दी है जबकि मूल संस्कृत ग्रंथ में इनका व्यापक स्तर पर उल्लेख है। जब सुधीर कक्कड़ और मैंने 2002 में मूल संस्कृत ग्रंथ का अपना अनुवाद प्रकाशित किया, तो महिलाओं की आवाज को जगह देने की कोशिश की। आश्चर्य की बात यह भी है कि बर्टन ने अपने अनुवाद में समलैंगिक पुरुषों के संबंध में उदार विचारों वाले उल्लेखों को भी हटा दिया है, क्योंकि बर्टन उन्हें किन्नर समझते हैं जबकि वात्स्यायन ने यही कहा है कि वो ऐसे पुरुष हैं जिनके पुरुषों के साथ यौन संबंध हैं। इसलिए कोई अचरज नहीं कि कामसूत्र की वास्तविकता बहुत लोग नहीं जानते। आपका तर्क रहा है कि अगर हम हिंदू धर्म में कथित नैतिकतावाद के लिए अंग्रेजों या मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं तो हम दैहिक प्रेम की विरोधी उस धारा को नजरअंदाज़ कर देते हैं जो हमेशा से हिंदू धर्म में मौजूद थी. आपका कहना है कि हिंदुत्व की वैरागी प्रेम धारा ने हमेशा दैहिक प्रेम धारा (इरॉटिक) हिंदुत्व का विरोध किया है। क्या आप हिंदुत्व की इन दो परस्पर विरोधी धाराओं के सह-अस्तित्व और व्यावहारिक हिंदू धर्म पर इसके प्रभाव को और विस्तार से समझाएंगी? वेदों में काम (सेक्स) को सकारात्मक और सृजनात्मक शक्ति माना गया है, उपनिषद भी यज्ञ में घी डालने के कर्मकांड की उपमा स्त्री के गर्भ में बीज रोपण से करते हैं।बाद के हिंदू ग्रंथों, राधा कृष्ण से जुड़े इरॉटिक मिथकों, कई अन्य मिथकों तथा धार्मिक गीतों, मंदिरों से जुड़े उन कर्मकांडों, जिनमें देवताओं और देवियों का विवाह कराया जाता है, ग्रामीण उत्सवों, खजुराहो और कोणार्क में उकेरे गए इरॉटिक चित्रों में काम की यही सम्मानजनक स्थिति दिखाई देती है। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं। लेकिन इसके साथ ही उपनिषदों में धर्म, अर्थ और काम के साथ-साथ एक चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का भी उल्लेख मिलता है और उनमें संन्यास का गुणगान भी है। संन्यासी वह है जो जीवन के चौथे चरण में (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के मूल आश्रमों के बाद और कई बार उनका पालन किए बिना ही) सांसारिकता को त्याग देता है। तो हिंदू धर्म के पूरे इतिहास के दौरान इन दोनों धाराओं के बीच तनाव बना रहा। विरोध शायद ही कभी रहा लेकिन ये दो समानांतर मार्ग थे जिनके बीच अक्सर रचनात्मक संवाद चलते रहते थे।
लेकिन कई बार हिंदू धर्म की वैरागी धारा से जुड़े ग्रंथों में इराटिक परंपरा के वचनों और कार्यों, मिथकों और कर्मकांडों का मजाक उड़ाया जाता रहा या निंदा की जाती रही और जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने वैराग्य वाली परंपरा को बढ़ावा दिया, वो इरॉटिक हिंदुत्व को अनैतिक और भोग-विलासिता की धारा मानते थे और उसे तिरस्कार की नजर से देखते थे। आपका मानना है कि सेंसरशिप का विचार प्रोटेस्टेंट नैतिकता की देन है। आपका कहना है कि मौजूदा वक्त में जो हिंदू सेंसरशिप का समर्थन करते हैं वो हिंदू धर्म के संबंध में विदेशी विचारों को तरजीह दे रहे हैं और जन्मना हिंदू के मन में अपने धर्म के प्रति जो गर्व है, हिंदुत्व की विश्वदृष्टि, उसकी विविधता और सहिष्णुता पर जो नाज है, उसे नष्ट कर रहे हैं। क्या अमरीकी साम्राज्यवाद के संपर्क में आने से पहले भारत में सेंसरशिप नहीं थी?
अंग्रेजों के भारत आने से पहले भारत में धार्मिक ग्रंथों पर कोई सेंसरशिप नहीं थी हालांकि कुछ ऐसे प्राचीन नियम थे, जो ब्राह्मणों या राजसत्ता के खिलाफ बोलने वालों पर रोक लगाते थे। 1927 में अंग्रेजों ने किसी धार्मिक समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले लोगों को दंडित करने के लिए कानून बनाया। (वास्तव में ये कानून मुसलमानों के संरक्षण के लिए बनाए गए थे) और आज हिंदू उन्हीं कानूनों की दुहाई दे रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवाद नहीं, बल्कि अमरीकी कट्टरतावाद ने स्थिति और भी बिगाड़ दी है. उन्होंने इस विचार का प्रचार किया कि किसी धर्म के किन्हीं सदस्यों को उसी धर्म के अन्य सदस्यों की बातों पर आपत्ति का अधिकार है।
जैसा कि आजकल कुछ हिंदू अन्य हिंदुओं द्वारा रचे गए रामायण के संस्करणों पर आपत्ति जता रहे हैं.
हिंदुत्व से संबंधित आपके विचारों और लेखों पर बड़े तीखे हमले हुए हैं. आलोचकों का तर्क है कि आपका रवैया चयनात्मक है और आपने हिंदू धर्म को विकृत रूप में पेश किया है, उनका कहना है कि आपने कई बार गुस्ताख़ी दिखाते हुए हिंदू धर्म को कामुकता से जोड़ा है. यह आलोचना कितनी सही और कितनी गलत है? हिंदू धर्म जैसे विशाल धर्म का कोई भी अध्ययन वस्तुपरक नहीं हो सकता, चयनात्मक ही होगा जैसा कि मेरा है। लेकिन मैं जिन ग्रंथों का उद्धरण देती हूँ, उन्हें हिंदुओं ने ही रचा हैं और इसीलिए मेरा मानना है कि वो हिंदू धर्म के अध्ययन में उद्धृत करने योग्य भी हैं। मैंने किसी ग्रंथ को कामुकता से कत्तई नहीं जोड़ा है. काम तो उन ग्रंथों में पहले से ही मौजूद था, मैंने तो उनका जिक्र भर किया है। भारत में कई लोग कला में या सार्वजनिक जीवन में कामनाओं की अभिव्यक्ति को वेस्टर्न सभ्यता का असर मानते हैं लेकिन आपका कहना है कि विडंबना यह है कि अभिव्यक्ति पर ये हमले अमरीका में हर बात को सेंसर करने की मांग के ही समान हैं. क्या आपको लगता है कि पिछले दशक में पूरी दुनिया में सामान्य तौर पर सेंसरशिप बढ़ी है? कामसूत्र और भारत के कई अन्य इराटिक ग्रंथों से यह साफ जाहिर है कि कामनाओं की अभिव्यक्ति से जुड़े ग्रंथों की रचना के लिए वेस्टर्न प्रभाव की कोई जरूरत नहीं। विचार तो इन ग्रंथों को प्रतिबंधित करना है. और ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी धर्म और हिंदू धर्म सहित कई प्रमुख धर्मों में बढ़ती कट्टरता के कारण निश्चित ही पूरी दुनिया में सेंसरशिप काफी बढ़ी है।क्या आपको लगता है कि हिंदू दक्षिणपंथी उभार के चलते कामसूत्र जैसे ग्रंथ भारत की साहित्यिक परंपरा में महत्वहीन बन जाएंगे और अंतत: समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि ज्यादातर दक्षिणपंथी विचार इरॉटिक हिंदुत्व से सहमत नहीं हैं?
इस इंटरनेट के युग में किसी भी ऐसे ग्रंथ को समाप्त कर देना मुमकिन नहीं है, जिस पर किसी धार्मिक समूह को आपत्ति हो, क्योंकि आजकल प्रकाशन के हजार तरीके हैं। (जॉर्ज आरवेल ने फॉरेनहाइट 451 में ऐसा दिखाया भी है कि किसी किताब के भौतिक रूप को नष्ट कर देने से भी लोगों को उसकी विषय सामग्री याद रखने से रोका नहीं जा सकता) लेकिन अगर लोग उन लोगों के खिलाफखड़े नहीं हुए जो भारतीय परंपरा के इस महत्वपूर्ण भाग को मिटा देने पर तुले हैं तो हो सकता है कि भविष्य में आबादी का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा यानी कुलीन और पढ़े लिखे लोग ही ऐसे ग्रंथों को पढ़ पाएं और यह भारत की सांस्कृतिक समृद्धि के लिए बहुत बड़ा खतरा होगा।