कैसे रुकेगा पहाड़ों से पलायन

Mount-Abu

सिद्धार्थ झा। प्रधानमंत्री जी वर्ष 2022 तक देश के किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहते हैं हैं गौरतलब है की वर्ष 2022 में हिन्दुस्तान की आजादी के 75 साल पूरे होंगे। लेकिन पहाड़ी क्षेत्रो के किसानो की जि़ंदगियों को जब जब भी जानने का मौका मिला है ऐसा लगता है की वहाँ का किसान आज भी लगभग सौ साल पीछे की जिंदगी ज़ी रहे हैं ऐसा नहीं है की सरकारी नीतियाँ नहीं बनी हैं इनके विकास के लिए/ गौर से देखेंगे तो योजनाओ का अंबार है राज्यों और केंद्र सरकार के द्वारा लेकिन स्थिथिया आज भी ढाक के तीन पात हैं/ उत्तराखंड के गठन को 16 साल से अधिक हो चुके हैं इस दौरान 8 मुख्यमंत्रियों के हाथो राज्य की सत्ता आई है /भारत की दो सबसे महत्वपूर्ण नदियाँ गंगा और यमुना इसी राज्य में जन्म लेतीं हैं इसके अलावा हिमालय के विशिष्ठ पारिस्थितिक तन्त्र बड़ी संख्या में पशुओं , पौंधो और दुर्लभ जड़ी-बूटियों का घर है। ये बताने की जरूरत नहीं है की ये राज्य भारत के लिए कितना अहम है न सिर्फ पानी, जंगल या पारिस्थितिक तंत्र के लिए बल्कि देश की सुरक्षा के लिहाज से भी ये बहुत जरूरी है/जनसंख्या के मामले में यह राज्य देश में 20 वें स्थान पर है जहा की आबादी एक करोड़ से कुछ अधिक है/ साक्षारता की दर वहाँ पिछले कुछ वर्षो मे बढ़ी है लेकिन उसकी समस्याएँ आज भी ज्यो की त्यों बनी हुई है / ये बात सही है की अधिकांश छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता निरंतर समस्या बनी रहती है जो राजी के विकास मे बाधा बनती है उत्तराखंड भी इससे अछूता नही है/ जब तक ये प्रदेश उत्तर प्रदेश का अंग था तब तक इसकी अनदेखी काफी हुई है यही वजह है की 15-16 साल मे 5 दशक से ज्यादा समाई तक खोदे गई गड्ढे को भरा नहीं जा सका है/
गौर कीजिए उत्तराखंड राज्य की नींव जल-जंगल-ज़मीन के हुकूक की मांग पर रखी गई। लेकिन सोच उलट हो गया। आंदोलनकारी विधायक बन गए। प्राथमिकता लोकनीति की बजाय राजनीति हो गईं।
11वीं जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड के पौड़ी और अल्मोड़ा जैसे पहाड़ी जिलों में जनसंख्या कम हुई है और इसका सीधा मतलब है कि राज्य बनने के बाद भी पलायन तेजी से बड़ा है/सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड ऊपरी जिलों से हो रहे पलायन को रोकना बेहद जरूरी है; खासकर पिथौरागढ़, बागेश्वर, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जैसे आपदा प्रभावित जिले से। आखिरकार हिमालय और सेना के बाद की तीसरी सेना जो हैं हिमालयवासी यानि यहाँ के रहने वाले लोग । राज्य मे पंजीकृत बेरोजगारो की संख्या आज 8 लाख से उपर जा चुकी है /बेरोजगारी बेलगाम होती जा रही है रोजगार सृजन की दशा मे कुछ खास नहीं हो पा रहा है बेरोजगारी भत्ता सरकार पर अतिरिक्त बोझ बनती जा रही है /उत्तराखंड की इज्ज़त पर्यटन, शराब ,ठेकेदारी और थोड़ी बहुत कृषि से बची हुई है / जबकि 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।उत्तराखंड की कृषि व्यवस्था पर नजर दौड़ाएं तो यहां कुल 53.48 लाख हेक्टेयर में से 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती हुआ करती थी। कृषि विभाग के 2013-14 के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो कृषि योग्य भूमि घटकर 7.01 लाख हेक्टेयर पर आ गई है। यानि राज्य गठन के बाद डेढ़ दशक में 1.14 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर हो गई है। पलायन के चलते पहाड़ के गांव खाली हो रहे हैं और जो गांव आबाद हैं, उनमें मौसम समेत विभिन्न कारणों के चलते खेती से गुजारे लायक भी उत्पादन नहीं मिल पाता। अर्थव्यवस्था आज भी मनीआर्डर पर टिकी है।
सोचिए जब मैगी पर रोक लगी थी कितनी चोटी सी चीज़ है लेकिन हजारो लोग बेरोजगार हो गए क्योंकि पहाड़ो पर उबले अंडे और मैगी ही पर्यटको का मुख्य भोजन बन जाता है/
राज्य मे सड़के बनी जरूर है लेकिन गाँव गाँव तक पहुंची हो ऐसा नहीं है आज भी ऐसे बहुत से गाँव है जहां पहुँचने के लिए घंटो पहाडिय़ों पर चडऩा होता है अस्पताल और बाज़ार इतने दूर है की सारा दिन आने जाने मे खत्म हो जाता है / गाँव मे स्कूल तो जरूर है लेकिन एक ही कमरे या पेड़ के नीचे सभी कक्षाओ के विद्यार्थी एक साथ बैठते है यानि शिक्षा की गुणवत्ता का अंदाज़ा आप स्वयम लगा सकते हैं /उच्च शिक्षा के लिए इन्हे फिर मीलो दूर शहरो का रुख करना पड़ता है/ सोचिए जहां से गंगा यमुना जैसी नदिया निकाल रही हो वह बहुत सारे क्षेत्र ऐसे है जहा पर पानी की खूब किल्लत है टेंकरो के द्वारा पानी पहुंचाया जा रहा है/ पानी की कमी भी यहाँ के विकास मे मुख्य बाधक बन रही है जिसके चलते लोग गाँव छोडऩे को मजबूर है/ आंकड़े गवाह है जहा भी पानी की कमी हुई है वहाँ रोजगार के अवसरो मे बहुत ज्यादा कमी आई है/यहाँ ज़्यादातर लोगो से बात करने पर पता चलता है की वो कितने अवसाद से गुजऱ रहे है क्योंकि आखिरी उम्मीद की किरण भी दूर दूर तक नजऱ नहीं आती/आज राज्य की पूरी डेमोग्राफ़ी ही एक तरह से बदल गई है, मैदानी इलाक़ों पर जनसंख्या का दबाव है और पहाड़ों में वीरानी बढ़ती जा रही है /
लेकिन इनकी समस्याओं का मूल क्या है / उत्तराखंड की समस्याओं का अगर मूल देखा जाये तो वहाँ आज भी अधयोगिकरण का न होना है पिछले डेढ़ दशका मे उंगली पर गिने जाने लायक कल कारखानो की स्थापना हुई है/रुड़की से देहारादून की तरफ जाने पर आपको बड़े बड़े शिक्षा संस्थान और दवाओं के कारखाने दिखनेगे मगर ज़्यादातर बंद है वहाँ कोई काम काज नहीं होता/ असल मे सिर्फ ज़मीन को कब्जे मे लेने के लिए ये सब दिखावा किया गया है/उत्तराखंड में बाहरवालों को एक सीमा से ज्यादा जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है/ पानी के अभाव मे ऐसे ज़मीनों की कमी नहीं जो आज बंजर बन चुके है लेकिन उनका लेंड यूस नहीं बदला है ऐसे मे भूमालिक के पास क्या चारा बचता है/ ये बात सही है की उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य, जहां खेती की जमीन सिर्फ आठ प्रतिशत है, जमीनों को लेकर बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है।लेकिन जिन कंपनियों ने यहां अपने कारखाने लगाए उन्होंने यहां पूरी यूनिट कभी नहीं लगाई बल्कि केवल एसेंबलिंग यूनिट लगाई। जैसे ही औद्योगिक पैकेज खत्म होने लगा तो उन्होंने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया है। अब उनके लिए भी लैंड यूज बदलना आवश्यक होगा और इन जमीनों का क्या होगा यह बतलाने की जरूरत नहीं है।कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही भूमि घोटाले के आरोप लगे हैं। भाजपा के शासन में स्टुर्जिया भूमि घोटाले की चर्चा खूब रही। कांग्रेस सरकार पर सिडकुल की जमीन बेचने के आरोप लगे हैं/ जिन ज़मीनों पर अधयोगिक इकाइयां लगनी थी वह आने वाले वर्षो मे अपार्टमेंट या फ्लैट्स बन जाएंगे/वैसे भी पहाड़ की वे जमीने जहां से हिमालय का अच्छा दृश्य दिखाई देता है अधिकतर बिक चुकी हैं और अभी भी बिक रही हैं। दरसल ये सब क्रोनी कपिटलिसम का हिस्सा थी जिसमे विकास कार्यो आओर अधयोगिकरण की आड़ मे अपने चहेतों को भूमि का बंदरबाँट किया गया हलकी उनका तर्क है की ये सब पारदर्शी तरीके से हुआ लेकिन ज़्यादातर नेताओ उनके सगे संबंधियों को जमीने दी गई /अगर यही जमीने सही हाथो मे होती तो न जाने कितने ही कारखाने और फर्मासूतिकल्स कंपनीया आज सही तरीके से वह के लाखो बेरोजगारो को रोजगार दे रही होती/ देहरादून से अन्यत्र गैरसना राजधानी बनाने के पीचे भी यही लॉबी सक्रिय थी/ आज से दो साल पहले उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने पहाड़ों में औद्योगिक विकास के लिए नई नीति को मंज़ूरी दी थी जिस नीति के तहत
सूक्ष्म, छोटे और लघु उद्योगों को पहाड़ी क्षेत्र में उद्योग लगाने के लिए आकर्षक रियायतें दी जाने वाली थी / सरकार का दावा था की इससे पहाड़ों से पलायन रोकने में मदद मिलेगी और पहाड़ी युवाओं में आत्मनिर्भरता आएगी लेकिन हक़ीक़त आज भी इससे कोसो दूर है /
पहाड़ को लेकर नीति बनाने या बदलने में बीजेपी और कांग्रेस सरकारों ने तो तत्परता दिखाई लेकिन अमल में ये कितना आ पाई ये बताने की जरूरत नहीं है दरअसल उधयोगों को सहूलियत देने के नाम पर जिस तरह से सबसिडी और ज़मीनों का बंदरबाँट हुआ उसने राजय को बधाली की कगार पर पहुंचा दिया है/

इन सब के अलावा उत्तराखंड को सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण के झण्डाबादार लोगो ने किया है जिनहोने पर्यावरण के नाम पर विकास नहीं होने दिया / जब केदारनाथ बदीनथ मे त्रासदी आई थी याद कीजिये सब ने एक स्वर मे यहाँ होने वाले विकास कार्यो पर उंगली उठाई थी /पाँचवी फेल साधु भी मूह उठाए पर्यावरण विशेषज्ञ बन गए थे और टिहरी डैम, पर्वतारोहिओ के कूड़ा कचरे और न जाने क्या क्या अजीबोगरीब दलीले दी गई थी/विशेषज्ञों के मुताबिक चूंकि पहाड़ों पर बांध बनाकर नदियों के नैसर्गिक प्रवाह को रोका जा रहा है इसलिए भी उस क्षेत्र में भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ आने की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं। हलकी आपदा के बाद आई रिपोर्ट उन सब विशेषज्ञो के मूह पर तमाचा थी जिसने बताया की यदि टिहरी बांध नहीं होता तो हरिद्वार व ऋषिकेष को भी डूबने से बचाया नहीं जा सकता था।
ऐसे अनेक विकासकारी परियोजनाए और डैम है जो की पर्यावरण हितेषियों की भेंट चड़ गए/ क्या पर्यावरण के नाम पर यहाँ के मूल निवासियों की सुख सुविधाओ रोजगार की बलि चढऩा सही है / क्या सम्पूर्ण भूभाग को हरा भरा रखने के लिए और पर्यावरण कार्यकर्ताओ के ऊल जलूल तर्को और मांगो के लिए उत्तराखंड वासियों के साथ ये अन्याय करना सही है / वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने भी अपनी एक लेख में जिक्र किया था कि किस प्रकार तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को कुछ लोगों के दबाव उत्तराखंड में छोटे छोटे बांधों के निर्माण कार्यों को बीच में बंद कराने को मजबूर होना पड़ा। सोचिए आगरा वहाँ निर्माण कारी हुए होते तो वह आज क्या तस्वीर होती/अपने एक लेख मे अविनाश चन्द्रा कहते है की ” दुनिया के सर्वाधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र जापान में भी कभी विकास कार्यों की आलोचना नहीं की गई बल्कि जापानियों द्वारा उससे निबटने और उसके साथ सामंजस्य बैठाते हुए निर्माण कार्यों को अंजाम देकर जीवन स्तर को उच्च स्तर पर पहुंचाने की कोशिश की जाती है। अमेरिका सहित ऐसे तमाम देश हैं जहां आए दिन भयंकर चक्रवाती तूफान आते रहते हैं लेकिन वहां इस प्रकार का तंत्र विकसित कर लिया गया है जिससे नुकसान को न्यूनतम किया जा सके”/
भारत मे परिस्थितिया इसकी उलट है विकास कार्यो की आलोचना तो की जाती है लेकिन समाधान की बात कोई नहीं करता /क्योंकि अगर समाधान की बात की जाएगी तो राजनीति और दूकानदारी स्वतह समाप्त हो जाएगी और ऐसा कोई क्यों करना चाहेगा/
समस्या के मूल में समाधान स्वत: निहित होता है। उत्तराखंड में विकेन्द्रित स्तर पर शिक्षा, चिकित्सा, खेती, बागवानी, वन्य जीव, वनोपज, जैव तकनीकी, खाद्य प्रसंस्करण संबंधी उच्च शिक्षा, शोध, कौशल उन्नयन तथा उत्पादन इकाइयों की स्थापना आज वक़्त की मांग है / उचित पैकेजिंग, संरक्षण तथा विपणन व्यवस्था के अभाव में उत्पादनोपरांत 40 प्रतिशत फल तथा 80 प्रतिशत वनोपज बेकार चले जाते हैं। इनके संरक्षण की ढांचागत व्यवस्था आज सबसे बड़ी जरूरत है/। इसके साथ ही निज़ी क्षेत्र के उधमियों का भी उत्तराखंड मे विश्वास फिर से जगाना होगा क्योंकि उनको ये होसला देना बहुत जरूरी है की कोई भी सरकार आए वो अनावश्यक रूप से आपके काम मे हक्ष्तेप नहीं करेंगी/ क्योंकि उत्तराखंड मे बदलाव अब सिर्फ निज़ी प्रयासो से ही आ सकती है जिससे की वह काय लोगो को विभिन्न प्रकार के रोजगार उपलब्ध होंगे/ सिर्फ मैदानी इलाको मे ही नहीं बल्कि पहाड़ो इलाको मे छोटे बड़े कारखाने और डेरी फ़ार्मिंग जैसे उधयोग राजय को नई दिशा दे पाने मे सक्षम होंगे/

स्वतंत्र लेखक और कंसल्टेंट लोकसभा टीवी