कोरोना-काल में सोशल मीडिया पर साहित्य

डॉ. सुधीर सक्सेना। कोरोना हमारी शब्दावली और शब्दकोश में आया हुआ नवजात शब्द है। यूं तो यह शब्द चिकित्सा और भेषज शास्त्र में अर्से से प्रयुक्त था, असबत्ता इसका अत्यंत संक्रामक संस्करण कोविड-19, जिससे सारा संसार त्रस्त है, सर्वथा नया है। यद्यपि इससे जुड़े क्वारंटाइन का ज्ञात इतिवृत्त सन् 1377 से शुरू होता है और पिछली कई शताब्दियां विश्व में महामारियों की चश्मदीद हैं, लेकिन अतीत की किसी भी विभीषिका की व्यापकता और सघनता ऐसी न थी। विश्व में विभईषिकाएं पहले भी आईं, कभी बाढ़ यानी जलालावन, कभी दुर्भिक्ष, कभी ज्वालामुखियों में अग्निस्फोट, कभी अग्निकांड, कभी हैजा, कभी ताऊन, कभी ऐड्स, कभी मस्तिष्क-ज्वर, कभी त्सुनामी या टीना, कभी विश्वयुद्ध, कभी नरमेध तो कभी भूकंप, किन्तु विश्व में सभी महाद्वीप, सभी भूखंड, देश-देशांतर, क्या विकसित, क्या अविकसित, क्या विकासशील राष्ट्र, क्या राजा, क्या रंक, क्या गांव, क्या कस्बे, क्या शहर सबकुछ आज खौफ़ के साये में हैं, लेकिन सबसे बढक़र कोरोना एक सार्वदेशिक हौव्वा है, डर है, खतरा है, जो चीन के वुहान से शुरू होकर चतुर्दिक-सर्वत्र मंडरा रहा है। कह सकते हैं कि करोड़ों वर्षों से अफनी धुरी पर और अपने प्रदक्षिणा पथ में अहर्निश घूम रही पृथ्वी मरणांतक खौफ से ऐसे स्याह बोगदे से गुजर रही है, जिसका रोशन सिरा फिलवक्त नजर नहीं आता।
‘‘यह डर है/ डरों की तालिका में/ अपूर्व अनहोना और अनिष्टकारी-’’ कोरोनाकाल में कवि कहता है : ‘‘कोई छईंकेगा सहसा/ और हम डर जाएंगे/ यकबयक कोई गले लगाएघा तपाक से/ और हम डर जाएंगे/ यत्र तत्र सर्वत्र/ डर हमारे साथ होगा/ डर हमारे साथ चहलकदमी करेगा/ हम डरे हुए होंगे/ और डर निडर/ क्या भय और मनुष्य की/ जुगलबंदी के सूत्रपात के लिए/ याद किया जाएगा/ इतिहास में/ सन् बीस सौ बीस ईस्वी/ नामुराद/- जी हां, ये उन कविताओं की पंक्तियां हैं, जो कोरोनाकाल में लिखी गईं। कोरोना-सीरीज की ये पंद्रह कविताएं कहीं छपी नहीं। कल छप जाए बात दीगर, मगर ये कविता के वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुंच गयी हैं। इनमें से कुछ का अनुवाद अंग्रेजी में दिनेश कुमार माली ने किया, तो कुछ अन्य का भास्कर चौधरी ने। उदय बेहरा ने इनका ओडिय़ा में अनुवाद किया तो सुभाषिणी रत्नायक ने सिंहली में अनुवाद की इच्छा व्यक्त की। डॉ. संध्या टिकेकर ने तो कोरोना विषयक एक कविता का मराठी अनुवाद ही कर डाला।
प्रश्न उठता है कि यह कैसे मुमकिन हुआ? प्रश्न सीधा है और उत्तर भी उतना ही सीधा और सपाट। उत्तर है कि यह सोशल मीडिया से मुमकिन हुआ। सोशल मीडिया है तो आज बहुत कुछ मुमकिन है। सोशल मीडिया की बदौलत ये कविताएं सरहद के पार पहुंच गयीं, मसलन मस्क्वा में अनिल जनविजय, टोरंटो में हंसा दीप और धरम जैन, कोलंबो में सुभाषिणी रत्नायक तक। दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी की प्रतिष्ठित अकादेमिक पत्रिका ने उन्हें शीघ्र छापने की सूचना दी। अनगिन प्रतिक्रियाएं मिलीं। सराहनाएं भी।
बिला शक यह मुमकिन हुआ सोशल मीडिया की उपस्थिति और उसकी अकूत शक्ति से। डर से डर, डर से कहीं बड़ा होता है। समूची पृथ्वी पर आज डर का साम्राज्य है। पृथ्वी डरी हुई है। बहुत कुछ स्थगित है। बहुत कुछ जो जरूरी और हमारे दैनंदिन का हिस्सा था, को कोरोना ने अवरुद्ध या स्थगित कर दिया है। एक बड़ा-सा वैक्यूम, बड़ी-सी रिक्तिका उभर आई है। गनीमत है कि हम निर्विकल्प नहीं हैं। हमारे पास ‘ऑप्शन’ हैं। सोशल मीडिया ने बखूबी उस वीराने को, सन्नाटे को, अभाव को तोड़ा है, जिसकी जकडऩ सोशल मीडिया की अनुपस्थिति में बहुत भयावह या कहें तो अकल्पनीय हद तक तकलीफदेह हो सकती थी। अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता का टेक्नोलॉजी से सीधा और अटूट रिश्ता है। चमड़े और भोजपत्र के बाद कागज की खोज और फिर गूटेनबर्ग द्वारा छापेखाने की ईजाद ने जो क्रांति की थी, कंप्यूटर के रास्ते अब सोशल मीडिया उसकी ही आधुनिकतम कड़ी है, उसकी व्यापकता और त्वरा के सामने पुराने, पारंपरिक व प्रचलित साधन फीके, महंगे और गैर-जरूरी होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर ‘कविता-संवाद’ के जरिए अपनी पहचान बना चुके वरिष्ठ कवि कौशल किशोर का मानना है कि साहित्य को स्वयं नई तकनालाजी के अनुरूप ढालना जरूरी है और इसी से उसे नये आयाम मिलते हैं। कोरोनाकाल में सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका बखूबी सामने आई है। यह सोशल मीडिया ही है कि आजकल जैसी पत्र-पत्रिकाएं लोगों तक पहुंच रही हैं।