खोखले चुनावी वादें कब तक?

ललित गर्ग। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए चुनावी वादों की ऐसी भरपूर बारिश होने लगी है कि लगने लगा है लोकतंत्र नेताओं के लिए ही नहीं, जनता के लिए सचमुच महाकुंभ की तरह है। लेकिन विडम्बना यह है कि ये वादें एवं नारे खोखले होते हैं। किसी समस्या की गहराई में जाकर उसके सूक्ष्म पक्षों पर चर्चा करने से ज्यादा आसान है बड़ी-बड़ी बातें करना, भावनात्मक मुद्दों को उछालना और मतदाताओं को लुभाना एवं ठगना। पुराना मुहावरा है कि झूठ की जुबान लंबी होती है और चुनाव के समय राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की जुबान सचमुच बहुत लम्बी हो जाती हैं। यह लोकतंत्र के आदर्श को धुंधलाने की एक कुचेष्टा ही हैं। क्योंकि इन वादों का यथार्थ से कुछ भी लेना-देना नहीं होती। अगर ये वादें सचमुच आम जनता के दु:ख-दर्द एवं समस्याओं को कम करने के लिये होते तो उन्हें बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं पड़ती। राजनीतिक पार्टियों द्वारा लगभग 70 वर्षों से अब तक शब्दों के हेरफेर से पुराने वादे ही दोहराए जा रहे हैं। वे जो पहले पूरा नहीं कर पाए, चुनाव आते ही उसे भी पूरा करने का दम भरना जनता के विश्वास के साथ खेलना है। साफ है कि राजनीतिक दल भी प्यार और जंग में सब कुछ जायज वाली कहावत को सटीक मानते हैैं। उनके लिये सिर्फ जीत मायने रखती है, उसके तौर-तरीके नहीं, उनकी ईमानदारी एवं नैतिकता नहीं, उनकी कथनी-करनी की समानता नहीं। चूंकि शुद्ध साध्य के लिये शुद्ध साधनों की पवित्रता की परवाह नहीं की जाती इसलिए जनता को भरमाकर, उन्हें गुमराह करके चुनावों में जीत का सेहरा बांधने की पुरजोर कोशिश होती है।
वर्ष- 2019 के लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में अनेक प्रश्न खड़े हैं, ये प्रश्न इसलिये खड़े हुए हैं क्योंकि महंगाई, बेरोजगारी, बेतहाशा बढ़ते डीजल-पेट्रोल के दाम, आदिवासी-दलित समाज की समस्याएं, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, वर्ग-संघर्ष एवं जाति-संघर्ष तथा विभिन्न विचारों, मान्यताओं के दलों के घालमेल की राजनीति से देशवासी निराश हो चुके हैं। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र 70 वर्षों की लम्बी यात्रा कर अनेक कसौटियों के बाद भी आज क्षेत्रीयता, जातिवाद, धर्म एवं अलगाववाद के आधार पर बंटने के कगार पर खड़ा है। अलग-अलग झण्डों व नारों के माध्यम से नेता लोग आकर्षक बोलियां बोल रहे हैं। आज क्षुद्र राजनीति के मुकाम पर लोगों को अलहदा करने के लिए बाजीगर तैयार बैठे हैं। चुनाव के तवे को गर्म करके अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने की तैयारी में हैं। राष्ट्र को सही दिशा देने वाले दूरदर्शी नेताओं का आज जितना अभाव है, उतना आज़ादी के बाद नहीं रहा। कोई ऐसा सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है, जिसके आह्नान पर जनता, विशेषकर युवक निकल पड़ें। कोई नेता ऐसा नहीं है जिसके हाथ में बागडोर थमाकर कम से कम देश की अखण्डता की सुरक्षा के प्रति हम सब आश्वस्त हो सकें। किसी नेता में यह पात्रता है तो उसे धूमिल करने के सारे प्रयास किये जा रहे हैं।
नरेन्द्र मोदी सरकार के आखिरी बजट के संदर्भ में यह मानकर चला जा रहा है कि यह बजट चुनावी बजट होगा, जिसमें चार वर्षों से कठोर फैसले के लिए जानी जाने वाली सरकार अब आम जनता को आकर्षित करेगी, राहत देगी। पिछले एक महीने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तीन बड़ी घोषणाएं कर चुके हैैं-किसान कर्ज माफी, न्यूनतम आमदनी की गारंटी और महिला आरक्षण। क्या वह बताएंगे कि इसमें ऐसा क्या है जो कांग्रेस की ओर से पहली बार कहा जा रहा है? चुनाव के समय की जाने वाली इन घोषणाओं का सीधा अर्थ है जनता को अपनी ओर आकर्षित करना, अपने पक्ष में वोट डालने की स्थितियां पैदा करना। बदले हुए हालात में ये चुनाव अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं लेकिन प्रश्न यह है कि नये भारत के निर्माण में इस चुनाव की निर्णायक भूमिका पर फिर भी संदेहों के घेरे क्यों है?
सभी दलों की दौड़ “येन-केन” सत्ता प्राप्त करना या सत्ता में भागीदारी करना है। राजनैतिक पार्टियां अपने प्रत्याशी के चयन में केवल एक ही दृष्टिकोण रख रही हैं, “जीतने वालों को टिकट दो”। बस, और कोई गुण-दोष आधार नहीं होता। तब मतदाता के सामने कोई विकल्प नहीं रहता कि कौन से गुणों को प्रत्याशी में देखें। इस मजबूरी से मतदाता को निकलना ही पड़ेगा। अन्यथा कितने ही चुनाव हो जाएं, स्थिति में कोई बड़ा फर्क पडऩे वाला नहीं। शिक्षित मतदाताओं की जागरूकता, अनपढ़ मतदाताओं को इस रूप में प्रशिक्षण तथा कुछ राजनैतिक एवं समाजसेवी संस्थाओं को दृढ़ मनोबल के साथ प्रत्याशी के चयन हेतु एक आचार संहिता को लेकर आगे आना होगा। जिस दिन राजनैतिक दलों के बराबर ऐसी संस्थाओं की आवाज का महत्व बनेगा, उसी दिन सही प्रत्याशी मैदान मे उतरेंगे, उसी दिन चुनावों में वास्तविक वादें भी उभर सकेंगे। उसी दिन मतदाता बिक्री की सामग्री नहीं रहेंगे। उसी दिन हम लोकतंत्र या चुनाव शुद्धि के प्रथम सोपान पर कदम रख सकेंगे। अन्यथा धर्म की दुहाई, झूठे आश्वासन, शराब की एक बोतल, कुछ रुपयों का लालच और लाठी का भय हमारे शहीदों की कुर्बानी से प्राप्त लोकतंत्र को नष्ट करते रहेंगे, लोकतांत्रिक मूल्यों को धुंधलाते रहेंगे। क्या देश की मानवतावादी एवं लोकतांत्रिक शक्तियां इस दिशा में ध्यान देकर राष्ट्रीय जीवन को नया मोड़ देने का सम्मिलित प्रयास करेंगी?
किसानों का कर्ज लगभग 4 लाख करोड़ रुपये है। अगर न्यूनतम आमदनी योजना लागू की जाए तो उस पर भी लगभग सात लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। क्या भारत फिलहाल इस स्थिति में है कि बाकी जन कल्याणकारी योजनाओं के साथ इतनी बड़ी योजना शुरू की जा सके? क्या यह सच नहीं कि 50 साल पहले कांग्रेस ने गरीबी हटाने का नारा दिया था? कांग्रेस के आखिरी कार्यकाल यानी संप्रग-दो के वक्त तक भारत में गरीबी का आंकड़ा लगभग 30 फीसद था। अगर न्यूनतम आमदनी गरीबी खत्म करने की गारंटी है तो इतने वर्षों तक उसे क्यों नहीं लागू किया गया? पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार चलाने के बाद भी यह हाल है तो फिर सवाल है कि ऐसे चुनावी वादों पर जनता भरोसा ही क्यों करे? आम जनता यह भलीभांति जानती है कि एक राजनीतिक दल की भारी-भरकम लोकलुभावन घोषणाएं सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हुए हांफने लगती हैैं। उसके सामने कभी संसाधन तो कभी राजनीतिक मजबूरी आड़े आती रही है। आखिर राजनीतिक दलों के इस शह-मात में जनता कहां खड़ी है? उसके हाथ क्या लगने वाला है? जनता कब बुनियादी समस्याओं से मुक्त होगी?
विभिन्न दलों के घोषणापत्रों और नेताओं के वादों को गहराई से देखने पर प्रतीत होता है कि उनमें स्वार्थ हावी हैं। राजनीतिक दल और उनके नेता अक्सर जनता से पानी, बिजली, सड़क और रोजगार का वादा करते देखे जाते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते कि सत्ता में आने के बाद इन वादों को हकीकत में किस तरह बदलेंगे। यही कारण है कि आजादी के सत्तर सालों के बाद भी जनता चुनावी वादों से ठगी जाती रही है। कुव्यवस्था और कुप्रशासन के कारण बढऩे वाला अपराध और भ्रष्टाचार आम जनता के लिए हर जगह आज भी भयावह बना हुआ है। केंद्र एवं राज्यों में ढेरों नए कानून बने हैं, सरकार ने कई राजनीतिक कदम उठाए हैं लेकिन आम नागरिकों का जीवन पहले ही तरह जटिल और चुनौतिपूर्ण बना हुआ हैं।
सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार मिटाने की बातें बहुत अच्छी लगती हैं और कई बार इससे यह उम्मीद भी पैदा होती है कि पूरा नहीं तो थोड़ी ही सही, भ्रष्टाचार में कमी आएगी लेकिन कोई भी दल यह नहीं बताता सत्ता में आने के बाद वो इसके लिए कौन से कदम उठाएगा। आम जनता को सबसे ज्यादा प्रभावित करती है कानूनी औपचारिकताएं। इनको सरल एवं सहज बनाने की दिशा में अब तक ठोस कदम नहीं उठाये गये हैं, यही कारण है कि आज भी आम आदमी विवाह, जन्म और मृत्यु प्रमाण-पत्र जैसी चीजों के न मिलने या फिर स्कूल और अस्पताल में प्रवेश न मिलने की जटिल एवं त्रासद स्थितियों से रू-ब-रू हैं। गैर-कानूनी तरीकों का सहारा लिए बगैर ड्राइवरी का लाइसेंस बनाना या घर की रजिस्ट्री कराना नाकों चने चबाने जैसा है। घूस दिए बिना या निचले स्तर की बाबूगिरी से पार पाए बगैर जमीन-जायदाद का स्थानांतरण, जमीन, मकान, फ्लैट की रजिस्ट्री इत्यादि कराना संभव नहीं है। तकरीबन 80 फीसदी आम भारतीयों के लिए रोज-ब-रोज का भ्रष्टाचार, कुप्रशासन और दैनिक सुविधाओं का अभाव सबसे बड़ी समस्या है लेकिन चुनावों के दौरान या अन्यथा भी वर्तमान राजनीतिक विमर्श में इन मुद्दों की कोई खास चर्चा नहीं होना राजनीतिक दोगलेपन को ही उजागर करता हैं। समय की मांग है कि आम आदमी को त्वरित और प्रभावी सेवा मिल सके लेकिन राजनीतिक दलों के पास न तो समय है, न ही नीयत और न ही कोई ऐसा तरीका है जिससे वे आम आदमी का जीवन आसान बना सकें। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिये चुनाव, चुनावी वादें एवं राजनीतिक सोच का नया सूरज उगाना होगा।