छोटा दायरा, बड़ा कलेवर

laghu patrikaअनंत विजय।
हिंदी में लघु पत्रिकाओं को लेकर अब भी खासा उत्साह बना हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में करीब सौ साहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं, जिनके पीछे कोई संस्थागत पूंजी नहीं है। व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली ये साहित्यिक पत्रिकाएं ज्यादातर अनियतकालीन निकलती हैं यानी इन पत्रिकाओं की आवर्तिता निश्चित नहीं है। जब साधन और रचनाएं जुट जाएं तो पत्रिका निकल आती है। हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है। कई पत्रिकाएं महानगरों से निकलती हैं। दिल्ली सरकार ने एक वक्त लघु पत्रिकाओं को प्रति अंक तीस हजार रुपए की आर्थिक सहायता देनी शुरू की थी। उस वक्त कई साहित्यिक पत्रिकाएं दिल्ली सरकार की इस सहायता के बाद कब्र से बाहर निकल आई थीं। उनका आवर्तिता भी नियमित हो गई थी। बाद में दिल्ली सरकार की वो स्कीम बंद हो गई तो वे पत्रिकाएं फिर कब्र में चली गईं।
कई पत्रिकाएं देश के सुदूर इलाकों से निकल रही हैं जो अपने संपादक की जिद, जुनून और मेहनत से निकल रही हैं। उनके पीछे उनका साहित्य प्रेम तो होता ही है, एक नया पाठक वर्ग तैयार करना भी मकसद होता है। मकसद तो स्थानीय प्रतिभाओं को मौका देना भी होता है। लघु पत्रिकाओं का यह हिंदी साहित्य को बड़ा योगदान है। उन पत्रिकाओं से अपने लेखन की शुरुआत करने वाले लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त है जो अब हिंदी के मूर्धन्य लेखक हैं। कुछ लघु पत्रिकाएं तो स्थानीय बोलियों में भी निकल रही हैं। उस बोली-भाषा के लेखकों को देश के पाठकों के सामने ला रही है।
ऐसी ही एक पत्रिका है अंगिका लोक जो खुद को अंग देश का अमृत मंथन कहती है और अंगिका के मान-सम्मान और पहचान के लिए संकल्पित है। बिहार के दरभंगा से निकलने वाली यह पत्रिका अंगिका भाषा में निकलती है। अंगिका ऐतिहासिक अंग प्रदेश में बोली जाती है, जिसका इलाका मुख्यत: भागलपुर, मुंगेर के इलाके हैं। भारत में जिन सोलह जनपदों की बात की जाती है, उसमें काशी और कौशल के बाद अंग का ही नाम आता है। अंग प्रदेश से महाभारत के चरित्र कर्ण भी जुड़े हुए हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक मुंगेर के कर्णचौरा से ही अंग प्रदेश के राजा कर्ण दान किया करते थे। आज उस स्थान पर पूरी दुनिया में मशहूर बिहार स्कूल ऑफ योग का मुख्यालय है। यह पत्रिका पिछले ग्यारह सालों से निकल रही है। पत्रिका का ताजा अंक (अक्तूबर-दिसंबर 2015) डॉ. लक्ष्मी नाराय़ण सुधांशु पर केंद्रित है। संपादकीय भले ही अंगिका में लिखा गया है लेकिन बाकी सामग्री देवनागरी में ही है। इसमें कुछ रचनाएं अंगिका में भी हैं। अंगिका में कविता पढ़ते समय पाठकों को एक अलग ही तरह का स्वाद मिलता है। मुझे लगता है इस तरह की पत्रिकाओं का दायरा छोटा होता है लेकिन इनका फलक बहुत बड़ा होता है। हिंदी में लगभग विस्मृत लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी के बारे मे हिंदी के नए पाठकों को बताना ही एक बेहद महत्वपूर्ण काम है।