टूट गई काशी की रामनगर की जीवंत रामलीला की परंपरा

काशी रामलीला का गढ़ माना जाता है। कोरोना महामारी के कारण करीब 250 साल से चल रही काशी की विश्व प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला नही होगी। 30 दिन तक चलने वाली रामनगर की रामलीला में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु जुटते रहें है। ऐसे लोग जो हर दिन शुरू से अंत तक रामलीला देखने पहुंचते है उन्हे ‘नेमी’ कहा जाता है। रामनगर की रामलीला की दुनिया की अनूठी मुक्तांगन रंगमंच के तौर पर भी पहचान है। इस बार किले के अंदर रामलीला के दौरान होने वाला पूजन हो रहा है।
रामलीला प्रेमियों को उम्मीद थी कि संकष्टी गणेश चतुर्थी को रामनगर में गणेश पूजन हुआ तो लीला भी होगी, लेकिन रामनगर के काशीराज अनंत नारायण सिंह खुद कोरोना पॉजिटिव हो गए। उन्होने रामलीला आयोजित न करने का निर्णय किया। वाराणसी के रामनगर की रामलीला कई मायने में खास है। रामनगर में 10 किलोमीटर के क्षेत्र में अलग-अलग दिन अलग-अलग जगह रामलीला का मंचन होता है। यही नहीं प्रतिदिन होने वाली लीला के लिए भी भक्त एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते हैं। लगातार 30 दिनों तक विभिन्न स्थानों पर इस लीला का मंचन होता है। आधुनिकता के इस दौर में भी रामनगर की रामलीला अपने पुराने स्वरूप को जीवंत रखे हुए है। पेट्रोमेक्स की रोशनी में बिना माइक साउंड के आज रामलीला का मंचन होता है। इसमें कुछ मानवीय स्पेशल इफे्क्ट भी देखने को मिलता है। रामलीला की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रतिदिन पांच हजार से अधिक लोग आते हैं, जिनमें स्थानीय देश व विदेशों के लोग शामिल होते रहें है। रामनगर की रामलीला वर्ष 1783 से आयोजित की जा रही है।
इसके साथ काशी की नॉटी इमली का भरत मिलाप की जबर्दस्त लोकप्रिय है। बेहद सादगी से होने वाले राम और भरत के इस मिलाप में त्रेता युग की झलक साकार होती है। इसे श्रीचित्रकूट रामलीला समिति आयोजित करती है, आयोजकों का दावा है कि यह जिसका इस बार 475 वर्ष पूरे कर चुकी है। दावा है कि रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के मित्र मेघा भगत ने संवत 1600 में श्रीचित्रकूट रामलीला समिति की स्थापना की थी। नॉटी ईमली का भरत मिलाप यही समिति करती है। उप्र के पर्यटन मंत्री नीलकंठ तिवारी का कहना है कि भरत मिलाप के समय अपूर्व अध्यात्मिक वातारण होता है। तिवारी ने बताया कि आयोजक समिति खुले में भरत मिलाप और रामलीला नही कर रही है। लेकिन कमरे में पूजन की पंरपरा निभायी जाएगी। काशी में मौनी बाबा की रामलीला, लाट भैरव की रामलीला और अस्सी की रामलीला का इतिहास भी चार सौ वर्ष पुराना माना जाता है।
वाराणसी की नाटी इमली का भरत मिलाप व चेतगंज की नक्कटैया हो या रावण दहन या फिर गांव मोहल्लों में रामलीला के मंच हों, इस बार कोरोना महामारी के कारण सार्वजनिक रूप से नही होगी।
यहां एक अनूठा प्रयोग हो रहा है। कोरोना महामारी ने जिंदगी के कई आयाम को ऑनलाइन कर दिया है। इसका असर पंरपराओं पर भी हो रहा है। वाराणसी की एक संस्था ‘काशी घाट वॉक’ की ओर से अयोध्या की तरह काशी में भी डिजिटल प्लेटफार्म पर देश-दुनिया के लोग घर बैठे रामलीला दिखाने की तैयारी है। लेकिन बिल्कुल भिन्न और अनूठी तरह। संस्था, लगातार एक महीने तक प्रतिदिन दो मिनट 20 सेकेंड के एपिसोड में रामलीला के हर प्रसंग को मुखौटों के साथ पेश करेगी। इस तरह एक घंटा 10 मिनट में ही संपूर्ण रामलीला प्रसारित हो जाएगी। काशी घाट वॉक के संस्थापक और बीएचयू के न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. वी.एन.मिश्र ने बताया कि डिजिटल प्रसारण पहली से 30 अक्टूबर तक चलेगा। इसके लिए रामनगर की रामलीला के आधार पर प्रसंग क्रम निर्धारित कर रामलीला की रिकॉर्डिंग शुरू हो चुकी है। पात्रों के संवाद भी लगातार डब किए जा रहे हैं। वीडियो में दिखने वाले पात्र खासतौर पर तैयार किए जा रहे लुगदी से बने मुखौटे धारण किए दिखेंगे। रामलीलाओं के प्रतिरूप मुखौटे ऑनलाइन मार्केटिंग प्लेटफार्म से हांसिल किया जा सकता है। इनमें श्रीराम, लक्ष्मण, जानकी के बाल स्वरूप, हनुमान, सुग्रीव, जामवंत, अंगद, रावण, विभीषण, कुंभकर्ण व मेघनाद के 11 छोटे-बड़े मुखौटों का सेट देश और दुनिया के हर कोने में लोगों को उपलब्ध होगा। मुखौटों के साथ रामलीला के प्रमुख संवाद वाला मैन्युअल भी दिया जाएगा। लोग खुद ही अलग-अलग मुखौटे लगा पात्र बन और मैन्युअल पढ़ कर रामलीला से जुड़ सकेंगे। रामलीला के स्वरूपों के मुखौटों को मिट्टी के सांचे में कागजी की लुगदी से तैयार किया जा रहा है। इसका जिम्मा राजेंद्र श्रीवास्वत व उनके साथ के 15 शिल्पियों की टीम को मिला है। राजेंद्र श्रीवास्तव देश में मंनोरंजन के सबसे प्राचीन साधनों में शामिल कठपुतली नृत्य कला के भी जानकार हैं।