दस योगों का महायोग है सिंहस्थ

singhasth 2016कृष्णमोहन झा। सिंहस्थ 2016 की उलटी गिनती शुरू हो गई है। देश के हृदय स्थल मध्यप्रदेश के महाकाल की नगरी में क्षिप्रा के तट पर हर बारह वर्ष में सिंहस्थ का अयोजन उस समय होता है जब ब्रहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करता है, सिंहस्थ स्नान की प्रक्रिया चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर वैशाख पूर्णिमा के साथ संपन्न होती है। ऐसी किवंदतिया है कि सिंहस्थ के लिए दस योगों का एक साथ होना चाहिए। महाकाल के आशीर्वाद से बारह वर्ष में एक बार यह सुखद संयोग होता है। सिंहस्थ को लेकर संपूर्ण देश में भारी उत्साह है। मध्यप्रदेश सरकार भी इस आयोजन को भव्य स्वरूप देने में लगी हुई है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस आयोजन को ऐतिहासिक बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहते। उन्होंने सिंहस्थ में लोगों को आमंत्रित करने का सिलसिला अपने विदेश दौरे के दौरान ही प्रारंभ कर दिया है। देश के प्रधानमंत्री को भी वे इस आयोजन के लिए आमंत्रित कर चुके है। पूरा शासकीय अमला इस समय सिंहस्थ के लिए सभी आवश्यक संसाधन जुटाने के साथ ही अधोसंरचना निर्माण में भी लगा हुआ है। साधु समाज भी देश-विदेशों में फैले अपने शिष्यों को इस सिंहस्थ में शामिल होने का बुलावा भेज चुके है। भारतीय साधुओं के सन्यासी, उदासीन, निर्मल, दादूपंथी, कबीर पंथी, नाथपंथी, वैष्णव, खालसा पंथी के संत इस आयोजन में शामिल होते है। उज्जयनी महापर्व पर शामिल होने वाले साधु समाज का सबसे बड़ा गुण है उसकी विशालता, व्यापकता और वैविक्ष्य। सिंहस्थ आयोजन की व्यवस्था को लेकर संत समाज और प्रशासन के बीच टकराहट होती रहती है। संत समाज इस आयोजन में कोई भी खामिया बर्दास्त करने को तैयार नहीं है। समय समय पर दोनों पक्षों के बीच सुलह कर शासन ने सारी व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किए है। सिंहस्थ 2016 आज तक आयोजित सिंहस्थों में सर्वाधिक बेहतर बने यह प्रयास मध्यप्रदेश की भाजपा शासित सरकार कर रही है।
सिंहस्थ के इतिहास और उसके महत्व को लेकर आमजनों के मन में प्रश्न उठते रहे है। हर बारह वर्ष में एक बार इस आयोजन के होने से युवाओं के मन में यह प्रश्न उठना लाजमी भी है। इस लेख में सिंहस्थ के ऐतिहासिक महत्व के साथ ही आयोजन की शुरुआत पर प्रकाश डालना भी आवश्यक है। महाकालेश्वर की नगरी उज्जयिनी और क्षिप्रा नदी सदियों से भारत के महान धार्मिक और सांस्कृतिक स्वरूप के केन्द्र बिन्दु रहे है। परंपरागत मान्यता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश के लिए जब देव-दानव युद्ध हुआ तो इंंद्रपुत्र के हाथ में रखे अमृत कलश से अमृत की बूंदे झलक पड़ी थी, उनमें से कुछ अमृत बिन्दु उज्जयिनी के शिप्रा नदी में जा गिरी थी। तीन अन्य जगहों में भी अमृत की बूंद झलकी थी वह है नासिक, हरिद्वार और प्रयाग। इन तीनों स्थानों में भी महापर्व मनाया जाता है। यहां यह पर्व महाकुंभ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। विष्णु पुराण के अनुसार उज्जयिनी के सिंहस्थ स्नान के लिए दस अनिवार्यताओं का समावेश एक साथ आवश्यक है- वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो, पूर्णिमा तिथि हो, मेष राशि में सूर्य हो, सिंह राशि पर बृहस्पति हो, तुला राशि पर चंद्र हो, स्वाति नक्षत्र हो, व्यतिपात योग हो, सोमवार का दिन हो और स्थान उज्जयिनी हो। यह महायोग स्नान को फलदायी बनाते है और मानव को स्नान से पुण्य प्राप्त होता है। महाकाल के आशीर्वाद से यह इस महायोग के मिलन के साथ ही सिंहस्थ की शुरुआत होती है। महाकालेश्वर मंदिर और पुण्य सलिला मां क्षिप्रा सिंहस्थ महापर्व पर भक्तों को आमंत्रित करते असंख्य भक्त साधु संत देश के कोने कोने से अदृश्य सांस्कृति और आध्यात्मिक सूत्र से बंधे भक्ति की आस में इस पावन पर्व में खिंचे चले आते है। अनादि परंपरा का गौरव यह महाकाल बाबा का मंदिर कालज्ञान की अनुभूति, विशेषता और वैज्ञानिक गणना का केन्द्र भी है। भारतीय कालगणना का केन्द्र बिन्दु महाकाल महाराज की नगरी उज्जयिनी भारत का नाभि देश है। यह वह एकमात्र स्थान है जहां आकाश में सूर्य मस्तक में आता है। महाकाल बाबा के संरक्षण में चल रहे कालगणना का केन्द्र प्रलय और सृष्टि की महत्वपूर्ण एवं रहस्यमय गुत्थी को सुलझाने में सहायक है। शुभ, कुषाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार आदि के शासनकाल में अवंतिका इस महान नगरी की अधिष्ठात्री रही है और महाकाल आदि देव मराठों, मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल में भी इस नगर में काफी उतार चढ़ाव आए लेकिन महाकाल और उज्जयिनी की महिमा सदैव कायम रही। मराठा शासनकाल में हुए निर्माण कार्यों ने मंदिर की ख्याति को और पल्लवित किया। सम्राट प्रयोत के पश्चात विक्रमादित्य और राजा भोज द्वारा इस महिमा को बढ़ाने के लिए किए गए उल्लेखों का वर्णन भी इतिहास में मिलता है। राजभोज के बेटे उत्यादित्य और उनके बेटे नश्वर्या ने मंदिर को सुधारने और संवारने का अद्भूत कार्य किया।
सिंहस्थ में सिहस्थ और कुंभ का समन्वय होता है। सिंहस्थ और कुंभ के आयोजनों से जुड़ी एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार समुद्र मंथन के दौरान अमृत भी प्राप्त हुआ था। इंद्रपुत्र जयंत अमृत युक्त घड़े को देवलोक ले गया। अमृत युक्त इस घड़े की प्राप्ति के लिए देव-दानव में जबरदस्त युद्ध हुआ था। सूर्य से चन्द्र, बृहस्पति और इस तरह एक दूसरे के हाथों में जाता रहा। इस छीना झपटी में प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन इन चार स्थानों में अमृत गिरा। इस प्रकार घड़े को रखने वाले गृहों की गति विशेष पर उक्त चार स्थानों पर यह पर्व मनाया जाता है।
ऐतिहासिक उल्लेखों में ज्ञात होता है कि 1909 में ग्वालियर के महाराजा माधवराव सिंधिया ने मेले के आयोजन में अपनी सहमति नहीं दी और यह मेला उज्जैन के स्थान पर महिदपुर में हुआ था और इस आयोजन का भार दत्त अखाड़ा के महंत ने उठाया था। 1921 में जब सिंहस्थ के आयोजन का अवसर आया तो संपूर्ण राष्ट्र स्वतंत्रता आंदोलन की आग में जुझ रहा था, साथ ही प्लेग के प्रकोप की भेंट यह सिंहस्थ चढ़ गया था। 1933 में भी प्लेग प्रकोप की आशंका से ‘सिंहस्थÓ अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सका। 1956 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए आयोजन में खासी धन राशि सरकार ने स्वीकृत की थी। 1968 के बाद से लगातार इस आयोजन को भव्य बनाने की श्रंखला प्रारंभ हो गई। 1980 में सरकार ने इस आयोजन के लिए 11 करोड़ और 50 करोड़ की राशि 1992 में स्वीकृत की गई थी। सत्र 2004 में भाजपा के शासनकाल में हुए इस आयोजन में बजट 200 करोड़ तक पहुंच गया था। इस बार मध्यप्रदेश सरकार ने सिंहस्थ के लिए 1000 करोड़ की राशि स्वीकृत की है।
सरकार इस ‘सिंहस्थÓ को यादगार बनाना चाहती है। संत समाज के सभी शंकराचार्य, महामंडलेश्वरों और साधु समाज के मुखियाओं ने भी सिंहस्थ में शामिल होने की अपनी सहमति दे दी है। यह पहला सिंहस्थ होगा जब क्षिप्रा के जलस्तर को बढ़ाने के लिए नर्मदा का जल यहां लाया गया है। प्रदेश सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नदी जोड़ों योजना को मूर्त रूप देकर नर्मदा-क्षिप्रा नदी को जोड़ा है। इस बात को लेकर संत समाज का एक धड़ा सरकार से नाराज है। उनका तर्क है कि नागा समुदाय के लोग नर्मदा को मां मानते है और इसमें स्नान नहीं कर सकते। शासन-प्रशासन के मान मनोव्वल के बाद संत समाज इस आयोजन में अपनी सहभागिता को तैयार हुआ है। भैतिकता के इस दौर में भी सिंहस्थ को लेकर आम आदमी में भी अपार उत्साह है। सरकार संस्कार, संस्कृति और अध्यात्म की इस परंपरा को ऐतिहासिक बनाने में जी जान से लगी है। निश्चिय ही यह सिंहस्थ अपनी परंपरा के अनुरूप ऐतिहासिक होगा।