दीवाली हमारी, लक्ष्मी उनकी

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आर.के.सिन्हा। एक बार साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस.नायपाल बता रहे थे कि वे पहली बार भारत 1961 में दीपावली की रात को बम्बई पहुंचे। एयरपोर्ट से होटल के रास्ते में उन्हें ये देखकर निराशा हुई कि यहां पर ज्यादातर घरों के बाहर मोमबत्तियों से आलोक सज्जा हो रही थी। उनके देश त्रिनिदाद एवं टुबैगो में दीपावली पर अब भी मिट्टी के दीये जलाने का रिवाज है। दरअसल भारत से दशकों पहले सात समंदर पार चले गए भारतीय आज भी अपने तीज-त्योहारों को बहुत ही श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाते हैं।
नायपाल ठीक ही कह रहे थे। दरअसल मोमबत्ती जलाकर आलोक-सज्जा करना भारतीय संस्कृति का अंग कभी नहीं रहा। ये विशुद्ध पाश्चात्य संस्कृति का हिस्सा है। मालूम नहीं कि हमारे इधर क्यों दीपावली पर मोमबत्ती को जलाने का प्रचलन शुरू हुआ। मोमबत्ती को जलाने से तो प्रदूषण बढ़ता है। इसके विपरीत सरसों के तेल या तिल के तेल या अरंड के तेल के दीये दीपावली पर जलाने से अनेक लाभ हैं। पहला तो ये कि अगर आप दीये जलाएंगे तो ये वातावरण को शुद्ध करेंगे। दूसरे कुम्हार भाइयों को रोजग़ार प्रदान करेंगे।
और अब इसकी कीमत का भी आकलन कर लेते हैं। एक लिटर सरसों का तेल लगभग 80 रुपया, 200 मिट्टी के दीये लगभग 50 रुपये और रूई की बत्ती लगभग 10 रुपये। मतलब 200 दीपक जलाने का खर्च सिर्फ 140 रुपये। बात यहां पर ही खत्म नहीं होती। सरसों के तेल के दीपक जलाने से पटाखों द्वारा होने वाले प्रदूषण की मात्रा कम होती है। ये प्रदूषण पर नियंत्रण लगाने का काम भी करते हैं और दीपमाला लगाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को भी लाभ होता है। जैसे कि मिट्टी के बने दीये आप खरीदेंगे तो लाभ देश के गरीब परम्परागत कुम्हारों को होगा। उनकी दीवाली भी बेहतर हो सकेगी। क्या कभी हम सोचते हैं गरीबी का दंश झेल रहे कुम्हारों के बारे में? आखिरकार हमारी भी उनको लेकर कुछ जिम्मेदारी है !
भारत में हर साल दीवाली पर करीब हजारों करोड़ रुपये की चीनी लाइट्स, पटाखे, देवी-देवताओं की मूर्तियां वगैरह आती हैं। हमारे इधर मान्यता है कि लक्ष्मी की बड़ी-बड़ी आंखें हैं। उन्हें ‘विशालाक्षीÓ की उपमा दी गई है पर चीन से आने वाली मूर्तियों में लक्ष्मी जी की आंखें बहुत छोटी दिखाई जाती हैं। बिल्कुल चीनियों जैसी। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर हम चीन में बनी लाइटें खरीदना बंद कर दें तो स्वदेशी माल की खपत बढ़ेगी।
पिछले साल इसी अहम मसले पर भारतीय वाणिज्य एंव उद्योग मंडल (एसोचैम) का एक बेहद अहम निष्कर्ष जारी हुआ था। एसोचैम ने दावा किया था कि दीवाली पर जश्न चीन भी अपने तरीके से मनाता है क्योंकि उसका भारी तादाद में माल भारत में पहुंच जाता है। यानी उस पर तो हो जाती है असल में लक्ष्मी की कृपा। एसोचैम की स्टडी के अनुसार दीवाली पर मेड इन चाइना सामान की मांग 40 फीसदी प्रति साल की दर से बढ़ रही है। हालांकि चीनी माल भारतीय उत्पादों की तुलना में काफी कमजोर होता है पर ग्राहक सस्ता माल ही लेना पसंद करते हैं। इसके चलते भारत के सैकड़ों घरेलू उद्योगो बंद हो गए हैं या बंद होने के कगार पर हैं। कभी मदुरई (तमिलनाडु) के पास शिवाकाशी जाकर देखिये। एक समय फलफूल रहे पटाखों के उद्योगों की हालत कितनी खस्ता है। अब तो चीनी पटाखे भी दीवाली पर बजने लगे हैं। इनमें सल्फर का प्रयोग ज्यादा किया गया जाता है। भारतीय पटाखे नाइट्रेट से तैयार होते हैं। नाइट्रेट की तुलना में सल्फर ज्यादा नुकसानदेह होता है।
तमिलनाडु के पटाखा निर्माता इस बार चीन से गैरकानूनी तरीके से आयातित पटाखों का मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। तमिलनाडु फायर क्रेकर्स मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन ने चीन से गैरकानूनी तरीके से आयातित पटाखों का मुद्दा केन्द्र व राज्य सरकार के साथ उठाया है। 90 प्रतिशत पटाखे तमिलनाडु के शिवाकाशी में बनते हैं। पटाखा उद्योग करीब 6,000 करोड़ रुपये का है। करीब पांच लाख परिवार पटाखा उद्योग पर निर्भर हैं। चीनी पटाखों की भारतीय बाजारों में घुसपैठ से लाखों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने लगा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को दुनिया का बड़ा मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने का सपना देख रहे हैं। वे पूरी दुनिया की मल्टीनेशनल कंपनियों को निमंत्रण दे रहे हैं मेक इन इंडिया, लेकिन वक्त की मांग है कि हम अपने छोटे और मझोले उद्योगों के हितों का भी ख्याल रखें।
चीन जिस तरह से हमारे बाजारों में अपना सस्ता और घटिया सामान भरने लगा है, उस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है। ये काम सिर्फ सरकार ही नहीं, हम सबको करना होगा, इस दीवाली पर। अगर हम दीवाली पर अपने घरों-दफ्तरों के बाहर तेल के दीये जलाएंगे तो फिर नायपाल या किसी अन्य को ये कहने का मौका नहीं मिलेगा कि हम अपनी परम्पराओं से दूर हो रहे हैं।