दोहरी भूमिका के औचित्य पर सवाल

s.nihal singhएस. निहाल सिंह। अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने तूफानी चुनावी प्रचार दौरों की बाबत यह सोचना चाहिए कि खुद को एक मुख्यमंत्री पद के दावेदार के सामने खड़ा करके उन्होंने क्या ठीक किया? हालांकि यही फार्मूला पिछले साल कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सफल रहा था। इस बार बिहार के विधानसभा चुनाव में जिस निचले स्तर की भाषणबाजी वहां हुई और कैसे अपने राष्ट्रीय स्तर के उत्तरदायित्वों को दरकिनार करके प्रधानमंत्री एक स्थानीय राजनीतिक योद्धा का रूप धर कर वहां उतरे, वह आश्चर्यजनक था।
नरेंद्र मोदी से पहले रहे प्रधानमंत्रियों ने यह स्वस्थ परंपरा अपना रखी थी कि लोकसभा चुनावों को छोड़कर वे राज्यों के विधानसभा चुनावों में केवल प्रतीकात्मक प्रचार करते दिखाई देते थे और ज्यादातर इनमें सक्रिय रूप से भाग लेने से बचते थे। ऐसा करके न सिर्फ वे किसी तरह की पक्षपातपूर्ण राजनीति करने के दोष से बच जाते थे बल्कि अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को भी निर्बाध निभा सकते थे।
लेकिन नरेंद्र मोदी ऐतिहासिक पद्धति और परिपाटियों की परवाह नहीं करते, भले ही यह उस वक्त एक अच्छा संकेत था जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभालते ही केंद्रीय सचिवालय के नुक्कड़ों में लगे मकड़ी के जालों और पीली पड़ती फाइलों, जो दशकों से वहां धूल फांक रही थीं, को हटाने के निर्देश दिए। लेकिन कुछ पिछली परिपाटियों में दम होता है। प्रधानमंत्री एक जीती हुई पार्टी के नेता होने के अलावा एक राष्ट्र का प्रतिनिधि और इसकी अंतरात्मा का प्रहरी होता है। राज्यसभा में अपनी पार्टी का बहुमत बनानेे के मकसद से विधानसभाओं में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना प्रधानमंत्री के लिए कितना आवश्यक है, यह समझा जा सकता है। यदि पिछले दिनों के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं तो नरेंद्र मोदी के लिए अपनी इन दो भूमिकाओं में भेद न कर पाने की वजह से उनकी छवि को नुकसान हुआ है।
दादरी कांड पर मोदी की ओर से 10 दिनों तक कोई बयान नहीं आया और यदि आया भी तो सतही और सामान्य प्रतिक्रिया वाला था। तथापि, वे और उनकी पार्टी इस प्रकरण का सारा दोष उत्तर प्रदेश सरकार के मत्थे मढऩा चाहती है।
दरअसल, कत्ल को कानून और संहिता की तकनीकी जटिलताओं की आड़ में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता बल्कि यह वह प्रसंग है, जिसमें सकते में आए देशवासियों को बताने का अवसर था कि प्रधानमंत्री उनके दुख और संवेदनाओं में सहभागी हैं। एक देश के लिए यह हैरानीजनक है कि एक ऐसा नेता जो प्रगति करने वाले ध्येय को इतनी अहमियत देता हो और जिसका बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री गौरवान्िवत रिकॉर्ड रहा है, वह बिहार और अन्य जगहों पर गाय के नाम पर फायदा उठाने को तत्पर है। सच तो यह है कि देश की वर्तमान स्थिति में गाय के मुद्दे ने विकास के एजेंडे को ढांप लिया है।
नरेंद्र मोदी ने पिछला आम चुनाव देशभर में बेशुमार उत्साही समर्थकों, खासकर युवाओं और उनके जोश एवं उच्च-तकनीक वाले प्रचार के बूते पर जीता था। तब मोदी ने विगत तीन सालों से पस्त और घपला-ग्रस्त यूपीए सरकार से आजिज आए देश में एक नई उम्मीद जगाई थी। लिहाजा अपने दम पर भाजपा लोकसभा में भारी बहुमत प्राप्त कर सकी थी। पिछले तीन दशकों से कोई भी पार्टी ऐसा कारनामा नहीं कर पाई थी। यह भाजपा के लिए जीत की कड़ी का आरंभिक संकेत था। इसके बाद वाले कई विधानसभा चुनावों में पार्टी ने तथाकथित मोदी-लहर पर सवार होकर सिलसिलेवार विजय प्राप्त की।
जैसा कि सभी राजनीतिक पंडित जानते हैं कि कोई भी लहर स्थाई नहीं होती और बिहार के चुनाव प्रचार से यह साफ भी हो गया है कि कैसे मोदी के भाषणों में दोहराव तो रहा ही बल्कि वहां पर अपने विरोधियों पर सीधे प्रहार के लिए मोदी ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, वह उनके रुतबे के अनुरूप नहीं थी। यह भी सही है कि आम चुनाव में जिस तरह की उच्च तकनीक टीम का सहारा मोदी ने लिया था, उसके कुछ बंदों को तोड़कर अपने लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने काम करवाया।
जिस समस्या पर प्रधानमंत्री को विचार करना चाहिए, वह यह है कि कैसे वह खुद और उनकी पार्टी के महिला एवं पुरुष सदस्य विरोधी दलों और खासकर कांग्रेस को बेइज्जत करने का जो तीखा और द्वेषपूर्ण राजनीतिक अभियान चलाए हुए हैं, उसे रोकना होगा, जबकि ठीक उसी समय वे यह उम्मीद रखते हैं कि जरूरी विधेयक जैसे कि जीएसटी पर यही दल संसद के दोनों सदनों में सरकार के साथ सहयोग करें! वास्तव में भाजपा का घोषित निशाना कांग्रेस-मुक्त भारत बनाना है। फिलहाल लोकसभा में यह पुरानी पार्टी कांग्रेस अपनी दयनीय संख्या के चलते भले ही कमजोर स्थिति में है, उसे इतनी आसानी से परिदृश्य से गायब नहीं किया जा सकता।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी के पास भी उठाने के लिए अपने बोझ हैं या फिर उन पर एक मिशन पूरा करने का दबाव है और वह यह है कि अपने आरंभिक काल से ही आरएसएस का यह सिद्धांत रहा है कि देश में लगभग 17.2 करोड़ मुसलमानों और अन्य महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों की मौजूदगी के बावजूद भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना है। प्रधानमंत्री के लिए विडंबना यह है कि उन्हें देश को एक रखने और अपने मार्गदर्शक आरएसएस के ध्येय के बीच संतुलन बनाना पड़ रहा है। इसके अलावा उनका निजी विरोधाभास यह भी है कि कैसे वे संघ में अपनी शिक्षा-दीक्षा के दौरान अंदर गहरे तक पैठ बना गये मिथकों को अब देश के बृहतर हित की खातिर छोड़ दें?
बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम भाजपा की आगे की यात्रा के लिए एक और क्षितिज पर स्थित निशाना होगा। जिस तरीके से आरएसएस के छोटे घटक भारत को भगवा कूची से रंगने पर तुले हुए हैं, उसे देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज के बहुत से वर्गों में आपसी टकराव होंगे।
आखिर किस तरह के बदलाव मोदी लाना चाहेंगे। आरएसएस के कर्ताधर्ताओं के जहन में ले-देकर समय के साथ कदमताल करने के नाम पर जो एक फौरी उपाय आ सका है, वह यह है कि रोज सुबह पर होने वाली ड्रिल में ढीली-ढाली और घुटनों तक लंबी खाकी निक्कर की जगह पैंट पहनानी शुरू की जाए! लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि जिस किस्म के बदलाव की दरकार वर्तमान समय रखता है वह संघ के सिद्धांतों से कहीं अलग विचारों वाला है। अब जबकि कई इतिहास और अनुसंधान संस्थानों के प्रमुख के पदों पर आरएसएस समर्थकों को बिठा दिया गया है, ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि हमें भारत का एक नया इतिहास देखने को मिलेगा।
प्रधानमंत्री के समक्ष जो चुनौतियां हैं, उन पर यदि फिर से गौर किया जाए तो इससे पहले कि वे अपने अगले विदेश दौरे पर निकलें, उन्हें बिहार चुनाव परिणामों पर आत्ममंथन करना होगा।