बदली महिलाओं ने जो तस्वीर

chama sharma

क्षमा शर्मा। जिस दिन बिहार चुनाव के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आने वाले थे, उस दोपहर शेयर बाजार लुढ़क गया था। इस बारे में खबर तो दी गई मगर चुनावी विश्लेषणों की बहसों में इस बात का जिक्र नहीं था। जबकि कहा जाता है कि इस तरह से शेयर बाजार का लुढ़कना सत्ताधारी दल की पराजय का संकेत होता है।
खैर, इस चुनाव के बारे में एक स्त्री की नजर से अगर सोचूं तो कई महत्वपूर्ण बातें नजर आती हैं। मैं दिल्ली में रहती हूं। मैं और मेरे पति इतना तो कमा ही लेते हैं कि घर चल सके और कुछ बच भी सके। लेकिन जब भी मैं खरीददारी करने जाती हूं तो देखती हूं कि कल सामान को जिस भाव पर खरीदा था, आज वह उससे कुछ महंगा बिक रहा है। महंगाई बढऩे के तर्क भी कभी कम बारिश, सूखा आदि के मत्थे मढ़ दिए जाते हैं। पहले किसी त्योहार के आने पर महंगाई बढ़ती थी, मगर जैसे ही त्योहार खत्म होता था, दाम अपनी जगह पर आ जाते थे, मगर अब ऐसा नहीं है। त्योहार के आते ही जो कीमतें बढ़ती हैं, वे फिर पुराने दामों पर नहीं लौटतीं। प्याज को ही देख लीजिए। एक बार कीमत बढ़ी तो फिर कभी उस तरफ नहीं लौटी। यही नहीं, पहले मौसम की सब्जियां, फल सस्ते बिका करते थे, मगर अब ऐसा नहीं है।
गरीब का खाना दाल-रोटी कहा जाता था, मगर अब दाल खाना भी मुश्किल है। आखिर जब जमीनी स्तर पर सबको यह बात मालूम है, तो सरकारों को यह बात क्यों पता नहीं चलती। सरकार अपने महंगाई के आकलनों में हमेशा कहती रहती है कि महंगाई कम हुई है मगर आम आदमी से पूछिए तो वह महंगाई से त्राहि-त्राहि करता नजर आता है। ज्यादा बात होती है तो मंडी और थोक के भाव बताए जाने लगते हैं। मगर आज कितने लोग हैं जो रोजमर्रा की जरूरतों का सामान खरीदने के लिए मंडी और थोक बाजार तक दौड़ लगा सकते हैं। अगर महंगाई बिचौलिए बढ़ाते हैं और उसका ठीकरा सरकार के सिर फूटता है तो आखिर सरकार इन बिचौलियों से निपटने का क्या इंतजाम रखती है। जिस स्त्री को अन्नपूर्णा कहा जाता है, आखिर उससे बेहतर कौन जानता है कि थाली में क्या-क्या भोजन होना चाहिए जिससे कि सभी परिवार के लोगों का स्वास्थ्य ठीक रह सके। लेकिन महंगाई ने जेबों में इतने छेद किए कि थाली में सूखी रोटी परोसना तक मुश्किल लगने लगा है।
पहले भी सरकारें, प्याज और चीनी के मसले पर चुनाव हार चुकी हैं। लेकिन अफसोस यह है कि सरकारें जमीनी हकीकत के मुकाबले उन आंकड़ों पर ज्यादा यकीन करती हैं, जिनका लोगों के जीवन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे में चुनाव से पहले महंगी प्याज और ऐन चुनाव के वक्त अरहर की दाल का गायब हो जाना लोगों को नाराज कर सकता है, इसे क्यों नहीं सोचा गया।
जब से मंडियों के दाम छपने लगे हैं, बताए जाने लगे हैं, तब से उपयोग की हर वस्तु के दाम पूरे देश में एक जैसे हो गए हैं। पहले महानगरों के मुकाबले कस्बे और गांव सस्ते होते थे। दाम आदमी की कमाई और जेब देखकर तय होते थे मगर अब ऐसा नहीं है। कोई कुछ सस्ता बेच भी रहा हो तो दाम देखकर तुरत महंगा कर देता है। बिहार इस महंगाई और चीजों की कमी का लाभ उठाकर तुरत-फुरत कमाई करने वालों से अछूता तो नहीं ही रहा होगा। कम्पनियां घाटे की बात चलाकर तनख्वाह बढ़ाना तो दूर, कम कर देती हैं। दूसरी तरफ महंगाई सुरसा की तरह बढ़ती जाती है। आदमी कम कमाई और बढ़ती महंगाई के बीच में पिस रहा है।
एक और महत्वपूर्ण बात। अखबारों में फोटो भी छपे और बताया गया कि महागठबंधन को औरतों ने बहुत ज्यादा वोट दिए। एक परिचित ने बिहार से फोन करके बताया कि औरतों के सबसे ज्यादा वोट नीतीश को मिले हैं। और उसका सबसे बड़ा कारण नीतीश की लड़कियों को दी गई वे साइकिलें हैं, जिनसे न केवल लड़कियां स्कूल गईं बल्कि अपने घर की स्त्रियों को साइकिलों पर बिठाकर वोट डालने के लिए भी ले गयीं। कुछ साल पहले तक बिहार में साइकिल चलाती लड़की को आसपास वाले बिगड़ी हुई लड़की मानते थे, मगर अब उनके घरों की लड़कियां ही साइकिल चला रही हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि इन्हीं लड़कियों ने अपने-अपने घरों में नीतीश के लिए प्रचार किया।
आज की दुनिया में स्पीड का महत्व है। एक साइकिल ने न केवल लड़कियों को गति दी, ऊर्जा दी बल्कि पूरे परिवार की मदद की। हालांकि बीजेपी ने लड़कियों को मोपेड देने का वायदा किया था मगर जीवन में हमेशा पहले कदम का महत्व होता है, जिसे नीतीश ने उठाया था। बदलाव की यह हल्की-फुल्की बयार इतनी तेज आंधी बन जाएगी कि नीतीश की झोली को वोटों से भर देगी, किसे पता था। इन्हीं सज्जन ने यह भी बताया कि औरतों के अधिकांश वोट नीतीश और उनके दल को वोट मिले। इससे यही पता चला कि लड़कियों के जीवन में एक मामूली कदम भी कितना बड़ा साबित होता है।