बिहार में चुनाव दर चुनाव बढ़ता गया भाजपा का ग्राफ

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मनोज पाठक,
पटना। बिहार में पहले जनसंघ, फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सियासी सफर काफी सुखद रहा है। भाजपा बिहार की सत्ता में भागीदार भी बनी, लेकिन भाजपा का कोई नेता मुख्यमंत्री पद नहीं पा सका। मौजूदा विधानसभा चुनाव में ओपीनियन पोल को झुठलाते हुए अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की जीत होती है तो तय है कि भाजपा का ही कोई नेता मुख्यमंत्री पद पर काबिज होगा। सीट बंटवारे से नाखुश राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को मनाने में जुटे राजग ने हालांकि अभी तक मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है। वर्ष 1962 के विधानसभा चुनाव में जनसंघ के मात्र तीन विधायक जीते थे। वर्तमान में भाजपा के 91 विधायक हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 16. 46 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे, जो अब तक की चुनावी राजनीति में इस पार्टी का सबसे अधिक मत प्रतिशत था। गौरतलब है कि भाजपा का सियासी ग्राफ हर चुनाव में बढ़ा है। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता और भाजपा के वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव कहते है कि भाजपा प्रारंभ से ही विकास की राजनीति पर विश्वास करती है। बिहार की राजनीति जातीय धुरी के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यही कारण है कि भाजपा को मतदाताओं ने पसंद किया। वर्ष 1962 में एक दशक के संघर्ष के बाद बिहार विधानसभा में पहली बार जनसंघ के तीन उम्मीदवारों ने जीत दर्ज कराई थी। इस दौर में कांग्रेस की लोकप्रियता चरम पर थी और वही पार्टियां कांग्रेस के मुकाबले खड़ी हो पाई थीं, जिन्होंने सामाजिक गैरबराबरी का मुद्दा उठाया था। जनसंघ और भाजपा के रूप में इस पार्टी ने 20 वर्षो तक अविभाजित बिहार में सफर तय किया और इस दौरान उसने आदिवासियों के वोट बैंक में सेंध लगा ली, जिन्हें कांग्रेस का मजबूत वोटबैंक माना जाता था।
झारखंड के पूर्व मंत्री बैद्यनाथ राम कहते हैं कि भाजपा की पकड़ झारखंड (छोटानागपुर, संथाल परगना) के क्षेत्र में प्रारंभ से ही रही है। इन इलाकों में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती गई और भाजपा ने सामाजिक परिवर्तन और विकास का सहारा लिया। जनसंघ ने वर्ष 1967 में 272 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 26 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इसमें अधिकांश सीटें आदिवासी क्षेत्रों की ही रही थी। 1969 में जनसंघ ने 34 सीटें जीती, परंतु वर्ष 1972 में हुए विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर ही इस पार्टी के उम्मीदवार विजयी हो सके। गैर-कांग्रेसी दलों के बड़े राजनीतिक प्रयोग के तौर पर बनी जनता पार्टी की सरकार के 1979 में बिखर जाने के बाद 1980 में भाजपा अस्तित्व में आई। भाजपा ने 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में 21 सीटों पर जीत दर्ज कराई, लेकिन इसके अगले ही चुनाव में भाजपा 16 सीटों पर सिमट गई। 1990 के चुनाव में भाजपा ने 39 सीटें जीती और 1995 में हुए चुनाव में 41 सीटों पर भाजपा विधायक निर्वाचित हुए। अकेले दम पर सरकार नहीं बनाने की स्थिति तक पहुंचने पर भाजपा ने गठबंधन की राजनीति प्रारंभ की। बिहार में समता पार्टी के साथ मिलकर भाजपा ने 2000 के चुनाव में 168 सीटों पर चुनाव लड़कर 67 सीटें अपने खाते में कर ली। इस दौरान बिहार विभाजन ने भाजपा के 32 विधायकों को झारखंड भेज दिया, लिहाजा झारखंड में भाजपा को लाभ हुआ, मगर बिहार में नुकसान हुआ और भाजपा के पास बिहार में 35 विधायक ही रह गए। झारखंड के अलग होने के बाद फरवरी 2005 के चुनाव में भाजपा ने जनता दल (युनाइटेड) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 37 सीटों पर तथा अक्टूबर में हुए चुनाव में 55 सीटों पर जीत दर्ज की। इस जीत ने भाजपा को सत्ता में भी भागीदार बनाया। सीटें बढऩे का सिलसिला 2010 में भी जारी रहा और भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटें अपने खाते में कर ली। पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि छद्म धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी विचारधाराओं के अंतर्विरोध और मुख्यमंत्री नीतीश के पहले साथ और अब दुराव से भाजपा को ताकत मिली है। मौजूदा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के साथ गठबंधन किया है। राजनीति के जानकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि भाजपा गठबंधन और सत्ताधारी गठबंधन में कांटे की टक्कर की उम्मीद है, लेकिन पिछले चुनाव से अधिक सीटें भाजपा के खाते में जरूर आएंगी। उनका कहना है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है। आम लोगों में मोदी की प्रतिष्ठा सत्ता संभालने के बाद बढ़ी नहीं है तो घटी भी नहीं है। इस चुनाव में भाजपा ने 160 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा की है।
(आईएएनएस से साभार)