बुनियादी सवाल तो बुनियादी ही बना रह गया

अभिनव कुमार श्रीवास्तव। 2-3 जुलाई के बीच उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में जो कुछ भी हुआ वह बेहद शर्मनाक था। एक हिस्ट्रीशीटर को पकडऩे गयी पुलिस के ऊपर इतनी बर्बरता से हमला हुआ कि देखते ही देखते 8 पुलिसकर्मी मौके पर ही शहीद हो गए जबकि कई पुलिसकर्मी जख्मी हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। घटना कानपुर के चौबेपुर थाना क्षेत्र के बिकरु गाँव की है। हालांकि इस मामले का मुख्य आरोपी मुठभेड़ में मारा गया और यह पूरा मामला तो जांच का विषय है ही मगर हमें लगता हैं कि सवाल ये नही हैं। सवाल कुछ दूसरा ही है। हाँ, आप यह ज़रूर कह सकते हैं कि चूंकि आज तक उस दूसरे सवाल का कोई ठोस जवाब नही मिला, इसीलिए विकास दुबे जैसे बड़े बड़े दबंगों की दबंगाई इस हद्द तक बढ़ चली है कि अब वो पुलिस से भी नही डरती बल्कि उसके आगे सीनातान के खड़ी हो जाती है और किसी प्रदेश के पूरे पुलिस महकमे को खुली चुनौती दे डालती है कि आओ, हम तुम्हारे सामने खड़े हैं बताओ क्या कर लोगे? यह सवाल वैसे है तो बुनियादी मगर अफसोस इस बुनियादी सवाल का कोई ठोस जवाब आज तक नही मिला। आज इस सवाल के विषय में तो बात करेंगे ही मगर इसका एक जवाब ढूंढने के भी प्रयास करेंगे।
ये सवाल क्या है इसको जानने से पहले यह जान लीजिए कि यह विकास दुबे किस चिडिय़ा का नाम है। कानपुर घटनाक्रम में जिसका हाथ था वो विकास दुबे ही था। एक ऐसा शातिर अपराधी जो हत्या के कई मामलों में दोषी हैं। जो इतना निडर है कि साल 2001 में उत्तर प्रदेश सरकार में दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री रहे सन्तोष शुक्ला की थाने के अंदर हत्या कर दी थी। अदालत में केस चला मगर ख़ौफ़ इतना कि किसी ने भी इस अपराधी के खिलाफ गवाही नही दी और यह बरी हो गया। कोर्ट की भाषा में कहें तो बाइज़्ज़त। वर्ष 2004 में एक केबिल व्यवसायी दिनेश दुबे की हत्या का भी आरोप विकास पर ही है। कानपुर के एक रिटायर्ड प्रिंसिपल सिद्धेश्वर पांडेय की हत्या में विकास को उम्रकैद की सज़ा हुई थी मगर बाद में जमानत मिल गईं। एक रिपोर्ट के अनुसार विकास कुल 60 मामलों में आरोपी है जिसके ऊपर 50 से अधिक केस हत्या के प्रयास के चल रहें हैं।
अब उस सवाल पर आते हैं जिसका कोई जवाब न होने से विकास जैसे लोगों के हौंसले इतने बुलन्द हो जाते हैं। वो सवाल ये है कि आखिर इन लोगों को ऐसा करने की हिम्मत आती कहाँ से हैं? आज यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है और यह सवाल पूछा भी जाना चाहिए क्योंकि जब हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का जि़क्र कर रहें हैं तो उसी लोकतंत्र का एक सच यह भी है कि यहां हर एक बड़े अपराधी को राजनैतिक सत्ता का संरक्षण हासिल हैं और इसी संरक्षण के बल पर वो अपराधी एक दिन इतना अधिक ताकतवर हो जाता है कि वो खुद ही इस देश में चुनाव लडक़र देश के लोकतंत्र के मंदिर के भीतर प्रवेश कर जाता है। वही मन्दिर जहां पहुंचने वाले हर नेता से इस देश का नागरिक यह आशा करता है कि वो उसके लिए बेहतर देश का निर्माण करेगा। एक ऐसे देश का निर्माण करेगा जो अपराध मुक्त होगा। मगर जिनके ऊपर अपराध मुक्त देश के निर्माण का जि़म्मा हो, अगर वही अपराधी हो जाएं तो क्या कीजियेगा? विकास दुबे के साथ भी कुछ ऐसा ही है। विकास को कई राजनैतिक दलों का संरक्षण प्राप्त है। तभी तो जेल में रहते हुए शिवराजपुर से नगर पंचायत का चुनाव वह जीत गया। दहशत के चलते विकास ने पन्द्रह वर्ष तक पंचायत सदस्य की सीट पर अपना दबदबा कायम रखा। फिर उसके बाद अपनी पत्नी को जिला पंचायत सदस्य बनाया। बिकरु गांव में 15 वर्ष से निर्विरोध ग्राम प्रधान चुना जाता रहा है। इन सारे कारनामों में विकास को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता रहा और विकास के कारनामों का भी विकास होता चला गया। ये विकास का एक अकेला मामला नही है। बल्कि राजनैतिक गलियारे में तो आधे से ज़्यादा सांसद और विधायक ऐसे हैं जिन पर आई.पी.सी. की संगीन धाराएं चल रही हैं लेकिन फिर भी वह मंत्री बने हुए हैं। कहीं जनता, तो कहीं पैसों का बल और डर तो कहीं हमारी कानून व्यवस्था ऐसे लोगों को चुनाव में जीत दिला देती है। 2019 के अनुसार 43त्न सांसदों पर क्रिमिनल चार्जेज के तहत मामला दर्ज है। 2014 के आम चुनावों से 2019 में ऐसे सांसदों की संख्या में 26त्न की बढोत्तरी हुई है। 2009 में ऐसे सांसदों का यही प्रतिशत 30त्न था। 2009 से 2019 के बीच ऐसे सांसदों का प्रतिशत 109त्न बढ़ गया। 2018 की ए.डी.आर. की ही रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा के भीतर 33त्न और राज्यसभा के भीतर 22त्न सांसद ऐसे हैं जिनके ऊपर क्रिमिनल चार्जेज चल रहे है। जबकि लोकसभा के भीतर 21त्न और राज्यसभा के भीतर 9त्न सांसद ऐसे हैं जिनके ऊपर सीरियस क्रिमिनल चार्जेज चल रहे हैं।
जऱा बात राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी कर लेते हैं। जिन राज्यों में 2014-2018 के बीच विधानसभा के चुनाव हुए उनमें से जितने विधायकों का एक रिपोर्ट ने एनालिसिस किया उनमें से 4,083 विधायकों में से 1355 यानी 33त्न विधायक ऐसे हैं जिनके ऊपर क्रिमिनल चार्जेज चल रहे है जबकिं 891 यानी लगभग 22त्न विधायक ऐसे हैं जिनके ऊपर सीरियस क्रिमिनल केसेस चल रहे हैं। जब देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं का ये हाल है तो आप सोच सकतें हैं कि निचले स्तर यानी पंचायत के चुनावों में तो कितने प्रतिशत गुंडे ही चुनाव जीतते होंगे?
आप सोच सकते हैं कि कितनी बुरी स्थिति में इस देश का लोकतंत्र है? यानी जिसके ऊपर इस देश के विकास को करने का जि़म्मा हो अगर वही सत्ता और ताकत के बलबूते अपराध करते हुए इस देश की राजनीति में प्रवेश कर जाए तो उस देश का विकास कैसे सम्भव होगा? ऐसा नही है कि राजनीति से इन अपराधियों की संख्या को खत्म करने के प्रयास नही किये गए। निर्वाचन आयोग और सुप्रीम अदालत से समय समय पर कई बार इसको लेकर सुझाव और आदेश दिए गए हैं। लेकिन न तो इन आदेशों का पालन किया गया और न ही इन सुझावों पर ठीक से विचार। जिसका नतीजा ये है कि लगातार राजनैतिक सत्ता में अब नेता नही बल्कि गुंडों की जमात बढ़ती जा रही है। भारतीय राजनीति में अपराधियों की संख्या बढऩे का एक प्रमुख कारण अपराधी और नेता के बीच के बढ़ते सम्बन्ध हैं। एक अपराधी अपने अपराध पर पर्दा डालने के लिए नेताओं की चमचागिरी करता है और एक नेता चुनाव जीतने के लिए उस अपराधी का इस्तेमाल अपनी मसल पावर के रूप में करता है। साथ ही साथ जो हमारे यहां की आपराधिक न्याय प्रणाली है वो भी इसमें भागीदार है। क्योंकि हमारे यहाँ के सिस्टम में किसी व्यक्ति को तब तक अपराधी नही माना जाता जब तक कि उसके ऊपर लगाए गए आरोप सिद्ध न हो जाएं और कानूनन तब तक हम उस व्यक्ति को चुनाव लडऩे से नही रोक सकते। और हमारे यहां तो अदालतों द्वारा फैसला कितनी जल्दी आ जाता है यह तो किसी से भी छुपा हुआ नही है। तो ऐसे में किया क्या जाए। निश्चित रूप से समय समय पर निर्वाचन आयोग एवं सुप्रीम अदालत के द्वारा दिये गए दिशानिर्देशों पर तो ध्यान देना ही चाहिए। देश की संसद को भी इस मसले पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए लेकिन वो तब ही सम्भव है जब सत्ता में कोई ऐसी सरकार हो जो अपने आप में अपराधियों से मुक्त हो यानी कि उसमें जनता के द्वारा चुना गया प्रतिनिधि बैठे न कि गुंडे और मवाली। मगर हमें लगता है कि यह जिम्मेदारी केवल सिस्टम में बैठे हुए लोगों की ही नही है वरन जनता की भी है। क्योंकि ये जनता ही तो है जो सिस्टम बनाती है। केवल वोट देना ही जनता का काम नही है। बल्कि वो वोट कैसे नेता को दिया जा रहा है इस बात को भी देखना जनता का कर्तव्य है क्योंकि हम जैसे व्यक्ति को चुनेंगे वैसा ही उसका परिणाम होगा। अक्सर चुनाव के समय जनता प्रधानमंत्री या फिर मुख्यमंत्री के चेहरे को देखकर के वोट डालती है। वो अपने इलाके से खड़े हुए प्रतिनिधि को नही देखती। जबकि इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि एक जनता के रुप में आप कभी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को नही चुनते। आप हमेशा अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं और जिस पार्टी के सबसे ज़्यादा प्रतिनिधि लोकसभा या फिर विधानसभा में होते हैं वो पार्टी अपना एक लीडर चुनती है जो फिर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनता है। जनता को चाहिए कि वो अपने प्रतिनिधि को चुनने से पहले उसके बारे में जितना हो सके जान ले। उसकी हर छोटी बड़ी जानकारी निर्वाचन आयोग खुद अपनी वेबसाइट पर चुनाव के समय अपलोड करता है। एक जि़म्मेदार नागरिक होने के नाते भी यह हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसा करें क्योंकि जब आप ऐसा करेंगे तो आपको एक बेहतर प्रतिनिधि को चुनने में मदद मिलेगी और देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं में चोर और डकैत नही बल्कि अच्छे लोग बैठ पाएंगे। और अब तो एक और विकल्प हम सबके पास है कि मान लीजिए आपके इलाके से खड़े हुए जितने भी प्रतिनिधि हैं और उनमें से आपको कोई भी पसन्द नहीँ तो आप नोटा का भी बटन दबा सकते हैं। इससे राजनैतिक दलों पर भी दवाब पड़ेगा और वो भी सही व्यक्ति को टिकट देंगी। एक जनता के रूप में तो हम यह कर सकते हैं बाकी निर्वाचन आयोग और संसद को इस मसले पर जल्द ही इस बुनियादी प्रश्न का कोई न कोई ठोस हल ढूंढना ही होगा वरना यह प्रश्न एक प्रश्न ही बनकर के रह जायेगा।
लेखक-छात्र लखनऊ विश्वविद्यालय
सम्पर्क: 9616909140