मंच हुआ मौन नही रहे नीरज,

लखनऊ जुलाई। ‘‘शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब, उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब, होगा यूँ नशा जो तैयार, हाँ… होगा यूँ नशा जो तैयार, वो प्यार है’’ जैसे गीतों के रचनाकार गोपालदास ‘नीरज’ (जन्म 4 जनवरी 1925), शुक्रवार को हमारे बीच नही रहे। नीरज कुछ समय से अस्वस्थ्य थे और उनका दिल्ली के एम्स में इलाज चल रहा था। अब वे अपनी रचनाओं जिनमें आसावरी, बादलों से सलाम लेता हूँ, गीत जो गाए नहीं, नीरज की पाती, नीरज दोहावली, गीत-अगीत, कारवां गुजर गया, पुष्प पारिजात के, काव्यांजलि, नीरज संचयन, नीरज के संग-कविता के सात रंग, बादर बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नदी किनारे, लहर पुकारे, प्राण-गीत, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, वंशीवट सूना है और नीरज की गीतिकाएँ के रूप में मौजूद है। उनकी पहली पुस्तक संघर्ष (1944) में छपी थी। नीरज कमाल के रचनाकार थे, इसीलिए कविता की हर विधा और हर माध्यम में उनकी दमदार मौजूदगी थी। निजी जिंदगी में फक्कड़पन के साथ सादगी थी। वे किसी से भी बेहद सहजता से बात करते थे। नीरज का सृजन संसार हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक, एवं कवि सम्मेलनों के मंचों पर काव्य वाचक एवं फिल्मों के गीत लेखक के रूप में विस्तृत हैं। पहले रचनाकार हैं जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। पद्मश्री, पद्म भूषण से। फिल्मों में शानदार गीतों के लिये लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। नीरज का जन्म उप्र के इटावा जिले के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के घर हुआ था। नीरज जब 6 साल के बच्चे थे। पिता का साया उठ गया। इटावा की टाइपिस्ट और कानपुर के डीएवी कॉलेज में क्लर्क, मेरठ कॉलेज में हिन्दी प्रवक्ता भी रहें। उप्र सरकार ने नीरज को यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अध्यक्ष भी रहे। नीरज को 1970 में ‘‘काल का पहिया घूमे रे भइया,’’ फिल्म चन्दा और बिजली, 1971 में ‘‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ’’ पहचान और 1972 में ‘‘ए भाई! जरा देख के चलो’’फिल्म, मेरा नाम जोकर के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था।

‘‘काल बादलों से धुल जाए वह मेरा इतिहास नहीं है!
गायक जग में कौन गीत जो मुझ सा गाए,
मैंने तो केवल हैं ऐसे गीत बनाए,
कंठ नहीं, गाती हैं जिनको पलकें गीली,
स्वर-सम जिनका अश्रु-मोतिया, हास नहीं है!
काल बादलों से……!

मुझसे ज्यादा मस्त जगत् में मस्ती जिसकी,
और अधिक आजाद अछूती हस्ती किसकी,
मेरी बुलबुल चहका करती उस बगिया में,
जहाँ सदा पतझर, आता मधुमास नहीं है!
काल बादलों से……!’’

गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े – खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे।

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