राजनीतिक गणित ही नहीं कैमिस्ट्री भी समझें

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विश्वनाथ सचदेव।
किसी भी मुकाबले में एक पक्ष जीतता है, दूसरा हारता है। बिहार में भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन हार गया है और नीतीश-लालू के नेतृत्व वाले महागठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिला है। हार-जीत के कारणों की मीमांसा भी हो रही है और इस चुनाव-परिणाम के मतलब भी निकाले जा रहे हैं। यह काम हर पक्ष अपने फार्मूले से और अपने हिसाब से कर रहा है। मसलन, भाजपा का कहना है कि उसकी कैमिस्ट्री तो सही थी, पर उसका गणित गड़बड़ा गया। गणित के हिसाब से भाजपा को उम्मीद नहीं थी कि महागठबंधन के राजनीतिक दलों में एक-दूसरे के वोटों का स्थानांतरण इस तरह हो जाएगा जैसे हुआ है। मतलब यह कि भाजपा इसे अपनी नीति-रीति की हार मानने के बजाय एक ऐसे चुनावी-गणित की जीत मानती है, जिसमें जातियों के आधार पर वोट मांगे और दिये गये। पर क्या सचमुच बिहार के इस चुनाव-परिणाम का गणित इतना सीधा-सादा है?
यह सच है कि चुनाव में हार-जीत का कभी कोई एक कारण नहीं होता—एक से अधिक कारण मिलकर चुनाव-परिणाम को प्रभावित करते हैं। इस चुनाव में भी ऐसा ही हुआ है। जाति वाला कारण भी है, विकास की राजनीति भी है, अगड़े-पिछड़ों में बांटने की कोशिशें भी हैं, असहिष्णुता का मुद्दा भी है और महंगाई भी है। और भी बहुत से कारण हो सकते हैं। इनके विश्लेषण हो रहे हैं होते रहेंगे। हर चुनाव-परिणाम के बाद ऐसा होता है और अक्सर राजनीतिक दल ऐसे विश्लेषणों से कुछ न सीखकर अपने ढर्रे पर चलते रहते हैं। पर भाजपा अपने आप को बाकी राजनीतिक दलों से अलग बताती-दिखाती रही है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वह गंभीरता और ईमानदारी से अपनी हार के कारणों को समझने की कोशिश करेगी, और ज़रूरी समझेगी तो अपने तौर-तरीके भी बदलेगी।
भाजपा की यह हार महागठबंधन की जीत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात है। कारण है इसके एक लंबे अर्से के बाद पिछले आम-चुनाव में केंद्र में सत्ता-परिवर्तन हुआ था। और पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर मतदाता ने लोकसभा में भेजा था। तब भी कोई एक कारण नहीं था भाजपा की जीत का। बहुत सारे कारकों ने मिलकर रचा था एक शानदार जीत का यह इतिहास। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जिस तरह उन चुनावों की व्यूह-रचना की थी, उसका एक परिणाम यह भी निकला कि प्रधानमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी एक ऐसी हस्ती बनकर उभरे जिसके लिए यह मान लेना सहज था कि इस जीत का एकमात्र नहीं, तो सबसे बड़ा कारण, वे स्वयं हैं। फिर, जिस तरह उन्होंने अपने विश्वासपात्र व्यक्ति अमित शाह को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया और लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जैसे वरिष्ठों को किनारे किया, उससे यह स्पष्ट लग रहा था कि नरेंद्र मोदी पार्टी और सरकार दोनों पर एकाधिकार चाहते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत में नरेंद्र मोदी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी और इसका उचित यश उन्हें मिलना ही चाहिए था। मोदी वैसी ही भूमिका हर चुनाव में निभाना चाहते हैं। उन्होंने किया भी ऐसा। हरियाणा विधानसभा चुनाव जीतने का यश भी उनकी झोली में आया और लद्दाख में स्थानीय चुनावों में मिली सफलता भी उनके खाते में डाली गयी। इस दौरान दिल्ली की हार से उन्हें सबक ले लेना चाहिए था, पर नहीं लिया उन्होंने। दिल्ली की हार का ठीकरा दूसरों के सिरों पर फूटा। फिर आ गये बिहार के चुनाव। प्रधानमंत्री मोदी, और उनके सलाहकारों को यह एक अवसर लगा अपना वर्चस्व सिद्ध करने का। देश के प्रधानमंत्री भाजपा के प्रचारमंत्री बन गये। देश के इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने किसी एक राज्य के चुनाव में इस तरह का प्रचार किया। लगभग तीस आम-सभाएं बिहार में करने वाले प्रधानमंत्री ने चुनाव-प्रचार की कमान भी अपने हाथ में ही रखी थी। उन्होंने स्वयं को झोंक दिया चुनावों में। पर उनका अति आत्मविश्वास और उनका बड़बोलापन, दोनों, इस बार मतदाता को खलने लगे थे। वे यह भी भूल गये कि लोकसभा के चुनावों में जिन सपनों ने मतदाता को लुभाया था, अब देश उन सपनों के पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
यह सही है कि डेढ़ साल की अवधि बहुत छोटी होती है बहुत कुछ करके दिखाने के लिए, लेकिन सपने दिखाने वाले को सपने पूरे करने का विश्वास भी दिलाना पड़ता है। क्रिकेट में विकेट लेने के लिए गेंदबाज की लाइन और लेंग्थ की बात की जाती है। बहुत कुछ निर्भर करता है उस पर। सरकारों को भी अपनी लाइन और लेंग्थ और गति का प्रमाण लगातार देते रहना पड़ता है। इस दृष्टि से, लगता है, भाजपा (नरेंद्र मोदी) अपने आप को सिद्ध करने में अब तक कुल मिलाकर असफल ही रहे हैं। पता नहीं, वे इस असफलता और उसके निहितार्थ को समझ पा रहे हैं अथवा नहीं, लेकिन बिहार के इस चुनाव-परिणाम के बाद भाजपा को बहुत कुछ सीखना होगा।