लोहिया के बहाने लालू का समाजवाद

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पुष्पेंद्र कुमार। बिहार में चुनाव एक ऐसा जनादेश है जिसमें सियासत की अवधारणाओं का भविष्य दांव पर है। बीते साल हुए आम चुनाव के बाद भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव में दमदार विकल्प पेश किए जाने की सफलता को असरदार सियासत माना-समझा गया। बिहार में गैरभाजपा दलों की तैयारी और मंशा, हालांकि दिल्ली प्रयोग को दुहराने की दिखी, लेकिन समस्या यह है कि एनडीए और मोदी को रोकने के लिए राजनीतिक एकजुटता का आधार सेकुलरिज्म को बनाया गया। बिहार में सपा-एनसीपी गठबंधन, वामपंथी दलों का अलग एकजुट मोर्चा और ओवैसी का एमआईएम जब लालू-नीतीश के महागठबंधन से इतर चुनाव लड़ रहे हैं तो फिर सेकुलरिज्म एकजुटता का विचार कम, बल्कि प्रमाणपत्र की प्रतिस्पर्धी दावेदारी ही लगती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बिहार का चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक होगा लेकिन मुझे लगता है कि इसकी एकमात्र शर्त यह है कि वहां एनडीए गठबंधन पर लालू-नीतीश महागठबंधन की प्रभावशाली जीत हो। गैरभाजपा या एनडीए के विकल्प के रूप में सेकुलरवाद के नारे पर, सीमित तौर पर, एकजुट विपक्ष (जो राज्य का सत्ता पक्ष है) के लिए जनादेश को सेकुलरिज्म पर केंद्रित करना टेढ़ी खीर है। यही वजह है कि लालू आर्थिक सामाजिक आंकड़ों से मंडल पार्ट-2 का आह्वान करते दीखते हैं। बिहार का चुनाव ऐतिहासिक अनुभवों, उपलब्धियों और चुनौतियों का जनादेश होगा जिसमें नई पीढ़ी की राजनीतिक मुखरता अधिक मायने रखती है।
यह दुर्लभ संयोग है कि पटना के जिस गांधी मैदान से संपूर्ण क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन को चुनौती मिलने का इतिहास दर्ज है, उसी गांधी मैदान पर कांगे्रस अध्यक्षा सोनिया गांधी के साथ जेपी आंदोलन से नेता बने लालू और नीतीश मंच साझा करते दिखे। राजनीतिक समीकरण में बदलाव की यह पहेली नई नहीं है। ऐसे संबंध अस्तित्ववादी या कहें कि सियासी प्रासंगिकता बचाए रखने की मजबूरियां अधिक होती हैं जिसके तहत अपने ही सहयोगी नीतीश कुमार के हाथों बिहार की सत्ता गंवाने के कारण लालू यादव बीते एक दशक से सोनिया गांधी के करीबी और यूपीए सरकार के सहयोगी रहे। उधर, लालू की सियासी छाया से खुद को मुक्त कराने वाले और सुशासन व विकास से अपनी अलग पहचान बनाने वाले नीतीश कुमार फिलहाल लालू के सहयोगी हैं, जिनके शासनकाल को कथित तौर पर जंगलराज का नाम उन्होंने ही दिया था। नीतीश कुमार की राजनीतिक लोकप्रियता और सफलता संयोग नहीं है, दरअसल वे बिहार के उसी जनादेशी स्वभाव और अनुभवों का प्रतीक साबित हुए हैं जिसका लाभ कभी लालू को मिला था। लिहाजा जीवंत लोकतंत्र के संदर्भ में यह सुकून देने वाली प्रवृति है कि अस्तित्ववादी गठबंधन की सियासी सुविधा के समानांतर जनता की अपेक्षाओं और अनुभवों का विकल्पवादी संकल्प मजबूत है।
बिहार चुनाव में सबसे अधिक चर्चा महागठबंधन की है तो इसका कारण यह है कि वे विरोधाभासी विडंबनाओं का प्रतीक करने वाले सबसे ताकतवर सामाजिक, या कहें जातीय, समीकरण का प्रतिनिधित्व करते दीखते हैं। आमतौर पर विश्लेषकों ने आमचुनाव 2014 के मतप्रतिशत और जातीय आबादी को आधार बनाकर अपने आकलन में महागठबंधन को विजेता साबित कर दिया है और नीतीश कुमार की सुशासन की छवि की लोकप्रियता को निर्णायक कारक बताया है। लेकिन मेरा मानना है कि बिहार का चुनाव नई पीढ़ी के दबदबे का चुनाव होगा जिसमें बदतर सरकार के निर्मम उदाहरण के रूप में कांगे्रसनीत यूपीए सरकार का अनुभव, समाजवाद से समावेशी विकास की उपलब्धि और अवसरवादी सेकुलरिज्म कसौटी पर होंगें। बीते कुछ दिनों से लालू प्रसाद यादव, जो गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं, जनसंख्या के जारी सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों के हवाले से पूछ रहे हैं कि हर तीन में से एक परिवार भूमिहीन हैं और बताओ कि ये किस जाति के हैं? लेकिन समाजशास्त्र के हिसाब से क्या सवाल अधिक महत्वपूर्ण नहीं है कि आखिर उनकी जमीनें बिकी क्यों? पारिवारिक विभाजन में अलाभकर हो गई कृषि जोत, रस्मों-रिवाजों की बोझ बनी परंपरा का निर्वाह करने की मजबूरी या दैनिक जरूरतों को भी पूरा न कर पाने वाली आजीविका का अभाव, आखिर कारण क्या था उनके भूमिहीन होने का? लालू प्रसाद जिन आर्थिक विडंबनाओं का सवाल उठाते हैं, वह जायज हैं लेकिन जब वे इसे मंडल पार्ट-2 की सियासत का जातीय आधार बना देते हैं, तब खुद को संदिग्ध बना लेते हैं। एक आम मतदाता के मन में सवाल यही होगा कि आखिर यह विडंबनाएं किसकी हैं, क्यों हैं? वह सोचता है कि मंडल पार्ट-2 पर विचार करने से पहले मंडल पार्ट-1 के सामाजिक न्याय की समावेशी सफलता का मूल्यांकन क्यों न किया जाए, और इन विडंबनाओं के लिए प्रधानमंत्री मोदी किस प्रकार आरोपी है? लंबे सियासी व शासकीय अनुभव के बाद भी लालू प्रसाद यादव यदि बिहार के युवाओं को बिहार में रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर स्पष्ट विजन नहीं दे पा रहे हैं तो यह उनकी सियासत का ठहराव है। मेरा आकलन है कि बिहार का चुनाव लालू के समाजवादी शिष्यता की दावेदारी पर निर्णय का भी चुनाव है। आखिर लोहिया क्या थे? अर्थशास्त्र के विद्वान लोहिया भारतीय समाज की जमीनी हकीकतों में आमूल और ठोस बदलाव लाने के लिए समाजवाद की वकालत करते थे, जिसमें पुराने को गिराकर नए निर्माण करने का हिम्मत करना शर्त थी। लेकिन लालू का समाजवाद क्या है? उन्होंने समाजवाद को सामाजिक न्याय की जातीय संकल्पना में बुनने की सुविधाजनक स्थितियों का लाभ उठाया। हालांकि इससे परिधि पर वंचित खड़े जातीय समूहों में चेतना, सम्मान और एकता बढ़ी, लेकिन आरक्षण आधारित सामाजिक न्याय का प्रत्यक्ष लाभ यही हुआ कि जातियों के राजनीतिक गोलबंदीकरण से सत्ता हासिल की जाने लगी। लेकिन क्या यह हैरान नहीं करता है कि आखिर क्यों लालू गुजरात के पटेलों के आरक्षण को समर्थन का ऐलान करते नहीं दीखते हैं? बहरहाल, क्या लोहिया समाज के जातीय गोलबंदीकरण से संतुष्ट हो सकते थे, या उनके विचारों का अपेक्षित समाज आर्थिक असमानताओं से दूर किए जाने की अपेक्षा भी करता था? इसी आधार पर यह प्रश्न वाजिब है कि आखिर जनगणना के सामाजिक आर्थिक आंकड़ों की भयावहता में समाजवादी प्रयोगों की विफलता को साबित हुआ क्यों न माना जाए? बीते दिनों उत्तरप्रदेश में 14 हजार से कम लेखपालों की नियुक्ति के लिए हुई परीक्षा में 25 लाख आवेदन किए गए थे, और लखनउ सचिवालय में चतुर्थ वर्ग कर्मचारी के 400 से कम पदों के लिए तीस लाख आवेदन हुए। आखिर समाजवाद के पास उन लाखों वंचित रह जाने वाली अपेक्षाओं और आशाओं को पूरा करने की क्या योजना है? बिहार समेत पूरे देश में, यकीन मानिए, सियासत ने जनता को लगभग समझा दिया है कि समाजवाद और सामाजिक न्याय पर्यायवाची हैं। हकीकत यह है कि समाजवाद तब तक हासिल नहीं हो सकता जब तक कि आबादी के सापेक्ष उत्पादक संसाधन, जो मानवीय और तकनीकी हैं, के अनुपात में बढ़ोतरी नहीं की जाती, और उसका पारदर्शी व न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करने वाली व्यवस्थाओं को अनुशासित नहीं किया जाता है।
समाजवादी चिंतन और व्यवहार की आधुनिक अनिवार्यता ही यही है कि दूसरे वादों के समान समाजवाद भी बगैर आर्थिक संकल्पनाओं के कभी पूरा नहीं हो सकता। याद कीजिए 1952 का चुनाव, जिसमें लोहिया के नेतृत्व में कांगे्रस छोड़कर निकले समाजवादियों की उम्मीद थी कि वे 5-7 राज्यों में जीतेंगें लेकिन बुरी तरह हारे। इसपर लोहिया ने कहा था कि अधिकांश समाजवादी ऐसे कपड़ों की तरह दिखते हैं जिनकी धुलाई तो हुई है लेकिन इस्तरी नहीं हुई। और हां, संसद में चार आना-पंद्रह आना की वह चर्चित बहस जिमसें लोहिया ने कहा था कि यह उत्तरप्रदेश का दुर्भाग्य है कि मुझ जैसा निकम्मा आदमी और प्रधानमंत्री नेहरू जैसा अज्ञानी आदमी इस सूबे का प्रतिनिधित्व इस जगह पर करते हैं जो कि इतना गरीब है। उसके साथ साथ उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार और राजस्थान, यह सब उसी हालत में पड़े हुए हैं। तब से अब तब लोहिया के संदर्भ में वर्णित उपरोक्त राज्यों के विकास क्रम में काफी बदलाव आया है और जनादेश ऐसे अंतरों को लेकर अधिक समझदार हो रहा है। मेरा मानना है कि बिहार का चुनाव लोहिया और जयप्रकाश के नाम पर समाजवाद को सामाजिक न्याय ठहराने वाली अधूरी संकल्पना की विफलता और आर्थिक विजन के अभाव वाली सियासत पर जनादेश साबित होगा। बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की तुलना में लालू का चर्चा के केंद्र में होना महागठबंधन के अवसर को सीमित कर सकता है।

लेखक- राजनीतिक विश्लेषक