संस्कृति की बहस के बीच

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अनंत विजय।
भारतीय संस्कृति बनाम आयातित संस्कृति को लेकर देश में लंबे समय से बहस चल रही है, लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद और पूरे देश में वामपंथी पार्टियों के लगभग हाशिए पर जाने के बाद यह बहस और तेज हो गई है। वामपंथियों ने हमेशा लोकप्रिय संस्कृति को दूर रखने की कोशिश की। उसका प्रतिबिंब साहित्य में भी देखने को मिला। पॉपुलर कल्चर को इस तरह से पेश और स्थापित किया गया कि वो घटिया ही हो सकते हैं। जब भी संस्कृति के संदर्भ में पॉपुलर का इस्तेमाल होता है तो उसमें नकारात्मकता दिखाई देती है। जैसे जब हम कहते हैं कि ये तो पॉपुलर कल्चर का हिस्सा है या फलां फिल्म तो पॉपुलर सिनेमा है तो यह ध्वनित होता है कि वो स्तरहीन है। इसकी वजहों की पड़ताल होनी चाहिए कि किस तरह से शब्दों को नकारात्मकता से जोड़ दिया गया। जब पॉपुलर शब्द लीडर के साथ जुड़ता है तो वो अर्थ बदल देता है। यहां उससे हल्कापन या नकारात्मकता का बोध नहीं होता। अब इसको ही अगर दूसरी तरह से देखें और पॉपुलर के हिंदी अनुवाद को लेकर चलें तो यह बेहतर नजर आता है। हिंदी में लोक संस्कृति, लोक पर्व, लोक गीत आदि को श्रेष्ठ नजर से देखा जाता है। हमारे यहां तो लोक संस्कृति पश्चिम की लोक संस्कृतियों से बिल्कुल ही अलग है। लोक और लोक से जुड़ी हर चीज हमारे यहां समाज में जीवंतता के साथ हर शख्स की जिंदगी में मौजूद है। हमारी लोक संस्कृति बहुधा हमारे लोक साहित्य को भी प्रभावित करती है। पीयूष दईया की किताब लोक में इस बात का विस्तार से उल्लेख मिलता है।
अब हम अगर लोक संस्कृति की बात करें तो इसका निर्माण भाषा से भी होता है। अगर आप अवधी या बृजभाषा की लोक संस्कृति को देखें तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है। आज असहिष्णुता को लेकर बहुत बातें हो रही हैं लेकिन अगर आप देखें तो हमारी लोक संस्कृतियों में हर समुदाय आपको उदार नजर आएगा। हिंदू और मुसलमानों के बीच का प्रेम और सद्भाव जो लोक संस्कृतियों में नजर आता है वो कालांतर के साहित्य में गायब होता चला गया। दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो जब से लोक संस्कृति के ठेकेदार सामने आए हैं तब से हमारी संस्कृति को लेकर कई लकीरें दिखाई देने लगी हैं। लोक संस्कृति का दावेदार कोई पार्टी नहीं हो सकती और न ही इसको हिंदू धर्म या इस्लाम से जोड़ा जा सकता है। कई लोगों का तो मानना है कि जब तक भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था तब तक हमारा समाज ज्यादा धर्मनिरपेक्ष और उदार था। 1976 में जब भारत के संविधान में सॉवरिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक को संशोधित कर सॉवरिन सोशलिस्ट सेक्युलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक किया गया तब से लोक और संस्कृति दोनों पर असर पड़ा। इस बात पर अब भी बहस होनी चाहिए कि क्या संविधान में धर्मनिरपेक्ष लिखकर हमने अपने समाज को धर्मनिरपेक्ष बना दिया।