सिनेमाई सौंदर्य बोध की बोझिलता

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अनंत विजय।
सिनेमा हमारे समाज में एक बड़ी हद तक एक व्यसन की तरह माना जाता है। उसकी पहचान वयस्कता, ईष्र्या, ललचाने वाले संसार की ओर खुलने वाली खिड़की की ज्यादा रही है। पिछले तमाम बरसों में यह आधुनिक समाज की लोक-संस्कृति का लोकप्रिय विकल्प ही होता गया है। प्रतिरोध, साहित्य, विचार, सिनेमा में एक क्षीणधारा के रूप में ही मौजूद रहे। ये पंक्तियां लिखी हैं श्रीराम तिवारी ने अपने और प्रभुनाथ सिंह आजमी के संपादन में प्रकाशित किताब विश्व सिनेमा का सौन्दर्य बोध में।
अब इन पंक्तियों से साफ है कि संपादक की दृष्टि क्या है। यहां श्रीराम तिवारी जो कहना चाहते हैं, वो खुलकर कह नहीं पा रहे हैं क्योंकि व्यसन के साथ एक बड़ी हद तक और लोक-संस्कृति को कोट में डालकर एक छोटा-सा रास्ता छोड़ जाते हैं। विश्व सिनेमा के सौंदर्य बोध को समझने के पहले संपादक के बोध का साफ होना आवश्यक है। अब किस तरह से और किस विचारधारा के लोग सिनेमा को हमारे समाज में व्यसन मानते हैं या थे, इस पर अगर संपादक थोड़ा विस्तार से प्रकाश डालते तो पाठकों की समझ बेहतर होती। सिनेमा की पहचान को जिस तरह से उन्होंने तीन शब्दों- वयस्कता, ललचाने वाली ईर्ष्या में समेट दिया, वह भी भारतीय सिनेमा के योगदान को एक छोटी सी चौहद्दी में घेरकर छोड़ देने जैसा है।
ठीक है कि कुछ भारतीय फिल्मकार सपनों के सौदागर कहे जाते रहे हैं लेकिन क्या सिर्फ चंद फिल्मकारों के आधार पर उनको इन विशेषणों से नवाज देना उचित है। इस पुस्तक के संपादक श्रीराम तिवारी, जो खुद बेहद लंबे समय से संस्कृति कर्मी रहे हैं, को लगता है कि भारतीय सिनेमा में प्रतिरोध, साहित्य, विचार आदि भी क्षीणधारा के तौर पर ही मौजूद रहे। जहां तक विचार और साहित्य की बात है तो महबूब अली से लेकर अनुराग कश्यप तक की फिल्मों में विचारधारा मौजूद रही है। क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है। भारतीय सिनेमा में विचार प्रमुख फिल्मों का एक दौर में बोलबाला रहा है। समांतर सिनेमा का एक पूरा दौर चला था, उसको कैसे विस्मृत किया जा सकता है।
दरअसल जिस हिंदी सिनेमा को हिंदी के एक खास विचार के लोग कमतर आंकते रहे हैं वो सिनेमा अब कथित प्रगतिशील साहित्य से आगे निकलने लगा है और एक विधा के तौर पर विकसित होकर स्थापित होने के दौर में है। पहले भी और अब भी सिनेमा लोगों को आंदोलित कर रहा है। अभी मांझी नाम से एक फिल्म आई है, जिसने इतनी बड़ी लकीर खींच दी है जिसे छूने के लिए काफी श्रम करना पड़ेगा। इसके पहले भी मशान और पान सिंह तोमर जैसी फिल्में भी लोगों को वैचारिक तौर पर उद्वेलित करती रही हैं।
समीक्ष्य कृति में मध्यप्रदेश से निकलने वाली पत्रिका पटकथा में प्रकाशित लेखों का संग्रह है जिनमें विश्व प्रसिद्ध फिल्म निर्देशकों के सिने दृष्टि पर लेख प्रकाशित हैं। इस वक्त के पाठक पटकथा पत्रिका से परिचित नहीं होंगे। पटकथा ने अपने दौर में काफी हलचल पैदा की थी और सिनेमा में अतिरिक्त गंभीरता के साथ विचार किया था। दरअसल उस वक्त से लेकर इस वक्त तक भी भारत में सिनेमा पर लेखन को हल्का मानकर उस पर गंभीरता से विचार ही नहीं हुआ।
वामपंथ के दौर में सिनेमा को व्यसन माना जाता रहा और नाचने -गाने का माध्यम मानकर उसे और उससे जुड़े लोगों को सायास हाशिए पर रखा गया। फिल्मी गीतकारों को लेखक समुदाय में वो प्रतिष्ठा नहीं मिली जो कवियों को हासिल हुई। अब हालात थोड़े बेहतर होने लगे हैं और कई युवा लेखक फिल्मों पर और फिल्मी हस्तियों पर गंभीरता से लेखन कर रहे हैं। हिंदी में सालों तक यह स्थिति चली लेकिन अंग्रेजी में बॉलीवुड से जुड़ा लेखन जारी रहा। इस वजह से वहां सिनेमा से जुड़ी कृतियां अपेक्षाकृत ज्यादा मौजूद हैं।
समीक्ष्य कृति- विश्व सिनेमा का सौंदर्य बोध में सिनेमा के लगभग सभी पहलुओं को समेटते हुए लेख हैं। इन लेखों को पढ़कर सिनेमा के हर पहलू को समझने में मदद मिल सकती है। तकनीक से लेकर लेखन और निर्देशन तक। इस किताब में प्रकाशित चौदह लेखों में से पार्कर टेलर का भौतिक यथार्थ और फिल्मों पर एक बेहतरीन लेख है। इस लेख के शुरुआत में ही लेखक कहता है कि यह बिल्कुल भ्रांत धारणा है कि फिल्म कैमरे की आंख केवल मायावी यथार्थवाद के लक्ष्यों को ही समर्पित है और अपनी प्रकृति की वजह से कोई अन्य लक्ष्य प्राप्त कर ही नहीं सकती। लेखक बेहुत बेबाकी से इस बात को स्पष्ट भी करते चलते हैं। जब वो कहते हैं कि देह आकारों के अनुपात में रचे गये पुरातन यूनानी मूर्तिशिल्पों को रेनेसां काल से प्रेरणा मिली थी। इस लेख में बेहद बारीकी से तकनीकी पक्ष पर विचार किया है जिससे सिनेमा के गंभीर पाठकों को इस पक्ष को समझने में मदद मिलेगी।
इस किताब में जार्ज सेनजिनेस का जन सिनेमा की तलाश नाम से एक लंबा लेख है। सेनजिनेस ने बहुत पते की बात कही है- उपनिवेशवाद की यंत्रणा को झेलकर उभरे देशों के कलाकारों और बुद्धिजीवियों में से अधिकांश पर पश्चिमी संस्कृति की छाप लगी होती है। उनके ज्ञान के स्रोतों, विचारों और दृष्टिकोणों का निर्माण उसी पश्चिमी संस्कृति को आत्मसात करने और उसका ढोल पीटने के फलस्वरूप हुआ। अगर हम इसको समकालीन भारतीय संदर्भ में अनूदित करें तो कह सकते हैं कि वामपंथ की यंत्रणा झेलने के बावजूद हमारे साहित्य और साहित्यकारों के एक बड़े वर्ग पर वाम संस्कृति की छाप छूटे नहीं छूट रही है। भारतीय सिनेमा बहुत हद तक उससे आजाद होता दिख रहा है।
इन दिनों भारतीय सिनेमा में तकनीक से लेकर कथ्य तक में स्पष्ट बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है। इन चौदह लेखों में–आंते मिशैलसन, डेविड बोर्डवेल, रूडोल्फ आर्नहीम, पॉबर्ट स्कोल्स, जार्ज ब्लूस्टोन, आले रॉब्ब ग्रिये से लेकर फ्रेडरिक जेम्सन और पालीन के एल तक के लेख हैं। ये लेख सिनेमा के उन्हीं पाठकों के लिए रुचिकर हो सकते हैं जो बेहद बारीकी और गंभीरता से विश्व सिनेमा को समझना और जानना चाहते हैं। यह किताब शोधार्थियों के लिए संदर्भ ग्रंथ की तरह तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन सिनेमा के आम और औसत पाठकों को यह पुस्तक बेहद गरिष्ठ लगेगी जिसका पाचन उनके लिए संभव नहीं लगता है।