सुख में हों संयम-संतोष के संस्कार

lalit gargललित गर्ग।
हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, उसमें सभी लोग एक-दूसरे से अपेक्षा करते हैं कि वे शांत हों, संतुलित हों, सरसता भरे व्यवहार वाले हों, किन्तु सब ऐसे नहीं होते। आश्चर्य तो इस बात का है कि हम स्वयं जैसा चाहते हैं वैसा नहीं जी पाते। बहुत बार हमारा मन छोटी बात को बड़ा बना लेता है, क्योंकि मन पहले से अशांत होता है। असंतुलित एवं अशान्त मन ही अशान्ति, तनाव, हिंसा, कड़वाहट का कारण बनता है। व्यक्ति के जीवन में कुछ मानवीय एवं नैतिक गुणों का होना बहुत जरूरी है, किन्तु उनका सामान्यतया अभाव पाया गया है। जिन लोगों के जीवन में ये गुण हैं, वे स्वर्गिक सुखों का अनुभव करते हैं।
जीवन में जटिलता नहीं, सरलता होनी चाहिए। संबंधों में जब छुपाव जैसी वृत्ति पैदा हो जाती है, वहम पनपने लगते हैं तो आखिर एक दिन प्रतिक्रिया एवं प्रतिशोध के तीव्र भाव पैदा हो जाते हैं। सीधेपन एवं सरलता से व्यक्ति बिना किसी लेन-देन के दूसरे को अपना बना लेता है अर्थात उस पर अमिट और निश्छल प्रभाव छोड़ देता है। जीवन में यह प्रभावशाली व्यवहार चाहिए जिसका आधार है सरलता।
व्यक्ति जैसा सुख, समाधान और सुझाव देता है वैसा सुख स्वर्ग के आस-पास भी नहीं मिलता। जीवन में प्रतिक्रिया के एवं प्रतिशोध के अवसर अधिक आते हैं। उस वातावरण में हम प्रतिक्रिया मुक्त कैसे रहें? जो इस बात को भली-भांति समझ लेते हैं वह सुखी, संतुलित एवं शांत जीवन की ओर अग्रसर हो जाते हैं। समूह में सार्थक जीवन वही जी सकता है जो स्वयं के स्वार्थ को क्षीण कर देता है। किसी भी कार्य के साथ जुड़ी अपनी सफलता को व्यक्ति जब दूसरों को समर्पित कर देता है और भावना रखता है कि यह सफलता, यह सुलाभ और यह प्रसिद्धि मेरी नहीं है, तब जीवन सचमुच प्रेरक बन जाता है। जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये अपनी सोच को व्यापक बनाना जरूरी है। टोनी रॉबिंसन ने कहा है कि अगर आप बड़ी सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको स्वयं को अपनी सीमाओं से परे धकेलना होगा। अपने आपको एक उच्च मानसिक अवस्था में ले जाना होगा जहां ‘मैंÓ नहीं ‘हमÓ की भाषा जीवन का आदर्श होती है।
व्यक्ति-व्यक्ति में होने वाला मतभेद, धन का उन्माद और भौतिकता का स्वाद इसलिए बढ़ता जा रहा है कि व्यक्ति स्वयं को ही सब कुछ मानकर दूसरों को नकारता है। हमारी दुनिया में आदेश की भाषा अधिक चलती है। सुझाव के स्थान पर आदेश की भाषा में कठोरता, कटुता, दमन तथा विरोध जैसा भाव झलकता है। जब हम विन्रमता, विवेक तथा बुद्धिमत्ता का सुझाव देते हैं तो बदले में हमें वातावरण में मधुरता की गंध आने लगती है। जो किसी से खुश होने के लिए तैयार नहीं, वह भी खुश होने की ओर अग्रसर होता है।
मनुष्य सब कुछ बाहर से पाना चाहता है-सुख, शांति, स्वास्थ्य और आनंद। वह इस बात को भूल गया है कि इन सबका मूल स्रोत हमारे भीतर तल में है। जब व्यक्ति सुविधाकांक्षी बन जाते हैं तब नेतृत्व शक्ति को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। एक साथ सबकी सभी इच्छाएं पूरी नहीं की जा सकतीं। इसी का परिणाम है समय से पूर्व व्यक्तियों का, परिवारों का, समाज का, राष्ट्रों का विभक्त होना। इसीलिए सुविधा जीवन की मांग नहीं होनी चाहिए। एक मांग दूसरी मांग का आमंत्रण है। इंद्रियों की आतुरता जब बढ़ती है तब जीवन में एक-दूसरे के हित टकराने लगते हैं, इसलिए प्राप्त सुविधा में संतोष एवं संयम के संस्कार दिये जाने जरूरी हैं।
मनुष्य की एक सहज अभिरुचि होती है कि वह औरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है। इस ध्यान में आकर्षण की वृत्ति से प्रेरित मनुष्य अपने को जैसा है, उससे अधिक बताने के लिए क्या नहीं कर लेता। जब तक अहं का नाग फुफकारता नहीं, तब तक ठीक है। चोट लगी कि फुफकार देता है। जिसके तृप्ति के सारे साधन बाहर हैं, उसको अहं की देर-सवेर चोट लगनी है। हर इनसान इस जीवन यात्रा के किसी न किसी पड़ाव से गुजर रहा है। हर व्यक्ति इसे अपने तरीके से जीना चाहता है, हर व्यक्ति का अपना जीवन दर्शन है। जीवन में कई प्रकार के अवगुण भरे पड़े हैं। लेकिन इसी के साथ पवित्रता, सच्चाई, करुणा और मैत्री जैसे भाव भी दिखाई पड़ते हैं। यह हमारा अपना निर्णय होता है किन भावों को अपने जीवन में धारण करें।
जीवन तो सरल है, लेकिन हमने ही इसे जटिल बना दिया है। भगवान महावीर ने कहा—जैसे ओस की बूंद घास की नोक पर थोड़ी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी बहुत छोटा है, शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है। हम स्वयं शांतिपूर्ण जीवन जीयें और सभी के लिये शांतिपूर्ण जीवन की कामना करें।