हिन्दी की उपेक्षा को चुनावी मुद्दा बनाये

ललित गर्ग। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में सबसे चर्चित होने वाला आसन्न आम चुनाव क्या मुद्दाविहीनता, फूहड़ता, भाषाई अशिष्टता, निजी अपमान के लिये ही याद किया जायेगा? सवाल है कि क्या हमारी राजनीतिक बिरादरी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक या गंभीर बहस छेड़ेंगी? क्या लोकतंत्र का यह महापर्व अपने राष्ट्रीय अस्तित्व एवं अस्मिता के लिये कोई ठोस उपक्रम के लिये जाना जायेगा? क्यों नहीं लोकतंत्र का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुष्ठान अपने राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे राष्ट्रभाषा हिन्दी, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय पक्षी आदि को सृदृढ़ता प्रदान करने का माध्यम बनता? चुनाव में प्रचार का सशक्त माध्यम हिन्दी ही होता है, लेकिन जिस हिन्दी का उपयोग करके प्रत्याशी संसद में पहुंचते हैं, वहां पहुंचते ही हिन्दी को भूल जाते हैं, विदेशी भाषा अंग्रेजी के अंधभक्त बन जाते है, यह लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति है, राष्ट्रभाषा का अपमान है।
हिन्दी की दुर्दशा एवं उपेक्षा आहत करने वाली है। इस दुर्दशा के लिये हिन्दी वालों का जितना हाथ है, उतना किसी अन्य का नहीं। अंग्रेजों के राज में यानी दो सौ साल में अंग्रेजी उतनी नहीं बढ़ी, जितनी पिछले सात दशकों में बढ़ी है। इस त्रासद स्थिति की पड़ताल के लिये हिन्दी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा, चुनाव के माहौल में यह एक बड़ा मुद्दा बनना चाहिए। पैसा, तथाकथित आधुनिकता, समृद्धि एवं राजनीतिक मानसिकता इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की जरूरत है। यह खुशी की बात है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने शासनकाल में हिंदी को प्रोत्साहन देने की लिये प्रयास किये हैं, न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी उनके प्रयासों से हिन्दी का गौरव बढ़ा है। प्रश्न फिर भी खड़ा है कि उन्होंने कोई बड़ा निर्णय लेते हुए क्यों नहीं राजकाज की भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया?
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अंग्रेजी के सार्वजनिक इस्तेमाल पर कड़ा प्रहार किया है, जैसा कभी गांधीजी और लोहियाजी किया करते थे। विपक्षी नेता बिलावल भुट्टो पाकिस्तान की संसद में अंग्रेजी में बोलते हैं। इमरान ने इस पर आपत्ति की है। उनका कहना है कि उन्हें राष्ट्रभाषा उर्दू में बोलना चाहिए। पाकिस्तान की संसद में अंग्रेजी में बोलना 90 प्रतिशत पाकिस्तानी जनता का अपमान है, जो अंग्रेजी नहीं समझती। यह बात हिंदुस्तान पर भी लागू होती है लेकिन हमारे किसी प्रधानमंत्री ने आज तक क्यों नहीं ऐसे साहस का परिचय दिया। यदि डॉ. लोहिया प्रधानमंत्री बन गए होते तो वे तो संसद में अंग्रेजी के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देते। आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी भारत में कानून अंग्रेजी में बनते हैं और अदालत की बहस और फैसलों की भाषा भी अंग्रेजी ही है। उच्च शिक्षा में भी अंग्रेजी माध्यम का बोलबाला है। नौकरशाही सारा प्रशासन अंग्रेजी में चलाती है, ये स्थितियां हमारी राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।
गतदिनों उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में ऐसी बात कही थी, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है। वैंकय्या नायडू का हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति 2019 के चुनाव में उम्मीदवार बने हर प्रत्याशी की होनी चाहिए। इन चुनावों में हिन्दी को एक चुनावी मुद्दा बनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राष्ट्र एवं राज भाषा हिन्दी का सम्मान बढ़ाने एवं उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊंचाई देने के लिये अनूठे उपक्रम किये हैं। हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदारी से लडऩा होगा। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक और भाषायिक दृष्टि से जोडऩेवाली भाषा है। हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिये इन चुनावों में व्यापक बहस होनी चाहिए और आम मतदाता भी ऐसे ही उम्मीदवारों को वोट दे जो राजभाषा हिन्दी को सुदृढ़ करने के लिये प्रतिबद्ध हो।
देश में एक तबका अंग्रेजी मानसिकता का है। जो आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रहा है, उस पर इन चुनावों में हल्ला बोलने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिन्दीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है। चुनाव में हिन्दी को एक चुनावी मुद्दा बनाकर हम भारत के अंग्रेजी मानसिकता के दिमागों में खलबली मचा सकते हैं। कई अंग्रेजी अखबारों और टीवी चैनलों में ऐसा होने से बौखलाहट आ सकती है। क्योंकि ऐसा होने का अर्थ है देश के सबसे बौद्धिक और ताकतवर तबके की दुखती रग पर उंगली रखना।
हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे। आजादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे। लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जैसे शीर्ष पर बैठे नेता बिना अंग्रेजी की दक्षता के सक्रिय और सफल है। नायडू एक अहिन्दी प्रांत से होकर भी हिन्दी में बोलते हैं, उसे आगे बढ़ाने की बात करते हैं। तो अन्य नेता ऐसा क्या नहीं करते?
हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने का यह तो कदापि अर्थ नहीं है कि अंग्रेजी में अनुसंधान बंद कर दो, अंग्रेजी में विदेश नीति या विदेश-व्यापार मत चलाओ या अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान का बहिष्कार करो। उसको उचित सम्मान एवं गौरव प्रदान करने का अर्थ है कि देश की शिक्षा, चिकित्सा, न्याय प्रशासन आदि जनता की जुबान में चलना चाहिए। दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व महसूस करते हैं। लेकिन हिन्दी में प्राय: ऐसा नहीं होता। हिन्दी वाला अपनी अच्छी हिन्दी को किनारे कर कमजोर अंग्रेजी के साथ खुद को ऊंचा समझने का भ्रम पालता है। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों हम खुद ही अपनी भाषा एवं अपनी संस्कृति को कमजोर करने पर तुले हैं?
चुनाव लोकतंत्र का महाकुंभ है और भारत लोकतांत्रिक राष्ट्र है लेकिन लोक की भाषा कहां है? हिन्दी को हमने पांवों में बिठा दिया है और अंग्रेजी को सिंहासन पर बिठा रखा है। इन आम चुनावों में हमें अंग्रेजी का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध करना होगा। यदि भारत के पांच-दस लाख छात्र अंग्रेजी को अन्य विदेशी भाषाओं की तरह सीखें और बहुत अच्छी तरह सीखें तो उसका स्वागत है लेकिन 20-25 करोड़ छात्रों के गले में उसे पत्थर की तरह लटका दिया जाए तो क्या होगा? हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं।
किसी भी देश की भाषा और संस्कृति किसी भी देश में लोगों को लोगों से जोड़े रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। भाषा राष्ट्र की एकता, अखण्डता तथा प्रगति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। कोई भी राष्ट्र बिना एक भाषा के सशक्त व समुन्नत नहीं हो सकता है अत: राष्ट्र भाषा उसे ही बनाया जाता हैं जो सम्पूर्ण राष्ट्र में व्यापक रूप से फैली हुई हो। जो समूचे राष्ट्र में सम्पर्क भाषा के रूप में कारगर सिद्ध हो सके। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ इन आम चुनावों में इस गूंगेपन को दूर करने के स्वर बुलन्द होने चाहिए। यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा व अवज्ञा के भाव, हमारे राष्ट्रीय हितों में किस प्रकार सहायक होंगे। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? इस उपेक्षा को इन चुनावों में कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से ही दूर किया जा सकेगा। इसी से देश का गौरव बढ़ेगा, ऐसा हुआ तो यह आम चुनाव एक स्वर्णिम इतिहास का सृजन कर सकेगा।