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कुलिंदर सिंह यादव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वैश्विक संस्थाओं में विकासशील देशों को ज्यादा प्रतिनिधित्व देने के लिए मताधिकार को 21 सदी के अनुसार तार्किक बनाने की मांग की है ताकि विकसित देशो द्वारा मदद के नाम विकासशील देशों के शोषण को रोका जा सके मोदी चाहते हैं कि वैश्विक संस्थाओं में से एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जो विकासशील देशों को अल्पकालिक के लिए धन उपलब्ध कराता है वह कोटा सुधार की दिशा में तेजी से कार्य करें विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था भी तीव्र विकास दर हासिल कर सके अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रत्येक 5 वर्ष में अपने कोटा प्रतिशत की समीक्षा करता है हे लेकिन 5 वर्ष बीत जाने के बाद भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है साथ ही अभी तक 2010 के कोटा सुधार के प्रस्ताव का अनुमोदन भी नहीं हो पाया है जिसका मूल कारण अमेरिकी संसद द्वारा वक्त समझौते पर हस्ताक्षर ना करना है क्योंकि कई अमेरिकी सांसद आई एम एफ के अंशदान पूजी में अधिक अंशदान के पक्ष में नहीं हैं भारत पिछले कुछ वर्षों से अपने अंशदान में बढ़ोतरी की मांग कर रहा है अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना 1945 में एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था के रुप में की गई थी यह सभी सदस्य देशो की अर्थव्यवस्था निगरानी करती है और ज़रूरत पढऩे पर अल्पकालिक वित्त भी मुहैया कराती है इसके कार्य क्षेत्र का विस्तार अंतर्राष्ट्रीय विनिमय दरों को स्थिर रखने से लेकर सदस्य देशों को वित्तीय संकट में सलाह व मदद देने तक की है अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष देशों द्वारा व्यापार के लिए जिस मुद्रा का प्रयोग किया जाता है उसे स्ष्ठक्र कहते हैं वर्तमान में स्ष्ठक्र बास्केट के अंतर्गत इन यूरो अमेरिकी डॉलर स्ट्रेलिनतथा येन आते हैं वर्तमान में इसके सदस्य देशों की संख्या 188 है इस समय कोटा निर्धारण में तीन मापदंडों को देखा जाता है विश्व व्यापार मैं भागीदारी प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय और आर्थिक विकास दर है कोटा प्रतिशत के आधार पर संबंधित देश को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में मताधिकार का आदेश दिया जाता है इस आधार पर आर्थिक रुप शक्ति संपन्न कुछ विकसित देशो का इस संगठन के क्रिया कलापों पर नियंत्रण रहा है अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में विकासशील देश बहुतायत में होने के बावजूद इसके संचालन में विकासशील देशों की भूमिका नाम मात्र की है इस समस्या के निराकरण के लिए भारत द्वारा बार-बार वैश्विक मंचो पर सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के लोकतांत्रिक बनाए जाने के पक्ष में अपनी बात रखता है जिसका विकासशील देश तथा कुछ विकसित देश समर्थन भी करते हैं संगठन के बोर्ड ऑफ गवर्नर द्वारा उसका विरोध किया जाता है इसके विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि विकासशील देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सेऋण तो लेते हैं लेकिन उनका संस्था में अंशदान अल्प है इस आधार पर कोटा प्रतिसत में इजाफा तार्किक नही है वर्तमान समय में भारत का कोटा प्रतिशत 2.44 है और रैंकिंग में 11 वे स्थान पर है इससे एक बात तो स्पष्ट है कि कुछ विकासशील देशों का ही इस संस्था पर अधिपत्य है गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से विकासशील देशों का अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मोहभग हुआ है जिससे विकासशील देश छोटे-छोटे क्षेत्रीय संस्थाएं बनाने पर जोर दे रहे हैं उसका एक उदाहरण हाल ही में चीन के नेतृत्व में बनाए गए नए बैंक एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक हैं जिस के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल है इसके अलावा 20 अन्य देश भी संस्थापक सदस्यों में हैं विकासशील देश इस तरह की संस्थाओं के सहारे अपने को विश्व पटल पर लाने के लिए प्रयासरत दिख रहे हैं वर्तमान परिवेश में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की भूमिका को एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है यदि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण जैसा कि विकासशील देशों की मांग है कर दिया जाता है तो ऐसी संस्थाओं की प्रासंगिकता बनी रहेगी एक पारदर्शी व्यवस्था अपना अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष गरीबी उन्मूलन समावेशी विकास में अपनी महति भूमिका अदा कर सकता है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मैं कार्यप्रणाली के स्तर पर विकसित देशो के हाथ की कठपुतली बना हुआ है जिससे सफलता हासिल करना आसान नहीं है दूसरी तरफ तेल संकट 1973 के बाद से यह महसूस किया जाने लगा कि विकासशील देशों की जरूरतों का आकलन सही ढंग से अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा नहीं हो पा रहा है जिसके कारण विकासशील देश ऋण का सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जिससे हुए जाल में तो फंस ही रहे हैं साथ ही उन देशो में भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है समग्रता यह कहा जा सकता है भले ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा को लंबे समय से अस्तित्व में है लेकिन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में यह पूरी तरह नाकाम रहा है अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य सदस्य देशो को आर्थिक रुप से सबल बनाना गरीबी उन्मूलन करना विकास गति को बढ़ाना लेकिन ऐसा करने में यह असफल रहा है देखने में यह भी आया है अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की आड़ में विकसित देश अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु विकासशील देशों के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करते हैं और साथ ही विकासशील देशों को एक बाजार प्रयोगशाला में देख रहे है और इस्तेमाल भी कर रहे है स्पष्ट है की लोकतांत्रिक करण की प्रक्रिया अपनाकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सार्थकता बरकरार रखा जा सकता है।