सेवानिवृत्ति के बाद पारदर्शी हो नियुक्ति

courtसंगीता भटनागर। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग निरस्त होने के बावजूद उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर छिड़ी बहस थमने का नाम नहीं ले रही है। हाल ही में देश के एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में खामियों से सहमति व्यक्त करते हुये सेवानिवृत्त की ओर अग्रसर न्यायाधीशों के संदर्भ में सुझाव दिया जो निश्चित ही बहुत महत्वपूर्ण है।
संविधान पीठ के फैसले से उत्पन्न स्थिति के परिप्रेक्ष्य में एक टीवी चैनल पर हुई परिचर्चा में हिस्सा लेने वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली, पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा, पूर्व अटार्नी जनरल सोली जे. सोराबजी और वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. राजीव धवन में सेवानिवृत्ति के बाद पूर्व न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मसले पर आम सहमति थी। न्यायमूर्ति लोढा का विचार था कि सेवानिवृत्त होने से पहले दिये जाने वाले फैसलों के सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभों से प्रभावित होने की गुंजाइश रहती है। न्यायमूर्ति लोढा का सुझाव था कि सेवानिवृत्ति से तीन महीने पहले ही ऐसे न्यायाधीशों को पेंशन या पूर्ण वेतन की नौकरी का विकल्प दिया जा सकता है और यदि न्यायाधीश पेंशन का चयन करे तो उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी प्रकार के कार्य के प्रति अयोग्य माना जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति लोढा का कहना था कि यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद पूर्ण वेतन का चयन करते हैं तो उन्हें विभिन्न आयोगों और न्यायाधिकरणों में नियुक्ति के लिये बनायी गयी सूची में शामिल कर लेना चाहिए तथा जब भी आवश्यकता हो तो कार्यपालिका प्रधान न्यायाधीश से परामर्श करके उस सूची में से उचित पूर्व न्यायाधीश का चयन कर सकती है।
सेवानिवृत्ति से पहले न्यायमूर्ति लोढा ने कहा था कि न्यायाधीशों को पद से हटने के बाद कम से कम दो साल तक कोई भी नयी जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भाजपा ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की विभिन्न पदों पर होने वाली नियुक्तियों के संदर्भ में संभवत: पहली बार सेवानिवृत्त नौकरशाहों की तरह ही इस श्रेणी में आने वाले न्यायाधीशों को कम से कम दो साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं देने का सुझाव दिया था। नौकरशाहों के मामले में पहले से प्रावधान है कि सेवानिवृत्ति के एक साल बाद तक वे किसी निजी संस्थान में नौकरी नहीं कर सकते हैं। अब एक बार फिर इस अवधि को बढ़ाकर दो साल करने पर विचार किया जा रहा है। विभिन्न न्यायाधिकरणों और आयोगों में आने वाले विवादों के न्यायिक और तार्किक ढंग से निपटारे के लिए न्यायिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होते ही या सेवानिवृत्त होने से पहले नियुक्ति के लिए उनके नाम के चयन को देखते हुये पूर्व प्रधान न्यायाधीश का सुझाव बहुत ही महत्वपूर्ण है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम के सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें केरल का राज्यपाल बनाये जाने पर कांग्रेस और उसके सहयोगी तथा समर्थक संगठनों ने जहां पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यपाल नियुक्त करने के औचित्य पर सवाल उठाये।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्यरत रहने के दौरान ही न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और न्यायमूर्ति डीके जैन की नियुक्ति की घोषणा की गयी थी। यही नहीं, हमेशा ही बेबाक और विवादास्पद टिप्पणियों के लिये चर्चित न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू को सेवानिवृत्त होते ही भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष और न्यायमूर्ति आफताब आलम को अवकाशग्रहण करने के तुरंत बाद दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय न्यायाधिकरण की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इसी तरह, उच्चतम न्यायालय के ही एक अन्य न्यायाधीश सीके प्रसाद को सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायमूर्ति काटजू के स्थान पर भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया था। इसके विपरीत, ऐसे न्यायाधीशों की संख्या भी कम नहीं है जिन्होंने अवकाशग्रहण करने के बाद कोई नयी सरकारी जिम्मेदारी लेने से ही इंकार कर दिया।
चूंकि न्यायाधिकरणों और आयोग में नियुक्ति के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के चयन में कार्यपालिका के साथ देश के प्रधान न्यायाधीश की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए सवाल उठता है कि क्या इन पदों के लिए चयन सरकार की पसंद के अनुसार होते हैं या फिर इसकी कोई अन्य वजह होती है। सवाल यह है कि जब देश में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं तो फिर न्यायाधीश के रूप में कार्यरत रहने के दौरान ही किसी न्यायाधीश को न्यायाधिकरण के अध्यक्ष पद के लिये नियुक्ति क्यों की जाती है? न्यायमूर्ति लोढा का यह सुझाव सराहनीय है कि प्रधान न्यायाधीश की सलाह से ऐसे न्यायाधीशों का पैनल तैयार करना चाहिए जो सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधिकरणों और आयोगों की जिम्मेदारी उठाने के लिये तैयार हैं। यदि पहले से ही ऐसे न्यायाधीशों की सूची उपलब्ध रहेगी जो सेवानिवृत्ति के बाद नयी जिम्मेदारी लेने के लिये तैयार हैं तो फिर उनमे से ही किसी न्यायाधीश को न्यायाधिकरण या आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है। ऐसी नियुक्ति पर विवाद भी नहीं होगा।