सोलर अलायंस का सपना

solar_panelsपैरिस पर्यावरण सम्मेलन में भारत ने सोलर अलायंस के रूप में एक अनोखी पेशकश रखी है। कर्क रेखा से मकर रेखा के बीच पडऩे वाले सौ के लगभग देशों में पूरे साल अच्छी धूप खिली रहती है। ये देश अगर सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ा दें तो न सिर्फ ये अपनी काफी सारी ऊर्जा जरूरतें एक अक्षय ऊर्जा स्रोत से पूरी करेंगे, बल्कि दुनिया के कार्बन उत्सर्जन में भी जबर्दस्त कटौती देखने को मिलेगी। मेजबान देश फ्रांस भारत की इस पेशकश में बराबर के भागीदार की तरह शामिल हो रहा है और कुछ अन्य देशों में भी इसे लेकर उत्साह देखा जा रहा है।
भारत ने अपना प्रस्ताव काफी तैयारी के साथ रखा है। वह 9 करोड़ डॉलर इस अलायंस के मुख्यालय की स्थापना पर लगाएगा और पांच साल तक उससे जुड़े सारे खर्चे उठाएगा। इसके लिए 40 करोड़ डॉलर का एक स्थायी फंड बनाया जाएगा, जिसमें एनटीपीसी जैसी भारत की सरकारी बिजली कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सहयोग राशि के अलावा दान, सहायता और सदस्यता से प्राप्त होने वाली राशि भी शामिल होगी। मुख्यालय के दैनंदिन खर्चे इस कोष के ब्याज से चलाए जाएंगे।
अलायंस का मुख्य काम तकनीकी विकास को बड़े पैमाने के उत्पादन से जोड़कर सोलर बिजली की लागत घटाना होगा। यह कोई हवाई बात नहीं है, क्योंकि पिछले पांच सालों में ही हमने सोलर बिजली का उत्पादन 9 रुपये प्रति यूनिट से गिरकर एकाध मामलों में 5 रुपये प्रति यूनिट तक आते देखा है। लेकिन इस बेहद संभावनामय क्षेत्र के साथ कुछ सीमाएं भी जुड़ी हैं। ताप या जल विद्युत की उत्पादन लागत औसतन ढाई रुपये प्रति यूनिट पड़ती है। दूसरे, पारंपरिक विद्युत इकाइयों की औसत उम्र काफी लंबी होती है। पावर हाउस मेनटेन करके रखे जाएं तो उन्हें बंद करने की नौबत नहीं आती। लेकिन सोलर पैनलों की उम्र के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता।
एक मुश्किल उत्पादन के पैमाने के साथ भी जुड़ी है। सोलर पैनल अगर जमीन पर लगाए जाते हैं, जैसा आजकल राजस्थान में बड़े पैमाने पर हो रहा है, तो उतनी जमीन बंजर छोडऩी पड़ती है। ज्यादातर देशों में मैदानी इलाके कम हैं, और जो हैं वहां खेती या कोई और उत्पादक काम होता है। ऐसे में सोलर अलायंस के सपने का भूगोल कितना बढ़ पाता है, यह देखने की बात है।