पश्चिम की नादानी से जन्मा भस्मासुर

g-parthasarthy

जी. पार्थसारथी।
बारह साल पहले राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने सद्दाम हुसैन के उन तथाकथित जनसंहार विस्फोटकों को नष्ट करने के बहाने से इराक पर अमेरिकी गठबंधन फौजों की चढ़ाई करवा दी थी, जो कि असल में कभी वहां मौजूद थे ही नहीं। अमेरिका के राजनीतिक जिनमें तत्कालीन राष्ट्रपति के भाई जेब बुश भी थे, ने यह स्वीकार किया था कि यह हमला सैन्य और राजनयिक रूप से एक घोर गलती थी। इस हमले के बाद इराक में प्रधानमंत्री नूर मलिकी के नेतृत्व में बहुसंख्यक शियाओं के हाथ में राजकाज आ गया। मलिकी द्वारा देश के अल्पसंख्यक सुन्नियों की वैध आकांक्षाओं की परवाह न किए जाने की वजह से वहां पर गृहयुद्ध शुरू हो गया। इराक का प्रभावशाली सुन्नी वर्ग जो इससे पहले ज्यादातर धर्म-निरपेक्ष विचारधारा रखता था, उसे पहले-पहल ओसामा बिन-लादेन के अल कायदा का ध्येय और नीतियां अपने जैसी लगीं, लेकिन बाद में इस वर्ग ने पश्चिमी इराक के बड़े इलाके में अबू बकर अल-बगदादी के नेतृत्व में बने इस्लामिक स्टेट का समर्थन करना शुरू कर दिया।
मजेदार बात यह है कि फरवरी 2004 में अमेरिकी फौज ने अबू बकर अल-बगदादी को पकड़ लिया था लेकिन उसे महज एक निम्न दर्जे का कैदी मानकर दिसंबर 2004 में रिहा कर दिया था। वही बगदादी अब दुनिया का सबसे ज्यादा खौफनाक आतंकी नेता बन बैठा है। बगदादी ने पहले अपने संगठन का विस्तार पश्चिमी इराकी सीमा से लगने वाले सीरियाई क्षेत्रों में किया। सीरिया में भी आईएस का उद्भव अमेरिका की उन गलत नीतियों की वजह से हुआ था, जिनका समर्थन उसके सहयोगी राष्ट्र फ्रांस और ब्रिटेन के अलावा मुख्य सुन्नी ताकतें जैसे कि सऊदी अरब, कतर और तुर्की कर रहे थे। जैसे-जैसे आईएस का सीरिया के इलाके में प्रभाव बढ़ता गया, इसका रूपांतरण आईएसआईएल में हो गया। यह उस अभियान का संकेत था, जिसमें सीरिया और इराक के इलाकों को मिलाकर एक संयुक्त नियंत्रण व्यवस्था बनाने के बाद लेवांत की मंशा अपने राज को जॉडर्न और लेबनान तक विस्तार देने की है।
अमेरिकी प्रशासन ने सीरिया में राज कर रही शियाओं के प्रभुत्व वाली बशर अल असद सरकार की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए उसके विरोधियों को शह देनी शुरू कर दी। इस कृत्य ने शिया-सुन्नी संघर्ष के लिए एक और अखाड़ा तैयार कर दिया। जिसमें एक तरफ शिया बहुल ईरान, इराक और लेबनान का हिजबुल्ला गुट था तो दूसरी ओर अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, सऊदी अरब, कतर और तुर्की की शह पर लड़ रहे सुन्नी विद्रोही। इस संघर्ष में आईएसआईएल तीसरी शक्ति है जिसकी फौज में ज्यादातर इराक, सीरिया और विश्वभर से हजारों की संख्या में आए विदेशी सुन्नी अरब लड़ाके शामिल हैं। फिलहाल आईएसआईएल की फौज में करीबन 80,000 से 1,00,000 लड़ाके हैं, जिसमें यूरोप के फ्रांस, यूके, जर्मनी, स्वीडन और इटली और यहां तक कि दूरदराज ऑस्ट्रेलिया के प्रवासी लगभग 20,000 विदेशी सुन्नी लड़ाके भी शामिल हैं जो कि इराक और सीरिया के मोर्चों पर आईएस के पक्ष में लड़ रहे हैं। इसके अलावा रूस, मध्य एशिया, ज्यादातर अरब देशों और तुर्की से संबंध रखने वाले सुन्नी मुसलमान इस जिहाद में भाग ले रहे हैं, जिसके चलते इन देशों का स्थायित्व भंग होने का खतरा बढ़ गया है।
अन्य इस्लामिक आतंकी गुटों की बनिस्पत आईएसआईएल उत्तरी अमेरिका और यूरोप के प्रवासी मुस्लिमों को अपने गुट में भर्ती करने या फिर उन्हीं मुल्कों में आतंकी कृत्यों को अंजाम देने के लिए प्रेरणा देने का काम सोशल मीडिया का उपयोग बड़े कौशल के साथ करके सिरे चढ़ाता है। आईएसआईएल के प्रचार के बहकावे में आए मुस्लिम प्रवासियों ने हाल ही में पेरिस और कैलिफोर्निया में आतंकी हमले किए हैं। मध्य-पूरब के स्थानीय तनाव में तब और भी इजाफा हो गया था जब लीबिया के तानाशाह मुहम्मर गद्दाफी को पश्चिमी ताकतों की शह पर अपदस्थ किया गया था और अब यह लीबिया के इलाकों के अलावा सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तटीय क्षेत्रों तक फैल गया है, और ऐसी आशंका है कि जल्द यह हिस्से भी आईएसआईएल के नियंत्रण में आ जाएंगे। इससे ज्यादा यह कि यमन, नाइजर, माली और सोमालिया में पहले अल कायदा से जुड़े आतंकी संगठनों ने अब आईएसआईएल के नेतृत्व में अपनी निष्ठा बना ली है।
अल कायदा की सोच से अलग आईएसआईएल शियाओं को अधर्मी मानता है। यह गुट कट्टर मध्य-युगीन मान्यताओं पर अमल करता है। इसकी ज्यादतियों में इस्लाम संप्रदाय के वजूद में आने से पहले वाले ऐतिहासिक स्थलों को नष्ट करना, अपनी धारणा से सहमति न रखने वाली या फिर गैर-मुस्लिम महिलाओं का इज्जत-हनन, गैर-मुसलमान को बेदर्दी से मारना , गैर-मुस्लिमों को दास बनाना और युद्धबंदियों को मार देना आदि हैं। जो भी लोग आईएसआईएल के लिए काम करने के बाद अपने देशों में वापिस लौटे, वे आगे अपने प्रवास वाले मुल्क में आतंकी गतिविधियों की धुरी बन जाते हैं।
यहां की क्षेत्रीय जटिलताएं फारसियों (ईरानियों) और अरब देशों के बीच सदियों से चली आ रही होड़ और वैमनस्य की वजह से ज्यादा बढ़ गई हैं। इस सांस्कृतिक विरोधता पर शिया-सुन्नी के बीच घातक वैर और भी अधिक मुल्लमा चढ़ा देता है। सीरिया में इन दिनों रूसी सेना द्वारा उन अमेरिका-हितैषी सुन्नी विद्रोहियों पर चकाचौंध भरी हवाई बमबारी देखने को मिल रही है, जिन्हें वैसे अमेरिका अपेक्षाकृत नरम विद्रोही बताता है। वहां पर संघर्ष में एक तरफ सचमुच धर्म-निरपेक्ष सरकार चला रहे बशर अल असद की वफादार सेनाएं हैं तो दूसरी तरफ वह गठबंधन है, जिसमें अमेरिका और इसके तथाकथित नरम पिछलग्गू हैं, जो सुन्नी वर्ग से संबंध रखते हैं और जिनका नेतृत्व सऊदी अरब, तुर्की और कतर कर रहे हैं और इसके मुख्यालय में ही अमेरिकी केंद्रीय कमान को जगह मिली हुई है।
सीरिया की समस्या का हल सैन्य रूप से नहीं निकाला जा सकता। असद सरकार को मौजूदा सत्ता केंद्रों से इतनी आसानी से नहीं हटाया जा सकता, खासकर तब जब उसे ईरान और रूस का समर्थन और मदद मिल रही है। ठीक उसी समय सीरिया और इराक में आईएसआईएल के ठिकानों पर जारी लगातार हवाई बमबारी उसे निराश तो कर सकती है लेकिन उसकी समर्था को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकती। जब तक आईएसआईएल मुख्य शहरी इलाके जैसे कि इराक में मोसूल पर काबिज रहेगा, यह एक शक्तिशाली गुट बना रहेगा। खासकर तब तक जब तक सीरिया में इसका विरोध करने वाले आपस में बिखरे और बंटे रहेंगे। फिर भी अगर आईएसआईएल को इसके इराक और सीरिया स्थित मजबूत ठिकानों से यदि खदेड़ भी दिया जाए तो यह लीबिया या अन्य जगहों पर सुरक्षित इलाके में चला जाएगा। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सभी क्षेत्रीय और बाहरी ताकतें पहले सीरिया में राजनीतिक स्थायित्व बनाने के वास्ते आपस में समझौता कर लें, जिसके लिए आवश्यकता है कि वहां एक ऐसा संघीय संविधान बनाया जाए जो सभी वर्गों और जातियों की आकांक्षाओं का सम्मान करता हो।
हालांकि भारत अपनी पश्चिमी दिशा में चल रही इस समस्या के केंद्र बिंदु से कुछ दूरी पर स्थित है। फिर भी विश्वभर में भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की प्रशंसा इस तथ्य के आलोक में बढ़ी है कि कम ही भारतीय आईएसआईएल में शामिल होने के लिए गए हैं। इसलिए इस मामले में आईएसआईएल कुछ अलग कर पाएगा, इस पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं बनता।