यूरोपियन यूनियन से मोहभंग की वजह

s.nihal singhएस. निहाल सिंह।
एक कटु अभियान के बाद ब्रिटेन द्वारा यूरोपियन यूनियन से बाहर होने की कवायद न केवल ब्रिटिश सांसद जो-कॉक्स के कत्ल का प्रतीक स्वरूप बनी बल्कि दुनिया भर की शेयर मार्किट में उत्तेजना का सबब बनने के अलावा इस 28 सदस्यीय संघ को अपनी स्थापना से लेकर आज तक पेश आई सबसे गंभीर चुनौती भी पेश कर गई। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पनपा वह आदर्शवाद जो आपस में लड़ रहे देशों को पास लाया था, उनमें अब नाटकीय बदलाव आ गए हैं।
यूरोपियन यूनियन से लिए गए अपने ‘तलाकÓ की प्रकिया को अगले दो साल में मूर्त रूप देते हुए ब्रिटेन को अब इस अलगाव से पैदा हुए हालातों से निपटने के उपाय भी ढंूढने हैं, खासकर साझे बाजार की सूरत में। इसके अलावा स्कॉटलैंड के अधिकांश बाशिंदों द्वारा यूरोपियन यूनियन में बने रहने के पक्ष में वोटिंग करने को इसे यूनाइटेड किंगडम से अपनी आजादी के लिए एक और अभिव्यक्ति मानकर इससे होने वाली संभावित घरेलू समस्याओं से निपटने के उपाय भी सोचने होंगे।यूरोपियन यूनियन के बाहर होने (ब्रेक्सिट) का निर्णय यूके की इंडिपेंडेंस पार्टी के समर्थकों के लिए जहां खुशी का प्रतीक है वहीं इसके नेता निगेल फारागे ने तो इस जनमत को आजादी दिवस तक घोषित कर दिया है। इससे उत्साहित होकर फ्रांस की नेत्री मैरिन ली पेन और नीदरलैंड के नेता गीरत विल्डर्स सरीखे दक्षिणपंथी नेता भी अपने-अपने देशों को यूरोपियन यूनियन से नाता तोडऩे के लिए मतदान करवाने की पैरवी करने लगे हैं।
इस प्रकरण के बाद ईयू के मुख्य सदस्यों जर्मनी और फ्रांस को पहल करते हुए इस संघ के जहाज को स्थिर करने के लिए जल्द-से-जल्द शिखर सम्मेलन बुलाकर अन्य सदस्यों को भरोसे में लेना चाहिए ताकि ब्रिटेन का यह काम कहीं छूत की बीमारी न बन जाए।
यूरोपियन यूनियन के सामने आज तीन तरह की मुख्य समस्याएं हैं: एक, यूरोप से अलग होने वाली ब्रिटेन जैसी प्रबल भावना का सामना, दूसरी है बड़े स्तर की त्रासदियां जैसे कि शरणार्थियों के सैलाब का मिल जुलकर सामना करने की कमी और तीसरी है सदस्यों में असमानता भरे रिश्तों के चलते एक साझी मुद्रा यूरो को समूचे तौर पर अपनाने की डांवांडोल नीव।एक केंद्रीय सवाल जो दो विश्वयुद्धों के बावजूद आज तक अनसुलझा है: वह है जर्मनी के बढ़ते प्रभाव को कैसे साधा जाए? वैसे तो फ्रांस जैसी ताकत के साथ मिलकर ब्रिटेन ईयू में एक संतुलन शक्ति का काम कर रहा था परंतु अब समीकरण बिगड़ जाएगा।
विडंबना यह है कि ईयू के कतिपय देशों में व्याप्त राष्ट्रवाद के उभरते जिन्न और इसके पिछले अवतारों को सिर उठाने से पहले ही दबा देना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, खासकर हंगरी और पोलैंड में राष्ट्रवाद और स्थानीयवाद की भावनाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। मुख्य सदस्य देशों में दक्षिणपंथी एवं ईयू-विरोधी रवैया एक सर्वव्यापी संकेत बनता जा रहा है। यह भी एक विडंबना है कि वही जर्मनी जो आज यूरोपियन यूनियन के नीति-नियंताओं में मुख्य भूमिका निभा रहा है वहीं राष्ट्रीय जर्मनी पार्टी का विकल्प बनाने के प्रयास इस वास्ते जोर पकड़ते जा रहे हैं क्योंकि चांसलर मार्केल ने विलक्षण भावना दिखाते हुए सीरिया के शरणार्थियों को अपने देश में बड़े स्तर पर शरण दी है।नीदरलैंड की ली पैन के नेशनल फ्रंट ने कभी भी ईयू-विरोधी रवैया दिखाने में कोई हिचक नहीं दर्शायी और अब उन्हें अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में अग्रणी उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है। इटली, यूनान और स्पेन में भी प्रचलित संस्थान-विरोधी दल और नेता बेहद सक्रिय हैं।
जिस आदर्शवाद से प्रेरित होकर यूरोपियन यूनियन की स्थापना की गई थी वह 2008 में आई मंदी और इसकी वजह से इसके ज्यादातर सदस्यों की आर्थिक रफ्तार बहुत धीमी रही है, वह अब गायब हो गई है। यूरोप के युवा समूचे महाद्वीप में कहीं भी वीजा-मुक्त भ्रमण और कामकाज करने की जो सुविधा उन्हें मिली है, उससे ईयू के प्रति आकर्षित रहे हैं। एक साझा बाजार होने से व्यापार को बढ़ाने के फायदे अलग से हैं। मगर राष्ट्रवाद के तीखे सुर यूरोपियन यूनियन जैसे संगठन की मूल भावना ही खत्म कर रहे हैं।
हाल के वर्षों में ईयू का सबसे ज्यादा शर्मनाक पक्ष इसके अधिकांश सदस्यों द्वारा मध्य-पूर्व के लाखों शरणार्थियों के बोझ को आपस में बांटकर उठाने से मनाही करने वाला कृत्य है। यह बोझ उठाने का दमखम एंजेला मार्केल ने दिखाया। हालांकि घरेलू स्तर पर उन्हें अपनी इस दरियादिली की राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ रही है।सभी बड़ी संस्थाओं की तरह ईयू में भारी-भरकम नौकरशाही व्यवस्था है जो अपने-अपने देश के हितों की रक्षा करने के लिए एक जिद्दी रवैया अख्तियार कर लेते हैं। यह काम नेतृत्व का है कि वह इसकी कार्यप्रणाली को सुचारू बनाए रखे। इस काम में जर्मनी को आगे आकर नेतृत्व करना होगा क्योंकि फिलहाल ईयू में सबसे ज्यादा सहायता देने में वही समर्थ है जबकि यूनान इस सूची में सबसे नीचे है। यूनान के मौजूदा आर्थिक संकट के अलावा उसकी उधार-ग्रस्त आर्थिकी को सुधारने की खातिर जर्मनी द्वारा सुझाए गए मितव्ययिता के उपायों की वजह से उसके खिलाफ काफी गहरा असंतोष व्याप्त है।शिखर सम्मेलनों में होने वाले बोसीदा और अंतहीन समझौतों का सिलसिला ईयू नागरिकों के उत्साह का कोई विकल्प नहीं है। इसके अलावा यूरोपियन यूनियन और नाटो संधि की समानांतर सदस्यता ने समस्याओं को एक नया मोड़ देते हुए उन्हें वैसा बना दिया है जैसा शीतयुद्ध काल मेें देखने के मिला करता था। रूस के उस आक्रोश को समझा जा सकता है, जिसमें पश्चिमी देश उसके पड़ोसी मुल्क यूक्रेन को बरगला कर अपने पाले में लाना चाहते हैं ।रूस के घटे रुतबे के बावजूद रूढि़वादी मान्यताओं में यकीन करने वाले यूक्रेन की जड़ें गहरे तक उससे जुड़ी हैं जहां इस देश का रूसीभाषियों से भरा पूर्वी भाग अभी भी रूस को अपनी मां समान समझता है जिसकी कोख से वह पैदा हुआ है। ‘मेड-इन-कीवÓ जैसी घटनाएं जिनसे इस देश की सत्ता बदल गई थी और अमेरिका की हल्लाशेरी पर यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन की ओर लालायित करने की कोशिशों का हश्र यह हुआ कि पूर्वी हिस्सों में बसने वाले रूस-हितैषी विद्रोहियों की मदद रूस ने करनी शुरू कर दी। आज भी वहां एक असहज शांति बनी हुई है। यूरोपियन यूनियन के लिए यह कोई समझदारी नहीं है कि वे यह मानने लगें कि रूस अपने पड़ोस में किसी ऐसे देश का होना स्वीकार करेगा, जिसके अधिकांश नागरिक मां-बोली रूसी से इतनी शिद्दत से जुड़े होने के बावजूद वह उसके पाले से बाहर हो जाएगा।
कुछ भी हो, पश्चिमी देशों के साथ रूस के रिश्ते एक उथल-पुथल वाले काल में प्रविष्ट हो चुके हैं जहां नाटो देश उसकी सीमा से सटे पोलैंड और बाल्टिक देशों जैसे बैचैन सदस्य मुल्कों में सैनिकों की संख्या बढ़ाने के अलावा वहां सैन्य उपकरणों का जमावड़ा बढ़ा रहे हैं। इस तरह के कारनामे भी यूरोपियन यूनियन की मूल भावना से अपना ध्यान भटकाते हैं।यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन के पलायन ने इसके सदस्यों को यह मौका प्रदान किया है कि वे एक बार फिर से अपने संगठन पर गौर करते हुए इसकी खामियों को दूर करने पर ध्यान दें ताकि वह फिर से अपने संस्थापकों की मूल स्वरूप की भावना के अनुसार बन सके ।