मी मराठी आहे: सड़कों पर उतरा लाखों का हुजूम

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मुम्बई। महाराष्ट्र में इन दिनों मराठा समाज का विरोध मार्च ख़ूब चर्चा में हैं. विभिन्न शहरों और ज़िलों में लाखों की संख्या में मराठा समाज के लोग इस मार्च में शामिल हो रहे हैं। ये सिलसिला नौ अगस्त से शुरू हुआ था. रैली का एक ही थीम है- एक मराठा, लाख मराठा! इनकी विशेषता है कि ये मोर्चे अनुशासित हैं, इनका सामूहिक नेतृत्व समाज के सामान्य लोग कर रहे हैं और इनमें नारे नहीं लगाए जाते। इन लोगों की चार प्रमुख मांगें हैं- कोपरडी में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के दोषियों को फांसी की सजा दी जाए, एट्रॉसिटी क़ानून की कथित खामियां दूर की जाएं, किसानों के हित में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं और राज्य में करीब 30 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी वाले मराठा समाज को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण मिले. विरोध का ये सिलसिला एक बलात्कार और हत्या के मामले से शुरू हुआ था लेकिन इसमें मराठा आरक्षण की मांग और एट्रोसिटी क़ानून का विरोध जुड़ गए हैं. लिहाजा राजनीति भी शुरू हो गई. महाराष्ट्र में मराठा आबादी 33 फ़ीसदी है और यहां के अधिकतर मुख्यमंत्री और राजनेता उसी समाज से रहे हैं. इस समाज का एक हिस्सा अपने अपने इलाकों में संपन्नता की मिसाल है. लेकिन दूसरी ओर इसी समाज का बड़ा तबका समस्याओं से जूझ रहा है.सूखे के जूझ रहे और खेती करने वाले अधिकतर किसान मराठा ही हैं. उनके सामने दिनों दिन परेशानियां बढ़ रही हैं. कर्ज का बढ़ता जाल, किसानों की आत्महत्याएं, सुशिक्षित युवाओं की बढ़ती संख्या और बेरोजगारी की समस्या, खेती की जमीन का कम होना, पैसों की कमी के चलते उद्योग धंधा नहीं कर पाना इन समस्याओं में शामिल हैं. इस विरोध मोर्चे के साथ शुरुआत से ही जुड़े औरंगाबाद के रवींद्र काले पाटिल का कहना है, कोपरडी के बलात्कार और हत्या की घटना के बाद से एट्रोसिटी क़ानून के कथित ग़लत इस्तेमाल के कई मामले सामने आए हैं. इनके ख़िलाफ़ मराठा समाज को इक_ा करने की कोशिश का नतीजा है विरोध प्रदर्शन. यह किसी के ख़िलाफ़ नहीं है.
पाटिल आगे कहते हैं, ओबीसी को बहुत कुछ मिल चुका है. दलितों को बहुत कुछ मिल चुका है. इसलिए अब यदि मराठों की बारी है तो इसका विरोध नहीं करना चाहिए. उनसे यही अपील करेंगे. दलितों और ओबीसी के मार्च का मराठो ने विरोध नहीं किया, लिहाजा अब मराठो का विरोध करना उचित नहीं है।
मराठा मोर्चा के जवाब में कुछ दलित नेताओं ने भी मोर्चा निकालने की बात कही है. इससे ओबीसी और दलित कार्यकर्ताओं के बीच संदेह का माहौल है. क्या यह सामाजिक आंदोलन की आड़ में छिड़ी आरक्षण की राजनीतिक लड़ाई है? पिछले 40 सालों में दलित समाज के आंदोलन से जुड़े पीपल्स डेमोक्रेटिक मूवमेंट के अशोक मेंढे का कहना है, मराठा मोर्चा के पीछे राजनीतिक साज़िश भी है, जिसके निशाने पर दलित और पिछड़ों का आरक्षण है. यह कोशिश है कि दलित समाज का विरोध हो, महाराष्ट्र में वातावरण बिगड़े और विवाद हो. मराठा मोर्चे के जरिए आरक्षण की एक और लड़ाई लड़ी जा रही है।