तीन साल बाद क्रांति की भ्रांति

हरीश खरे। कहते हैं 26 मई, 2014 को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में एक क्रांति का पदार्पण हुआ था। तीन साल बाद यह साफ जाहिर है कि उस आडम्बर को अभी फीका नहीं पडऩे दिया गया है। और तो और क्रांतिकारियों ने भी अपना जज्बा नहीं गंवाया है। क्रांति और उसके पुरोधा न तो थके हैं और न ही उनके कदम रुके हैं। अपने समय के महानतम प्रवचक के तौर पर प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा धुंधली भी नहीं हुई है। तिरुवल्लुवर के शब्दों में कहें तो उनकी वाणी का वरदान है।
राष्ट्र अभिभूत है। हमारी बेचैनियों और विषमताओं को उबाल पर रखा गया है। हम सब रुग्ण उदारवाद के साथ जीने लगे हैं। हमें यह मानने के लिए सम्मोहित कर दिया गया है कि हम कम भ्रष्ट और कुशल शासक के अधीन जी रहे हैं जबकि हम अपाहिज गांधियों के दिनों में जी रहे थे। हम पर निरंतर तथ्यों और किस्सों की बारिश हो रही है और मकसद है सक्षमता और उपलब्धियों का बोध पैदा करना। हमें सांस लेने की इजाजत नहीं दी जा रही है। हम एक संकट से दूसरे संकट की ओर धकेले जाते हैं और हमें उस हिंसा से राहत देने का बोध कराया जा रहा है जो हमें भयभीत कर सकती थी और उसके खिलाफ हिंसा की जा रही है।
इसमें कोई शक नहीं है कि नयी क्रांति में वह राजनीतिक ऊर्जा और लोकलुभावन जोश है जो अपने में अभूतपूर्व है और इसकी सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह राष्ट्र विमर्श पर कब्जा किए हुए है और हमारी सोच एवं हमारी अभिव्यक्ति पर उसका नियंत्रण है। इसने नयी संचार विधा और प्रौद्योगिकी पर महारत हासिल कर ली है। नतीजा एक अलग प्रकार की राष्ट्रीय विसंगति के तौर पर सामने आ रहा है। वही मीडिया जो कुछ साल पहले तक असहज सवाल पूछने और सत्ता को आईना दिखाने को अपनी मूल जिम्मेदारी मानता था, अब वही मीडिया पिछलग्गू हो गया है और सरकारी तंत्र के तौर पर दिख रहा है। रात-दर-रात टेलीविजन स्टूडियो में असहमति और असंतोष की आवाज को दबाया जा रहा है और जो लोग असहमति जताते हैं, उन्हें सरकार की ओर से साफ शब्दों में कहा जा रहा है कि अब झींकना बंद करिये। यह सबसे बड़ी उपलब्धि है और इसके लिए प्रकट रूप में किसी प्रकार की सरकारी धमकी का भी सहारा नहीं लेना पड़ा है। मीडिया को अपनी भूमिका को नये सिरे से तय करने के लिए मोहित कर लिया गया है। विपक्ष को शहर निकाला दे दिया गया है। आजादी के बाद से आज तक कभी किसी सरकार ने मीडिया को इस तरह अपने चंगुल में नहीं लिया था। आपातकाल के दिनों तक में नहीं।
इसके बावजूद तीन साल बाद क्रांति का चरित्र और दिशा बदल गई है। तनिक अतिशयोक्ति के साथ यह बात साफ तौर से कही जा सकती है कि क्रांति’ अब इंदिरा गांधी की उस विरासत के बीच लड़ाई तक सिमट गई है जो उनके जैविक पौते राहुल गांधी और असल राजनीतिक उत्तराधिकारी नरेंद्र मोदी के बीच लड़ी जा रही है।
क्रांति की दिशा बिहार के मतदाताओं ने 2015 के आखिर में बदल दी जब उन्होंने मोदी लहर पर अंकुश लगा दिया था। अचानक वह शख्स जिसे भारतीय तंग शियाओ फिंग कहा जा रहा था, वह रास्ते से भटक गया। जब बिहार के मतदाताओं ने मोदी गर्द को बैठा दिया तो सुधार का एजेंडा हाशिये पर कर दिया गया। हालांकि अब भी फिक्की और एसोचैम चारण गीत गाए जा रहे हैं, शायद उन्हें आदत-सी पड़ गई है।
गलती कतई मत करना। क्रांति के तीन साल बाद भारत में सत्ता पूरी ताकत के साथ वापस आयी है। उसमें वही इंदिरा गांधी काल के स्तालिनी आवेग हैं। सत्ता और उसका सत्तावान तंत्र नागरिकों के टेंटुए पर उंगली जमाए हुए है और वह बेहद भीतर तक घर कर गया है। नयी क्रांति के कार्यकलाप में इंदिरा गांधी के तीन तत्व एकदम बहाल हो चुके हैं।
पहला, उस गरीब को तलाश लिया गया है, जिसकी खोज कभी 1969 के आसपास हुई थी। विमुद्रीकरण के बाद जो महा-अराजकता पैदा की गई, उसे गरीबपरस्ती के ऐसे दामन में संजो दिया गया है, जिसे इंदिरा गांधी तक की अनुमति मिल गई होती। वे सभी जो कभी सोचा करते थे कि कार्पोरेट संकल्पना और आविष्कारी मार्केट से आर्थिक जड़ता और बेरोजगारी के समाधान खोजे जाएंगे, आज वे सभी चुपचाप होकर देख रहे हैं कि शासन किस तरह गरीबों की व्यथा को हल करने की जिम्मेदारी निभाने का आडंबर कर रहा है। यह गरीबी हटाओ की छाया है। इंदिरा भक्तों ने इस बात से संतोष कर लिया है कि 2014 की क्रांति का मतलब कल्याणकारी राज की समाप्ति नहीं है।
दूसरे, इंस्पेक्टर और उसकी छड़ी पूरी ताकत के साथ वापस आ गई है। काले धन को बाहर करने के नाम पर छापा राज वापस आ चुका है। वीपी सिंह के वित्तमंत्री के तौर पर संक्षिप्त समय की तर्ज पर सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के छापों को जश्न के तौर पर पेश किया जा रहा है। लोगों को बताया जा रहा है कि वे टैक्स दें या आयकर के आदमी का स्वागत करने को तैयार रहें। लोगों को शासन के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए प्रेरित करने के बजाय एक वसूली की मानसिकता काम कर रही है। और जहां कानूनी तंत्र काम नहीं आता वहां हिंसक भीड़ है जो नये पूर्वग्रहों और प्राथमिकताओं को लागू करने के लिए तत्पर है। शासन ने संस्कृति और समाज जीवन की प्रत्येक गतिविधि पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया है। सत्ता अधिक ताकतवर, अधिक दमघोटू और अधिक तिकड़मी हो चुकी है।
और तीसरा, इंदिरा गांधी का वही राष्ट्रवादी मंत्र हावी हो गया है जो हमारी भावनाओं और वफादारी से सब कुछ चाहता है। हमारे राष्ट्रवाद को पाकिस्तान विरोध के मंत्र में ढाल दिया गया है। इस्लामाबाद और रावलपिंडी के उथले और मूर्ख लोग हमारे इस नये विवेकबोध को ईंधन दे रहे हैं। इंदिरा गांधी हमारे लिए ऐतिहासिक आदर्श के तौर पर पेश की जा रही हैं। अगर हमारे वर्तमान नेता इंदिरा गांधी को ऐसे एकमात्र हिंदू शासक के तौर पर पेश करें, जिसने मुस्लिम दुश्मन को निर्ममतापूर्वक कुचल दिया था तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी तक ने उन्हें दुर्गा’ कहकर पुकारा था। वर्तमान के तारणहारों के लिए इतिहास का अपना प्रलोभन होता है।
और ठीक इंदिरा गांधी की चाहत की तरह ही इन मंत्रों का इस्तेमाल एकाग्र मन से निजी राजनीतिक एकाधिकार और वर्चस्व के लिए किया जा रहा है। निजी राजनीतिक वर्चस्व की ललक हमेशा ही गैर-वैचारिक, व्यावहारिक और कुटिलपूर्ण अस्पष्टता लिए होती है। शुद्धतावादी भले ही मारग्रेट थैचर जैसी वैचारिक सुस्पष्टता के अभाव का विलाप करते रहें पर वर्चस्ववादियों के दिमाग में अपने मकसद और दिशा को लेकर कोई शक नहीं है। उन्हें निजी तौर पर अधिकतम सत्ता चाहिए ताकि सुव्यवस्थित और स्थिर शासन कायम रहे।
एक राजनीतिक नेता खुद को ऐसे रूप में परिभाषित करता है कि उसका शासन किसलिए याद रखा जाए और उसका सच्चा दुश्मन कौन हो। मोदी क्रांति खुद को गांधियों की खिलाफत पर कायम रखने पर आमादा है और इसके लिए उसे नैतिक और आध्यात्मिक श्रेष्ठता चाहिए, उसी इंदिरा गांधीवादी तंत्र के खिलाफ ताकि वह इंदिरा गांधी की सच्ची विरासत पर दावा कर सके। और इसी खोज में छिपे हैं इसी क्रांति के बिखराव के बीज।