ओस चाटने से प्यास नहीं बुझेगी

नंद लाल वर्मा। कोविड-19 की एक माह की आर्थिक मार से ही पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाली देश और प्रदेश की बीजेपी शासित सरकारें पस्त और निढाल होकर कर्मचारियों के कई प्रकार के भत्तों पर गाज गिराने पर उतारू और मजबूर हो गई हैं।इससे पूर्व डी ए सीज करते हुए मार्च माह के वेतन से एक दिन का वेतन भी काटकर कोरोना राहत कोष में ले लिया गया।विधायकों और सांसदों के भत्तों में कटौती करना तो दूर, कोरोना काल में भी उनमें इज़ाफ़ा किया जाना कितना न्यायोचित और न्यायसंगत प्रतीत होता है। जनता को सरकार के इस सौतेले व्यवहार और दोहरे चरित्र और मानदंड को समझना चाहिए।
सरकार को राजनीतिक और संस्थागत भ्रष्टाचार और अनुत्पादक सरकारी खर्चों पर नियंत्रण की प्रभावी कार्रवाई करना चाहिए।केवल वेतन पर आधारित कर्मचारियों के भत्तों की कटौती के बल पर पर्याप्त अर्थ प्रबंधन का सपना देखना बड़ी बेईमानी होगी और यह रकम ऊंट के मुंह में जीरा के अलावा कुछ साबित नहीं कर सकती।यह कार्रवाई बाल उखाडऩे से मुर्दा हल्का नहीं होता की कहावत को चरितार्थ करने जैसा ही होगा। क्या कोराना मार की सारी आर्थिक गाज वेतन भोगी कर्मचारियों पर ही गिराने से वित्त प्रबंधन संभव है? विकास कार्यों में नीचे से लेकर ऊपर तक कमिशन प्रवाह में ईमानदारी पूर्वक हो रहे बटबारे पर भी ध्यान देने की जरूरत है।सरकारी दफ्तर में काम करने वाले चपरासी से लेकर कलेक्टर तक की वेतन के अतिरिक्त जितनी ऊपर और नीचे से कमाई होती है, केवल वेतन पर निर्भर कर्मचारी उसका एक चौथाई भी नहीं पाता है और उसे इस कमाई पर आयकर अलग से नहीं देना पड़ता है।सरकार से विनम्रतापूर्वक आग्रह करना चाहता हूं कि इन भत्तों को हमेशा के लिए समाप्त किए जाने के निर्णय के बजाय,कोरोना काल तक स्थगित किए जाने पर एक बार कर्मचारियों के हित में विचार करे। कोरोना महामारी के बहाने केंद्र सरकार की तर्ज पर सारे भत्ते खत्म करना कतई न्याय संगत नहीं है।क्योंकि,केंद्र और राज्य सरकार में अंतर होता है। हम जैसे लोगों को तो डी ए और एच आर ए के साथ मात्र दो सौ रुपए प्रति माह सी सी ए के अलावा अन्य किसी भी प्रकार का भत्ता अनुमन्य नहीं था।एक परिवार नियोजन संबंधी जो भत्ता मिलता था,उसे तो पूर्व में ही बन्द किया जा चुका है।सरकार में बैठे लोगो को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कर्मचारियों के छोटे-मोटे भत्तों की कटौती(ओस चाटने)से खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का प्रबंधन और कोरोना की दीर्घकालीन/बेमियादी प्यास बुझाने का सपना पूरा नहीं होने वाला।सरकारी राजस्व के भयंकर लीकेज को बन्द करने की कोई सार्थक और ठोस नीति बनाकर ही इस तरह के अप्रत्याशित,अनिश्चित और असीमित अर्थ संकट पर काबू पाया जा सकता है।
राजनैतिक दलों के कोष में अधिकांश वह पूंजीपति या नौकरशाह वर्ग ही धांसकर चंदा देता है जो सरकार की योजनाओं और नीतियों से जी भरकर अनुचित और अवैध तरीके से बेधडक़ अथाह लाभ कमाकर चंद दिनों में ही अरबपति और खरबपति बन जाता है।आम जनता की भूमिका सरकार चुनने में महत्वपूर्ण होती है, तो जन सूचना के अधिकार क्षेत्र से बाहर इन पार्टियों के पास जमा अथाह कोष पर क्या आम जनता का इस तरह की सर्वव्यापी आपदा में भी कोई अधिकार नहीं बनता है? कर्मचारियों के छोटे-मोटे भत्तों की गर्दन पर बेरहमी से छुरी चलाने की बजाय,क्या ऐसे संकट की घड़ी में इन दलों और मंदिरों में पूंजीपतियों/ जनता के पैसों से बने अथाह कोषों का उपयोग नहीं किया जा सकता है?देश की राजनीतिक पार्टियों,भ्रष्ट नौकरशाह और मंदिरों/मस्जिदों/गुरुद्वारों या अन्य धार्मिक/आध्यात्मिक मठों/आश्रमों में इतना पैसा जमा होने की खबरें आती रहती हैं कि देश की सरकार बिना किसी अन्य राजस्व/कर/ऋण प्राप्ति से भी इस अनुत्पादक जमा राशि से देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था कई वर्षों तक निर्बाध गति से चल सकती है।सरकार को उस ओर सख्ती से ध्यान देने और कानूनी रूप से वित्त जुटाने की आवश्यकता है जहां अतिरिक्त और अनुत्पादक रूप में अथाह पैसा तहखानों और विदेशों में काला धन जमा है। सरकार देश के भीतर और बाहर जमा काला धन महामारी के बहाने निकालकर अपने 2014 के चुनावी वादे को पूरा कर जनता की विलुप्त सहानुभूति को भी बटोर सकती और देश की आम जनता पर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ेगा। सरकार को नई नीति बनाकर मठों,मंदिरों,आश्रमों या किसी भी प्रकार के अन्य प्रतिष्ठान जहां जनता का पैसा दान स्वरूप लिया जाता है,उस पर भारी कोरोना टैक्स लगाकर संकट काल में सफलता और सरलता पूर्वक अर्थ प्रबंधन किया जा सकता है।
यूपी के अधिकांश जिलों में गन्ना किसानों का पैसा दबाए बैठी चीनी मिलों द्वारा और सरकार/स्थानीय प्रशासन की उस पर बरती जा रही लगातार उदासीनता/मज़बूरी और साठा धान की खेती पर सरकार द्वारा पाबंदी लगाकर किसानों की आर्थिक कमर और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ पहले ही कमजोर की जा चुकी है।म्यूचुअल फंड और अन्य उद्योगों को दिए जा रहे भारी भरकम आर्थिक पैकेजों के साथ कोराना काल में भी हार न मानने वाला वर्ग किसान के लिए भी किसी बड़े आर्थिक पैकेज की दरकार है।यदि ऐसा नहीं हो सकता है तो कम से कम सबका साथ,सबका विकास और सबका विश्वास के मूल मंत्र को साकार करते हुए सरकार कम से कम उसकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य और गन्ना मिल मालिकों द्वारा लंबे समय से दबाए जा रहे उसके गन्ना मूल्य का भुगतान कानूनन चौदह दिनों में ही कराना सुनिश्चित करा दे अन्यथा प्रवासी मजदूरों की गांवों में भारी संख्या में हो रही वापसी से उत्पन्न अप्रत्याशित बेरोजग़ारी की विकराल समस्या से निपटना आसान नहीं होगा।जब तक खेत खलिहान में काम करने वालों की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होती है तब तक देश की अर्थव्यवस्था मजबूती के साथ खड़ा करने का सपना पालना देश की आम जनता के साथ बड़ी बेईमानी मानी जाएगी।