राजस्थान में अनिश्चय का अंधेरा छंटे

ललित गर्ग। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एवं उपमुख्यमंत्री सचिन पायलेट के बीच मचा सियासी घमासान लम्बा होता जा रहा है, दोनों नेताओं के बीच के आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह लोकतंत्र की बुनियाद को गहरा आघात पहुंचा रहे हंै। दोनों ही राजस्थान की सर्वोच्च राजनीति के संचालन के अगुओं में ये तीनों स्थितियां चरम स्थिति में पहुंच गयी है, जिसका नुकसान राजस्थान की जनता को झेलना पड़ रहा है। इन दोनों के बीच के संघर्ष ने कांग्रेस की छवि को भी नुकसान पहुंचाया है। गहलोत के अपरिपक्व एवं नासमझसी के बयानों ने उनके राजनीतिक कौशल एवं सुदीर्घ राजनीति अनुभवों को धुंधला किया है, दूसरी ओर सचिन पायलट की अगुआई में कांग्रेस के एक धड़े ने अपने असंतोष को सार्वजनिक करते हुए राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की मांग की है, तभी से प्रदेश की गहलोत सरकार की वैधता पर संदेह जताया जा रहा है। राजस्थान कांग्रेस का यह भीतरी संकट अब दरअसल भारतीय लोकतंत्र का संकट बन चुका है।
गहलोत एवं पायलेट के बीच के राजनीतिक झगड़े की वजहें चाहे जो भी रही हों और इसके लिए चाहे जिसे भी जिम्मेदार ठहराया जाए, लेकिन इसके कारण प्रदेश की निर्वाचित सरकार अनिश्चय, अनिर्णय और असमंजस की स्थिति में फंसी हुई है। वह भी ऐसे समय, जब न केवल देश के तमाम राज्यों में बल्कि औरों के पहले से राजस्थान में कोरोना ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर रखा है, आमजनता समस्याओं से जूझ रही है, जीवन ठहरा हुआ है, स्वास्थ्य संकट चुनौती बना हुआ है। सरकारें, प्रशासनिक और स्वास्थ्य तंत्र अपनी पूरी ताकत लगाकर भी हालात को काबू में नहीं ला पा रहे हैं, यह समय राजनीतिक स्वार्थों का नहीं, बल्कि अपने राजनीतिक कौशल से जन-समस्याओं को सुलझाने एवं उनके लिये राहत बनने का है। लेकिन राजस्थान की चुनी हुई सरकार एवं उसके नेता अपने राजनीतिक धर्म को भूल कर आपस में झगड़ रहे हैं, दोनों धड़े परस्पर विरोधी दावे कर रहे हैं। पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने पार्टी छोडऩे की बात अब तक नहीं कही है, इसलिए इसे कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा ही माना जाएगा। इसके लिये कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की अपरिपक्वता, अनिर्णय की स्थिति एवं नेतृत्व की ढि़ली पकड़ भी सामने आ रही हैं। राजस्थान में कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने में भाजपा की भूमिका जैसे आरोपों में भी सचाई दिखाई नहीं देती, कांग्रेस अपनी नाकामयाबियों को छुपाने के लिये भाजपा को बदनाम करती हुई दिखाई दे रही है। क्योंकि जो कुछ हो रहा है, वह कांग्रेस पार्टी के अंतर्कलह का नतीजा है। कांग्रेस दो खेमों में बंटी हुई है। गहलोत कांग्रेस पार्टी में नए लोगों को बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं। राजस्थान की जनता ने जिस व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी का दावेदार मानते हुए मतदान किया था, उसे दरकिनार करके गहलोत पिछले दरवाजे से सत्ता पर काबिज हो गए।
प्रदेश कांग्रेस की इन विषम एवं विसंगतिपूर्ण स्थितियों के लिये किसी अन्य दल को कैसे दोषी ठहरा सकता है? कांग्रेस के नौजवान जमीनी नेता जिस तरह पार्टी की कमजोर नीतियों के कारण एक-एक कर किनारा करते जा रहे हैं या फिर राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेले जा रहे हैं, क्या इसके बावजूद कांग्रेस बेहतर भविष्य के सपने देख सकती है? कांग्रेस को अपनी कमियों के लिये दूसरों पर दोषारोपण से बचना चाहिए और अपने घर को दुरुस्त करना चाहिए।
कोरोना एवं अन्य संकटकालीन स्थितियों के कारण राजस्थान में सर्वाधिक चैकस सरकार की जरूरत है, तब यह प्रदेश राजनीतिक अनिश्चय एवं राजनीतिक अंधेरों का शिकार बना हुआ है। जाहिर है, देश और प्रदेश दोनों का हित इसी में है कि दोनों पक्षों के दावों को एक तरफ रखकर जल्द से जल्द बहुमत परीक्षण करवाया जाए, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। अच्छी बात यह है कि देश में इस बात पर सर्वसम्मति बन चुकी है कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला दावों और जवाबी दावों, या फिर विधायकों की परेड के आधार पर नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर ही हो सकता है और यह लोकतांत्रिक गरिमा के अनुरूप् भी है।
देश के लोकतांत्रिक इतिहास में संभवत: यह पहला मौका है जब एक मुख्यमंत्री विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को उजावला नजर आ रहा है, पर एक के बाद एक तकनीकी एवं राजनीतिक अड़चनें खड़ी हो रही है, जिससे बहुमत परीक्षण में विलम्ब हो रहा है, लेकिन इसी रास्ते से अनिर्णय के धुंधलकों को दूर किया जा सकता है, जो हमें तेजी से आगे बढऩे का रास्ता भी देंगे। लेकिन राजनीति में लगे लोगों में जब मसलों की गहराई तक जाने का धैर्य और गंभीरता चुक जाए, व्यक्तिगत स्वार्थ हावी हो जाये तो इसके मंच के संवाद पहले निम्न दर्जे तक गिरते हैं और फिर कीचड़ को ही संवाद का विकल्प मान लिया जाता है। इन दिनों राजस्थान में यही हो रहा है। एक तरफ मुख्यमंत्री पर मानसिक संतुलन खो देने, और उन पर मानसिक दीवालियेपन के आरोप लगाये जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री भी अतीत को खंगालते हुए सचिन की नादानियों को कठोर एवं कड़वे शब्द देकर उनकी छिछालेदार कर रहे हैं।
यह सब उस दौर में हो रहा है जब कांग्रेस के राजनीतिज्ञ धीरे-धीरे अपनी साख खोते जा रहे हैं। राजनीतिज्ञों की साख गिरेगी, तो राजनीति की साख बचाना भी आसान नहीं होगा। हमारे पास राजनीति ही समाज की बेहतरी का भरोसमंद रास्ता है और इसकी साख गिराने वाले कारणों में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के बाद तीसरा नंबर इस कीचड़ उछाल का भी है। ये तीनों ही राजनीति के औजार नहीं हैं, इसलिए राजनीति को तबाही की ओर ले जाते हैं। अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का मामला काफी गहरा है और इससे लड़ाई के लिए काफी वक्त और ऊर्जा की जरूरत है, लेकिन कीचड़ उछाल से परहेज करके और सार्थक बहस चलाकर देश की राजनीति का सुधार आंदोलन शुरू किया जा सकता है। राजनैतिक कर्म में अपना जीवन लगाने वालों से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए।
राजस्थान में राजनीतिक शुभ को आहत करने का संग्राम छिड़ा है। सत्तर वर्ष के लोकतंत्र के बावजूद साफ राजनीतिक चरित्र जन्म नहीं ले सका। उसका बीजवपन नहीं हुआ या खाद-पानी का सिंचन नहीं हुआ। यही कारण है आज आग्रह पल रहे हैं -पूर्वाग्रह के बिना कोई विचार अभिव्यक्ति नहीं और कभी निजी और कभी दल स्वार्थ के लिए दुराग्रही हो जाते हैं। कल्पना सभी रामराज्य की करते हैं पर रचा रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न श्रीकृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला। जब देश संकट में है हमारे कर्णधार स्वार्थ एवं सत्ता के लिये लड़ रहे हैं, कहीं टांगें खींची जा रही हंै तो कहीं परस्पर आरोप लगाये जा रहे हैं, कहीं किसी पर दूसरी विचारधारा का होने का दोष लगाकर चरित्रहनन किया जा रहा है। सभी दुराग्रही हो गए हैं। विचार और मत अभिव्यक्ति के लिए राजनीति आग्रह-दुराग्रह से ग्रसित होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ही जुटी हैं। दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा बन ही नहीं रही है। सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उल्ट धारणा (विपथगामी) की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है। ये आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह राजस्थान के शुभ को आहत करने वाले हैं।