लाल झंडा और लालटेन का भय दिखाने में एनडीए कितना कामयाब होगी

मुरली मनोहर श्रीवास्तव। बिहार की सियासत में कभी धमक रखने वाली या यों कहें की विपक्षी की भूमिकानिभाने वाली वामपंथ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जहां महागठबंधन काहिस्सा बनकर 29 सीटों पर अपनी जोर आजमाइश कर रही है। वहीं एनडीए जोकि शुरुआती दौर से वामपंथ की नीतियों से दूरी बनाकर रखने वाली ने बिहार मेंवोटरों को भय से अवगत कराना शुरु कर दिया है। उनके कार्यशैलीपर सवाल उठाने लगी है। उनकी सत्ता के साथ सहभागिता से क्या-क्या स्थितियांउत्पन्न हो सकती हैं बीते कल के साथ आज को जोडक़र दिखाने लगी है। लेकिन इसबात को वामपंथी को भी नहीं भूलना चाहिए कि ये वही राजद है जिसने वामपंथ केवजूद को मिटाने का काम किया था। कभी जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लडऩे वालेलाल झंडादारों की रणनीति लालू के सत्ताकाल में फलता रहा और इनकीआपराधिक छवि उभरकर सामने आयी थी। मगर इधर 15 वर्षों के शासनकाल मेंयानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ता संभालते ही बिहार से वामपंथ का आधारबिखर गया।
बिहार की वामपंथी पार्टियां एक बार फिर से राजद के साथ चुनावी मैदान में
अस्तित्व को कायम करने निकली है। राजद ने सीपीआई को 6, सीपीएम को 4,सीपीआईएमएल को 19 सीटें देकर इनके मनोबल को बढ़ाते हुए अपनी राजनीतिकसियासत को साधने की कोशिश में है। वहीं अगर महागठबंधन के बड़े सहयोगी दलकांग्रेस की बात करें तो उसे भी 70 सीटें दी गई है। हलांकि इस तरह सीटों केबंटवारे के पीछे एक ही तर्क है कि किसी भी स्थिति में वामपंथी पार्टियां और कांग्रेसने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए स्वीकार किया है। इसबात में भी दम है कि लालू प्रसाद के सत्ता में आने के साथ ही वामपंथी वोटरों काबड़ा बिखराव हुआ और उनके वोटरों को एमवाई समीकरण के साथ लालू साधने मेंसफल हुए। नतीजा लालू 15 वर्षों तक सत्ता पर बने रहे। जिस वामपंथ को हाशिएपर लालू ले आए थे उनके पुत्र तेजस्वी डूबते नाव के पतवार बन गए हैं। 70 केदशक में बिहार में वामपंथी पार्टियां मजबूत स्थिति में थी। बिहार विधानसभा मेंसीपीआई 1972 से 77 तक मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में भी रही थी। 1977में कर्पूरी ठाकुर मे बिहार में पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देनेका फ़ैसला किया। हलांकि उसके बाद मंडल कमिशन लागू हुई। जगन्नाथ सरकारबिहार में सीपीआई (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया) के संस्थापकों में से एक रहे।1989 में लोकसभा चुनाव से पहले वीपी सिंह के जनता दल ने सीपीआई सेगठबंधन किया था।
बिहार में भाजपा एक बार फिर से लाल झंडा का भय दिखाकर मगध क्षेत्र के वोटरोंको गोलबंद करने में जुटी है। पार्टी की यह रणनीति में शामिल है कि ‘लाल झंड़ा’की चर्चा हो ताकि लोग पुराने दिनों की खौफ को याद कर सकें और उससे दूर हीरहें और इसका लाभ भाजपा-जदयू को हो सके। इसको लेकर भाजपा ने तो कामशुरु भी कर दिया है। जहां भाकपा माले के उम्मीदवार हैं उन इलाकों में कार्यकर्ताओंको खास तरीके से काम करने की भाजपा ने विशेष जिम्मेदारी को लेकर हिदायतदी है। मध्य और दक्षिण बिहार के मतदाताओं में भाजपा को लेकर भारी आक्रोश है।भाजपा के परंपरागत वोटर अब तक भाजपा से खासे नाराज हैं। पार्टी ने इसनाराजगी को भांपते नई चाल चली है। भाजपा नेता कह रहे हैं कि यह कैसागठबंधन है ? भाजपा कह रही कि,जो माक्र्सवादी-लेनिनवादी दल केवल वर्ग-संघर्षको ही समाज की रचना बदलने का रास्ता मानते हैं, उनके साथ राजद का, कहें तोकांग्रेस का गठबंधन है। आखिर इनकी ये कैसी राजनीति है। सीपीएम नेता भगवानप्रसाद सिन्हा का मानना है कि मोदी को हम चुनौती तेजस्वी यादव के नेतृत्व मेंनहीं दे सकते, क्योंकि इनके पास कोई सोच नहीं है। मोदी को चुनौती देने के लिएसमझ वाले नेतृत्व की जरुरत होगी।अगर हम बिहार की राजनीति की बात करें तो बिहार-झारखंड के बंटवारे के पहलेऔर वर्तमान राजनीति में बहुत बड़ा अंतर सामने आया है। हलांकि इन दोनों राज्योंके बंटवारे में लालू की भूमिका अग्रणी मानी जाती है। अलग होने के बाद बिहारड्राई प्रदेश हो गया लेकिन नीतीश के नेतृत्व में बिहार अंधकार से बाहर निकलकरआयी। लालू और नीतीश के उभरने के साथ वामपंथी पार्टियां हाशिए पर आतीचली गई। लालू जनता दल में आने के साथ ही वामपंथी पार्टियों को कमज़ोर करनेकी कवायद शुरु कर दी। इसका नतीजा रहा कि 1990 के विधानसभा चुनाव मेंआईपीएफ़ को सात विधानसभा सीटों पर जीत हाशिल हुई। 1993 में लालूआईपीएफ़ के तीन विधायकों भगवान सिंह कुशवाहा, केडी यादव और सूर्यदेव सिंहको तोडऩे में कामयाब रहे। आपको बता दूं कि भगवान सिंह कुशवाहा तो भोजपुरके चर्चित नक्सली नेता जगदीश मास्टर के दामाद हैं। हलांकि भगवान सिंहकुशवाहा तो नीतीश के भी साथ आए मगर इनकी दाल नहीं गली तो लोजपा केसाथ हो लिए और जगदीशपुर से लोजपा की सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं। बिहार मेंभाजपा के ख़िलाफ़ राजद के नेतृत्व में बना गठबंधन अपने विरोधाभासों से मुक्तनहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति में ये विरोधाभास कोई नया नहीं हैं। अब ऐसे मेंदेखना ये दिलचस्प है कि बिहार में लाल झंडा की स्थितियों से वोटरों को अवगतकराने के बाद एनडीए को इसका कितना फायदा होगा।