जयंती विशेष: नाटककार भिखारी ठाकुर

दीपक शर्मा। नाटक की शर्त यह होती है कि उसे रंगमंच पर प्रस्तुत करने पर वह दर्शकों को कितना प्रभावित करती है। लोक साहित्य में नाटकों का बहुत लम्बे समय तक अभाव रहा है। कुछ किस्से-कहानियों के रूप में यहाँ राजा-रानियों की कथाएँ जरूर मिलती है लेकिन आम जनमानस की पीड़ा गाने वाले कवि-लेखक साहित्य प्राय: नहीं मिलता है। मध्यकाल में ब्रज व अवधी में पूरा साहित्य लिखा गया, जिनमें सबसे मुखर कवि कबीर की थी। फिर भी नाटक के द्वारा समाज को जगाने वाला कवि कोई नहीझ था। आधुनिक युग में हिंदी साहित्य में जब भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर नाटक लिखकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर रहे थे। तब भारतीय समाज पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ता था। इसके अतिरिक्त उनके नाटक मे प्रहसन और राष्ट्र-प्रेम भी शामिल था। उनके दो-तीन दशक बाद नाटक की ऐसी ही मर्माहट लोक-साहित्य में भिखारी ठाकुर के यहाँ देखने को मिली। जिनके पास न तो नाटक की कोई शास्त्रीय विद्या थी, न ही किसी प्रकार की एकेडमिक उच्च शिक्षा बस उन्हें किसी प्रकार से अक्षर ज्ञान हो गया और वे उसके सहारे नाटकीय मंच-कला में जबरदस्त परिवर्तन ला सकने में सफल हुए। भिखारी के पास अपनी नाटकीय कला व शैली थी। उन्हें नाटक खेलने के लिए किसी भवन, सभागार और विशेष साज-सामान की आवश्यकता न थी। उनकी आवाज व कला में इतनी ताकत थी कि वे खुले मंच पर पच्चीस-पचास हजार लोगों को एक साथ सम्मोहित करने में सक्षम थे। वे नाटक के अभिनेता निर्देशक, सूत्रधार सबकुछ थे, फिलहाल लेखक तो थे ही।
भिखारी ठाकुर नाई जाति के अति-पिछड़े वर्ग से आते थे। समाज उन्हें अपने बराबर का दर्जा नहीं देता था, वे आरम्भ में अपनी जातिगत पेशा हजाम का काम करते थे, बचपन से ढोर चराते थे। ढोर चराते हुए गीत गाते व क्षेत्रीय रामलीला का नकल करते थे, माँ-बाप को बिना बताये नाच देखने चले जाते थे, पता चलने पर इसके कारण उन्हें घर पर डांट भी पड़ती थी। माँ सरस्वती की कृपा से भिखारी को मधुर कंठ प्राप्त था, धीरे-धीरे उन्हें नाचने की भी कला आ गयी। नाचना-गाना उस समय के समाज के लिए अमर्यादित कार्य था, यह काम इज्जतदार लोग करने से बचते थे। ऐसा करने से लोग उन्हें विरादरी से बाहर कर देते थे परिवार में शादी के रिश्ते आने बंद हो जाते थे। किंतु भिखारी ने इन सारी अमर्यादाओं को तोड़ा और समाज के विभिन्न मुद्दों पर खूब लिखा, अपनी मंडली तैयार की एवं समाज के विभिन्न कार्यक्रमों में प्रस्तुत किया। वे समाज के तमाम कुरीतियों, विसंगतियों एवं समस्याओं पर लिख रहे थे तथा सभाओं में नाटकीय कला के माध्यम से खेल रहे थे। इन्होंने अपने नाटक ज्यादातर पिछड़े व अति पिछड़े लोगों के बीच खेला। उनके नाटक में सबको अपने घर-परिवार व जीवन की समस्याएं दिखाई देती थी , इसलिए लोगों ने भिखारी को खूब पंसद किया । बाद में बड़े-बड़े बाबू-बबुआन भीअपने कार्यक्रमों में भिखारी को बुलाने लगे, कभी-कभी उनके यहाँ चार-पाँच सट्टे एक दिन के लिए एक साथ आ जाते थे, उनके लिए निर्णय लेना कठिन हो जाता था कि वे किसके यहाँ जाएँ किसको मना करें, जिसे मना करते वो नाराज हो जाता था। किंतु भिखारी बहुत विनम्रशील स्वभाव के थे। वे किसी तरह नाराज होने वाले को मना लेते थे।

   उस समय के समाज में पलायन की बड़ी समस्या थी, लोग रोजगार के लिए कलकत्ता या मुम्बई चले जाते थे, वे वहाँ पर रहते-रहते दूसरी शादी कर लेते थे या काफी वर्ष बाद घर लौटते थे।  घर पर उनकी पत्नी को जीवन की तमाम समस्याएं झेलनी पड़ती और उन्हें कई बार समाज की कटु अनुभवों से भी गुजरना पड़ता था। विदेशिया (बहरा बहार)  और गबर घिचोर नाटक इन्हीं समस्याओं पर आधारित नाटक है। इस नाटक में भिखारी जी ने एक ऐसी स्त्री को परिवार में जगह दी है जिसे हमेशा से घृणित व तिरष्कृत निगाह से देखा जाता रहा है, नाटक में उन्होंने उन्हें रंडी शब्द से ही सम्बोथित किया है, रंडी से उनका तात्पर्य उपेक्षा या गाली नहीं है,  उस समय के समाज के प्रचलित शब्द को उन्होंने वैसे ही रख दिया है।  पहले लोग पैसे के लोभ में अपनी कम उम्र की बेटियों को किसी बुजुर्ग व्यक्ति से व्याह देते थे,  वह बेटी न तो यौन सुख प्राप्त कर पाती थी न ही जीवन का। वह जीवित रहने तक पति की सेवा करती है,  फिर परिवार की। दु:ख तकलीफ मे मायके में भी उन्हें शरण नहीं मिलता।  ऐसे लोगों को बेटी बेचवा कहा जाता था। इस प्रकार की समस्या को लेकर भिखारी जी ने बेटी वियोग और विधवा विवाह नाटक लिखा। यह नाटक कुछ लोगों के भीतर तक मर्माहत किया तो कुछ लोग भिखारी को गाली-गलौज करने लगे।  क्योंकि इस नाटक में किसी के जीवन की पीड़ा थी तो किसी के कुकृत्यों पर करारा चोट।  भिखारी के 'भाई विरोध' नाटक में एक कुटनी की भूमिका को उजागर किया है। जिसकी चाल-चरित्र रामायण के मंथरा जैसी है।  वह औरतों का कान भरकर परिवार में फूट करवा देती है। वही पुत्रवध नाटक में भिखारी जी ने ग्रामीण और शहरी औरत के चरित्र में बड़ा अंतर दिखाया है। ग्रामीण औरतों की अपेक्षा शहरी औरतों में शील और मर्यादा की कमी होती है। किसी फेरीवाले या बाजार के सामान पर शहरी औरतें बहुत जल्दी लोभित हो जाती हैं, इस नाटक में शहरी औरत अपने साज-सौन्दर्य के लिए फेरीवाले से सामान उधार ले लेती है,  पैसा न चुका पाने की स्थिति में उससे यौन सम्बंध भी स्थापित कर लेती है। जबकि ग्रामीण औरत परिवार के हालात को देखते हुए संयम,  संतोष व मर्यादा के साथ काम करती है। 'कलियुग प्रेम' नाटक में भिखारी जी ने शराब पीने के दुष्परिणाम तथा 'गंगा स्नान' मे एक छली व ढोंगी साधु के दुष्चरित्र का पर्दाफाश किया है। भिखारी ठाकुर समाज के नैतिक मूल्यों अच्छे से समझते थे,  वे नाई होने के कारण घर-घर का भेद जानते थे।  तभी उनके नाटक में औरतों के विभिन्न चरित्र के रूप में पत्नी,  सवत, माँ, बेटी,  सास,  बहू,  देवरानी,  जेठानी, कुटनी आदि सभी का चरित्र अलग जगह मिलता है। भिखारी ठाकुर अपने ढंग इकलौते नाटककार हैं जिन्होंने समाज व परिवार के भीतर तक प्रवेश करके जनता के सामने अलग शैली में प्रस्तुत किया।  उन्हें भोजपुरी या लोक का नाटककार कहकर सीमित करना ठीक नहीं है,  वे सम्पूर्ण साहित्य के अनोखे कलाकार हैं।