कसौटी पर राजनीति की सांस्कृतिक चेतना

anant vijay

अनंत विजय। आज अगर राजेन्द्र यादव जीवित होते तो इकतीस जुलाई को दिल्ली में संपन्न हुई हंस पत्रिका की सालाना गोष्ठी को देखकर बेहद खुश होते। राजेन्द्र यादव हमेशा से विचारों के टकराव और उससे उत्पन्न वैचारिक उष्मा से ऊर्जा प्राप्त करते थे। बहुधा वे लोगों को कहा करते थे कि यार साहित्य जगत बहुत ठंडा चल रहा है, कुछ करो। उनके इस कुछ करो का भाव यह रहता था कि किसी तरह का वैचारिक विवाद उठाओ। इसके लिए वो हर वय के लेखकों को उकसाते रहते थे। इस बार हंस की सालाना गोष्ठी में विचारधाराओं का टकराव साफ-साफ दिखा। मंच पर थे भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद तरुण विजय, मशहूर रंगकर्मी एम के रैना, हिंदी के सार्वजनिक बौद्धिक अशोक वाजपेयी, जेडीयू के सांसद और पूर्व राजनयिक पवन वर्मा और विषय था- राजनीति की सांस्कृतिक चेतना। विषय और वक्ताओं की उपस्थिति से इस बात का अंदाजा हो गया था कि वैचारिक मुठभेड़ होगी। तरुण विजय ने जैसे ही राग कश्मीर छेड़ा और कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के हवाले से वहां की बदलती राजनीतिक संस्कृति की बात कही तो रंगकर्मी एम के रैना ने बेहद सधे और हमलावर मुद्रा में वहां की जमीनी हकीकत बयान करनी शुरू कर दी। रैना ने कहा कि वे लगभग डेढ़ दशक कश्मीर में गुजार चुके हैं और उनको जन्नत की हकीकत मालूम है। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद देश में सांप्रदायिकता के फैलते जहर को भी रेखांकित किया। रैना के बयान को जब एक-दो और वक्ताओं का समर्थन मिला तो तरुण विजय ने सबको स्टालिनवादी और लेनिनवादी करार दिया। अशोक वाजपेयी ने अपने अंदाज में तंज कसना शुरू किया। अशोक वाजपेयी के पास जो शब्दावली है, वह कभी चुभती है तो कभी हंसाती है। अशोक वाजपेयी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के नेताओं की उत्कृष्ट सांस्कृतिक चेतना का उल्लेख करते हुए कहा कि आज के नेताओं पर सांस्कृतिक समझ रखने का लांछन नहीं लगा सकते हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि संस्कृति में तो राजनीतिक चेतना का विकास हुआ लेकिन राजनीति में सांस्कृतिक चेतना का ह्रास हुआ। अशोक वाजपेयी का इन दिनों नया शगल है मीडिया को निशाने पर लेने का, लिहाजा उन्होंने यहां भी मीडिया पर निशाना साधते हुए कहा कि मीडिया में संस्कृति की जगह कम हुई है।
दिल्ली के साहित्ियक हलके को हर साल हंस की इस सालाना गोष्ठी का इंतजार रहता है। दो-तीन साल पहले भी एक बार जब यादव जी ने अपने जीवित रहते एक मंच पर गोविंदाचार्य और वरवर राव को एक साथ मंच पर लाने की कोशिश की थी तो वरवर राव बहाना बनाकर वहां आना टाल गए थे। इससे यादव जी बेहद आहत थे। यादव जी का झुकाव हमेशा से वामपंथ की ओर था लेकिन वे दूसरी विचारधारा के लोगों को भी स्पेस देने के पक्ष में रहते थे। उनका मानना था कि वैचारिक बहस में कोई अस्पृश्य नहीं है। उनकी यही बुनियादी सोच उनको तमाम प्रगतिशील और जनवादियों से अलग करती थी। और यही उनकी लोकप्रियता की वजह भी थी। हंस के ध्वजवाहकों ने जिस तरह की गोष्ठी इस साल आयोजित की वो राजेन्द्र यादव जी को और उनकी सोच को सच्ची श्रद्धांजलि थी।