प्रसंगवश:संत महात्मा पारदर्शी जीवन जिए

रामानुज पाठक। विगत दिनों प्रसिद्ध संत और बाघम्बरी मठ के मठाधीश श्री नरेन्द्र गिरी के आत्महत्या (सुसाइड )करने से एक ओर जहां उनके लाखों करोड़ों भक्त स्तब्ध रह गए, वही पर मुझ जैसे अल्प ज्ञानी के मन में कई सारे प्रश्न बरबस कौन्धते रहे और कई दिन अपने आपको समझाया लेकिन आखिरकार आज मुझे लिखने के लिए मेरे मन ने विवश ही कर दिया। पहला प्रश्न जो मेरे मन में उठा वह यह था कि “क्या साधु संतों को भी तनाव होता है” और दूसरा प्रश्न जो मेरे मन में उठा वह यह कि “साधु संत पारदर्शी जीवन क्यों नहीं जीते” आदरणीय श्री स्वर्गीय महेंद्र गिरी जी एक नामी गिरामी संत थे उनका कनेक्शन बड़े-बड़े राजनेताओं मंत्रियों और प्रशासकों से था और उन्हीं के पाले पोसे आधुनिक तथाकथित संत आनंदगिरी जो उन्हें लगातार ब्लैकमेल कर रहे थे तो क्या नरेन्द्र गिरी जी की इतनी हैसियत नहीं थी कि उस तथाकथित आनंद हारी दुखकारी आनंद गिरि को प्रशासन की मदद लेकर के उस बदनामी की वजह को सार्वजनिक करते जिसकी वजह से बेवजह उन्हें बदनाम करने का षड्यंत्र आनंद गिरि रच रहे थे।आत्महत्या बहुत बड़ा पाप है कायरता है भीरूता है। उनके अपने ही बनाए बारिस आनंद गिरि कि सानों शौकत और आधुनिकता देखकर बड़े-बड़े लोगों की आंखें चौंधिया जाती थी भारत ही नहीं विदेशों में भी उसके आलीशान कारनामे और अय्याशी के किस्से मशहूर थे और यह सर्वविदित है कि आस्ट्रेलिया में तो छेडख़ानी के आरोप में आनंद गिरी को गिरफ्तार भी किया जा चुका था और बाद में अपनी खनक और धमक से स्वर्गीय नरेन्द्र गिरी जी ने ही आनंद गिरी को बचाया था जेल से छुड़वाया था। देश दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाने वाले प्रसिद्ध संत का मन खुद कितना अशांत था कि उन्होंने आत्महत्या जैसे जघन्य कदम उठा लिया। उन्होंने एक बार ना ही अपने भक्तों के बारे में सोचा और ना ही उस विश्वास के बारे में सोचा जिसको इतने जनमानस से मान्यता मिली थी उनके एक भाषण या एक बार कह देने से ही लोग उनके लिए जान निछावर करने को तैयार हो जाते थे। पुलिस के ना जाने कितने अधिकारी उनके शिष्य थे और उनके एक इशारे से आनंद गिरि को सीधे उठा ले जाते और लॉकअप के अंदर कर देते तथा दूध का दूध और पानी का पानी कर देते। लेकिन ऐसा हो न सका दुनिया को शांति का मार्ग दिखाने वाला खुद अशांत होकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर बैठा । दूसरी बात जो मेरे मन में आती है कि आखिरकार इतने बड़े-बड़े मठों में, मंदिरों में, ट्रस्टों में, इतनी अकूत संपदा है लेकिन वह संपदा , हिंदुओं के कल्यानार्थ काम क्यों नहीं आती आखिरकार गरीब हिंदू मजबूरन ईसाई या मुसलमान धर्म क्यों स्वीकार कर रहे हैं क्या इन मठों मंदिरों और ट्रस्टों का औचित्य ही नहीं रहा कि समाज सेवा में अपने चंदे से प्राप्त धन का उपयोग करें जिससे हिंदुओं का और गरीबों का कल्याण हो। जाने कितने वैध अवैध कार्य मठों, मंदिरों और ट्रस्टों में होते हैं। धर्म के नाम पर भ्रष्टाचार कहां तक उचित है। एक और परेशान अवाम शांति की तलाश में धर्म गुरुओं को मोटा चंदा और चढ़ावा देती है ।लोग आंख मूंद कर अपने गुरु पर विश्वास करते हैं लेकिन धर्मगुरु और धर्मार्थ संस्थाएं उस चढ़ावे और चंदे का दुरुपयोग करने लगे तो निश्चित रूप से यह कष्टकारी है और पीड़ादायक है। यह कटु सत्य है कि आज बड़े-बड़े मठों मंदिरों और धर्मार्थ संस्थाओं में जन कल्याण के कार्य बहुत कम होने लगे हैं और भ्रष्टाचार के कार्य,अवैध कार्य बहुत ज्यादा होने लगे हैं। मंदिरों मठों की अकूत संपदा तथा चढ़ावे एवं संचित निधि का उपयोग धर्मार्थ कार्यों में राष्ट्र के कल्याण में शिक्षा के लिए अस्पतालों के लिए बहुत कम होता है।चंदे चढ़ावे का उपयोग धर्म के कल्याण में राष्ट्र के कल्याण में बहुत कम मात्रा में होता है । दुनिया को दिखाने के लिए ,गृहस्थ आश्रम का चोंगा उतारकर के फेंकने वाले साधु सन्यासी के मन में पाप और नारीयों के प्रति आकर्षण सहज ही भरा होता है और वह मौका मिलते ही अपना वास्तविक स्वरूप दिखाते हैं क्योंकि उन्होंने मन को मार कर के साधु वेश धारण किए लेकिन जब उन्हें ऐशो आराम की जिंदगी मिलती है तो सब नाजायज ,जायज हो जाता है।वह दुनिया को अपना एक अलग रूप दिखाते, लेकिन वास्तव में होते कुछ और हैं ।अवैध धंधे गैर कानूनी कार्य तथा जमीन जायदाद हड़पने के कार्य एवं अन्य गैर कानूनी कार्य धर्म की आड़ में होने लगते हैं।इसलिए जो स्वाभाविक रूप से गृहस्थ आश्रम के व्यक्ति थे और उन्होंने अपने अपराधों को छुपाने के लिए या किसी कारण साधु संत का चोंगा पहन लिया जब वह मठों में आते हैं साधु सन्यासी का वेश धारण करते हैं और वह देखते हैं कि संतों महात्माओं का कितना जलवा होता है तो उनके मन में भी ऐसी बातें आ जाती है कि क्यों ना हम संपत्ति विस्तृत करें और वह अनाप-शनाप धन कमाने में मशगूल हो जाते हैं ऐसी स्थिति में हमारे मठ और मंदिर जहां भ्रष्टाचार के अड्डे बनते जा रहे हैं वहीं उनसे हिंदू धर्म का कल्याण नाममात्र के बराबर होता है एक ओर जहां इतनी बड़ी आबादी में लोग भूखे, प्यासे, बेबस ,लाचार हैं, लोगों के पास अपनी औषधियों के लिए पैसे नहीं है, बीमारियों की दवाई नहीं करवा पा रहे हैं, मजबूरी में धर्म परिवर्तन कर बड़ी संख्या में हिंदू ईसाई बन रहे हैं और मुसलमान बन रहे हैं। इस देश में न जाने कितने मंदिर हैं,मठ हैं,ट्रस्ट हैं, जिनकी खुद की अकूत संपदा है उन्हें चढ़ावे के रूप में न जाने लाखों करोड़ों रुपए प्रतिदिन मिलते हैं। जिनमें अब तक और उनका थोड़ा सा हिस्सा भी धर्मार्थ लगाया जाए तो निश्चित रूप से चमत्कार हो जाय,लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है ।व्यक्तिगत स्वार्थ बहुजन हिताय ,सर्वजन हिताय के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करता है।साधु संतो को एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो पूरी तरह से पारदर्शी हो उनके जीवन के हर पहलू पर उनके भक्तों को ,समाज को जानने का अधिकार है,और उनके जीवन का कोई पहलू छुपा नहीं होनी चाहिए। उनका जीवन, चरित्र एकदम पारदर्शी होना चाहिए जो लाखों-करोड़ों को शिक्षा देते हैं ,उनका खुद का जीवन भी लाखों लोगों के लिए अनुकरणीय ही होता है। मठों मंदिरों में संपत्ति के विवाद और वर्चस्व की लड़ाई जारी हैं।अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने के लिए नीचता की हद पर जूतम पेजार हो रहे हैं। वाकई में जो दीन हीन की सेवा करे ,धर्मांतरण रोके हिंदुओं को हिंदू ही बने रहने में मदद करे सनातन धर्म की रक्षा करे ,वही मठ अच्छा और वही साधु सच्चा। तनाव है तो वीर, शहीद ,संत नहीं ।लोभ लिप्सा है तो उसके जीवन में शांति नहीं। आत्महत्या कायरता है इसे वीरता कदापि नही कहा जा सकता है, चाहे परिस्थितियां जो भी हो।
लेखक सम्पर्क- सतना मध्यप्रदेश 7697179890/7974246591