सहिष्णुता की कसौटी पर मोदी

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एस. निहाल सिंह। हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश हाल ही में विरोध स्वरूप सम्मान लौटाने वाले लेखकों में ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने वीएम कलबुर्गी के कत्ल से क्षुब्ध होकर 4 सिंतबर को साहित्य अकादमी को अपना पुरस्कार लौटा दिया। कलबुर्गी की तरह तीन अन्य लेखकों को भी पिछले कुछ समय के दौरान इसलिए अपनी जान से हाथ धोना पड़ा क्योंकि वे सब या तो तार्किक सोच रखते थे या फिर स्वतंत्र विचारों वाला लेखन किया करते थे। लेकिन सम्मान लौटाने का यह चलन तब जोर पकड़ गया जब दिवंगत प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भानजी और मशहूर लेखिका नयनतारा सहगल और इसके तुरंत बाद हिंदी कवि अशोक वाजपेयी ने अकादमी सम्मान लौटा दिया। अब तक तमाम अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के लेखक अपने सम्मान लौटाने का ऐलान कर चुके हैं।
नयनतारा सहगल के विरोध करने के पीछे उनकी एकदम सीधी सोच है, जो उनके शब्दानुसार-भारत की सांस्कृतिक विविधता और अलग सोच रखने के अधिकार पर विषैला हमला किया जा रहा है। लेखन की दुनिया के दो नाम जिन्होंने अपने सम्मान को नहीं लौटाया है, वे हैं इतिहासकार रामचंद्र गुहा और लेखक अमिताव घोष। उनका मानना है कि ऐसा करना उन गुणीजनों के आकलन का अपमान होगा जिन्होंने सोच-समझकर उन्हें इसके लिए चुना था। लेकिन वे भी साथी लेखकों द्वारा इस बढ़ती असहिष्णुता वाली संस्कृति का विरोध किए जाने का पूरा समर्थन करते हैं। मशहूर लेखक सलमान रश्दी जिनकी किताब शैतानी आयतें को कांग्रेस सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था, वेे भी विरोध करने वाले लेखकों की जमात में शामिल हो गए हैं।
तो हमें कहां पर लकीर खींचनी होगी? आइए इस तथ्य को सही तरीके से समझें। भारत सरकार से मिलने वाली मदद या प्रयोजन पर चलने वाले संस्थान स्वायत्त हैं, यह मानना कपोल कल्पना होगी। फिर भी जो चीज आज तक उन्हें ऊलजलूलता न करने देकर किसी न किसी तरह जिंदा रखे हुए है, वह है कि इनका नेतृत्व अपने-अपने फन के काबिल ऐसे महिला या पुरुष करते आए हैं जिनका उत्थान उस माहौल में हुआ है, जिसे बखूबी उदार-नेहरूवाद कहा जा सकता है। उनमें यह जीवटता थी कि मौका आने पर वे सरकार के विचारों से न केवल असहमति प्रकट करने की हिम्मत रखते थे बल्कि अपना तर्क मनवाने में भी सफल रहते थे।जो बदलाव मोदी सरकार आने के बाद हुआ है, वह है कि प्रमुख शिक्षण और इतिहास अनुसंधान संस्थानों में ऐसे गुमनाम लोगों को भर दिया गया है, जिनकी काबिलियत इतनी भर है कि वे भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की सोच के प्रति वफादारी रखते हैं। जरा विचार कीजिए कि जब तार्किक सोच रखने वाले लेखकों की हत्याएं इसलिए की गईं कि वे स्वतंत्र सोच रखते थे, तो साहित्य अकादमी, जिसे ज्ञान का एक प्रमुख राष्ट्रीय संस्थान माना जाता है, की तरफ से निंदा का एक शब्द तक नहीं आया। मजेदार बात यह है कि इसके मुकाबले वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस असहिष्णुता का विरोध करने वालों में अपना स्वर उस वक्त मिलाया जब शिव सेना के कारकुनों ने लेखक सुधीर कुलकर्णी के मुंह पर इसलिए कालिख पोत दी क्योंकि वे पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी की किताब का मुंबई में विमोचन करवाने में सरगर्म भूमिका निभा रहे थे।
मोदी सरकार डर का ऐसा माहौल बना रही है, जिसमें अवसरवादी और संघ परिवार के विचारक फल-फूल सकें और जो लोग प्रगतिशील सोच रखते हैं, उन्हें अपने विचार जाहिर करने से पहले कई मर्तबा सोचना पड़े। इस समस्या की जड़ यह है कि प्रधानमंत्री को अभी भी पूरी तरह एहसास नहीं हो पा रहा है कि वे भारतीय जनता पार्टी के एक नेता होने से कहीं ज्यादा जिम्मेवार पद पर हैं। प्रधानमंत्री होने के नाते भारत की अंतरात्मा का प्रहरी होना उनका फर्ज भी है। इसलिए अगर दादरी जैसी दुखद घटना होती है तो उनसे उम्मीद की जाती है कि ऐसा न करें कि पहले-पहल तो इस पर चुप्पी बनाए रखें और कहीं बाद में जाकर सरसरी तौर पर इसकी निंदा करें और साथ ही इसकी जिम्मेवारी सिर्फ राज्य सरकार पर डालना उनके लिए मुनासिब नहीं है। प्रधानमंत्री को आहत भावनाओं पर मरहम लगाकर देशभर में फैलती रोष तंरगों को थामने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए थी। मोदी के मंत्रिमंडलीय सहयोगी वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा फेसबुक पर पोस्ट किए अपने लंबे लेख के माध्यम से इस हिंसा के कारणों को जायज ठहराने वालेे प्रयास से पार्टी की स्थिति को संवारने में कोई फायदा नहीं हुआ है।
मोदी द्वारा अपनाए जाने वाले इस रवैये के पीछे कारण यह हो सकता है कि उनका लालन-पालन संघ परिवार में हुआ है। शायद यही वजह है कि वे दादरी जैसी भयावह घटना को कमतर करके गिना रहे हैं। ऐसा करने में तब भी कोई मदद नहीं मिलने वाली जब उनके संस्कृति मंत्री महेश शर्मा दादरी प्रकरण को महज एक दुर्घटना ठहरा रहे हैं और सम्मान वापिस करने वाले लेखकों पर यह तंज कस रहे हैं कि क्यूं न वे लिखना ही छोड़ दें। ऐसा कहकर वे भी उन महोदया के समकक्ष आ गए हैं जिनको शिक्षा के सर्वोच्च विभाग का सर्वेसर्वा बना दिया गया है। इसके अलावा हम सब उस कृत्य के हश्र से भी वाकिफ हैं जिसमें एक टेलीविजन एक्टर को पुणे के नामी-गिरामी फिल्म इंस्टीट्यूट का निदेशक महज इसलिए लगा दिया गया कि उनकी मुख्य काबिलियत केवल इतनी भर थी कि वे भाजपा के नजदीक हैं।
लेखकों द्वारा विरोध स्वरूप लौटाए गए सम्मान हमारे देश की पारंपरिक सहिष्णुता में घटते विश्वास पर ध्यान खींचने में तब मददगार सिद्ध हो सकते हैं, अगर इनकी वजह से सरकार और संघ सोच-विचार करे और अपनी नीतियों का पुन: जायजा ले। हालांकि इस ओर संकेत उत्साहवर्धक नहीं हैं।
संघ परिवार की सम्मिलित सोच की दिशा बिना शक साफ दिखाई देती है। इसकी अभिव्यक्ति नित दिन हमें सांस्कृतिक और राजनीतिक शुद्धीकरण के नव-अलंबरदारों के मुंह से सुनने को मिलती है। इसके अलावा शिक्षा में तथाकथित पाश्चात्य झुकाव की लगातार निंदा का प्रवाह जारी है।प्रगतिशील लेखकों का मौजूदा विद्रोह कई मायनो में काफी महत्वपूर्ण है। इसका श्रेय उनकी महीन संवेदनशीलता को जाता है कि उन्होंने माहौल को सूंघ कर चेता दिया है कि यह बढ़ती हुई असहिष्णुता उस इमरजेंसी-सरीखे वातावरण का आरंभिक संकेत है, जिसमें लोगों की सोच और देश के इतिहास को नए सांचे में ढालने का प्रयास किया जाएगा। यह गनीमत की बात है कि इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी कुछ समयावधि की थी लेकिन जिस तरह का नया ढांचा संघ परिवार बनाने को अग्रसर है उसका कोई ओर-छोर नहीं है। अभी भी मोदी सरकार के पास वक्त है कि वह उस रास्ते से टल जाए जिस पर उसने चलना शुरू कर दिया है क्योंकि संघ परिवार के जिस एंजेडे को वह अक्षरश: लागू करना चाहती है, वह देश के लिए विध्वंसकारी सिद्ध होगा। इसलिए यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मोदी में वह काबिलियत और इच्छाशक्ति है कि वे देश को सब्जबाग दिखाने वाले रास्ते पर ले जाने से बचा सकेंगे?