आम आदमी की सेहत से खिलवाड़

food-on track

अभिषेक कुमार। एक जमाना था जब कहा जाता था कि घर से बाहर लंबे सफर पर निकले मुसाफिर अंगौछे में बांधकर लाए गए सत्तू या चने-चबैने से काम चला लेते थे। रास्ते में पडऩे वाले प्याऊ और रेलवे स्टेशनों में खानपान की व्यवस्था भी आगे चलकर यात्रियों का सुभीता कर देती थी। लेकिन लंबे सफर की तेज रफ्तार उन ट्रेनों में खानपान की व्यवस्था पैंट्री कार के तहत करना एक अनिवार्य जरूरत में तबदील हो गई, जो कई-कई घंटे चलने के बाद ही किसी बड़े स्टेशन पर रुकती हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भरपूर कीमत वसूलने के बाद भी यात्रियों को ट्रेनों में जो भोजन-पानी उपलब्ध कराया जा रहा था, वह किसी भी नजर से स्तरीय नहीं था। यहां तक कि बासी और घटिया क्वॉलिटी के भोजन और रेल नीर की जगह किसी भी ऐरे-गैरे ब्रांड की पानी की बोतल थमाने पर जब कभी यात्री विरोध या शिकायत करते थे, तो उनकी सुनवाई प्राय: नहीं ही होती थी। ऐसा क्यों होता था, इसका एक जवाब मिल ही गया है। सीबीआई के छापों में ट्रेनों में व रेल स्टेशनों पर भोजन-पानी की सप्लाई करने वाले एक ठेकेदार के आवास से करोड़ों की संपत्ति का बरामद होना, उसके इशारे पर काम करने वाले वरिष्ठ रेल अधिकारियों की ठेकेदार समेत गिरफ्तारी यह साबित करने के लिए काफी है कि आखिर रेल यात्रियों को खराब खाना क्यों मिल रहा था। दावा है कि उक्त ठेकेदार ने रेलवे के ठेकों के बल पर महज 10 साल में 500 करोड़ रुपये की संपत्ति खड़ी कर ली। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने रेलवे की दुखती रगों को पहचान लिया है। अब यदि वे एक-एक करके रेलवे की समस्याओं के निदान की पहल करेंगे, तो इससे रेलवे और रेल यात्रा का नक्शा बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
लंबी दूरियों की ट्रेनों में यात्रियों के लिए भोजन का इंतजाम अब प्राय: पूरी दुनिया में किया जाता है। हमारे देश में भी कई दशकों से यह व्यवस्था लागू है। राजधानी, शताब्दी और दुरंतो जैसी एक्सप्रेस ट्रेनों में खराब-बासी और घटिया भोजन को लेकर यात्री अकसर शिकायतें करते रहे हैं। यात्रियों को रेल नीर की जगह किसी सस्ते और लोकल ब्रांड का पानी यह कहकर थमा दिया जाता था कि उसमें कोई खराबी नहीं है। इसके बदले में यात्रियों से 15-20 रुपये वसूल किए जाते थे, जबकि लोकल ब्रांड के पानी की बोतल अधिकतम सात या आठ रुपये में ठेकेदार को मिलती थी, जिसे वह न्यूनतम 15 रुपये में रेल यात्रियों को बेचता था।
हालात की पेचीदगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि खुद सांसदों-विधायकों तक ने इसकी शिकायत रेल मंत्रालय से की है। एक वाकया वर्ष 2012 का है जब रांची जा रही राजधानी में जो 12 यात्री विषाक्त भोजन खाने से फूड पॉयजनिंग के शिकार हुए थे, उनमें एक सांसद भी थे। वीआईपी और प्रीमियम श्रेणी की ट्रेनों में अमूमन यात्री किराये के साथ ही भोजन का शुल्क वसूला जाता है, लेकिन बदले में जैसा खाना यात्रियों को परोसा जाता है, वह स्तरीय नहीं होता। कुछ मामलों में रेलवे बोर्ड ने भोजन सप्लाई करने वाले ठेकेदारों पर जुर्माना लगाकर मामला शांत करने की कोशिश अवश्य की है, लेकिन यह समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं है।
ट्रेनों में मिलने वाले भोजन के स्तर में गिरावट का दौर तब शुरू हुआ, जब रेलवे ने खानपान की सेवा को बेहतर बनाने के नाम पर इसका जिम्मा निजी हाथों में सौंपा। रेलवे का तर्क था कि ऐसा करके वह भोजन की क्वॉलिटी सुधारने के साथ-साथ बेरोजगारों के लिए रोजगार का विकल्प पैदा कर रही है। यह तो स्पष्ट नहीं हुआ कि इससे समाज के कमजोर वर्गों का कितना उत्थान हुआ और बेरोजगारों का कुछ भला हुआ भी या नहीं, पर इतना अवश्य है कि रेलवे की खानपान सेवा ऐसे ठेकेदारों के हाथों में चली गई, जो खिला-पिलाकर ज्यादा कीमत में घटिया भोजन सप्लाई करने में माहिर हैं।
रेलवे के भोजन की क्वॉलिटी पर मचे बवाल के बाद भारतीय रेलवे ने पिछले साल आश्वासन दिया था कि वह ट्रेनों में परोसे जाने वाले खाने का थर्ड पार्टी ऑडिट कराएगी। इसके लिए स्वतंत्र एजेंसी को चुना जाएगा, जो ट्रेनों में भोजन की जांच के बाद अपनी रिपोर्ट देगी। रेलवे का मानना है कि थर्ड पार्टी ऑडिट को चुनौती देना मुश्किल होगा और खाने की क्वॉलिटी में भी सुधार होगा। साथ ही, यह योजना भी बनी थी कि ट्रेन में घटिया खाना देने वाले वेंडरों पर जुर्माने की रकम बढ़ाकर पांच हजार से एक लाख रुपये तक कर दी जाएगी। यदि मामला गंभीर होगा पैसेंजर्स की बड़ी संख्या से जुड़ा होगा तो वेंडर को हमेशा के लिए ब्लैक लिस्ट करने का प्रावधान भी किया जाना था। लेकिन ये आश्वासन हाल तक कोरे ही साबित हुए क्योंकि भोजन की क्वॉलिटी में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ।
क्वॉलिटी सुधारने के नाम पर रेलवे ने भोजन की कीमतों में इजाफा तो कर दिया है, लेकिन इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जाना साफ करता है कि रेलवे को यात्रियों की असुविधा का कोई ख्याल नहीं है।