चीन-ब्रिटेन की गलबहियों का मतलब

s.nihal singhएस. निहाल सिंह।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की हालिया ब्रिटेन यात्रा सही मायनों में प्रतीकात्मक और कुछ उपलब्धि वाली भी रही। जिस वैभवता और शाही अंदाज से शी का स्वागत किया गया, उससे उनका कद स्वदेश में कम से कम दस फीट बढ़ गया है। उन्हें स्वर्ण जडि़त घोड़ा-बग्घी में ब्रिटेन की महारानी स्वयं बकिंघम पैलेस लेकर गयी थीं। हालांकि इसके चलते इंग्लैंड के पश्चिमी सहयोगियों और अमेरिका की त्योरियां चढ़ गई हैं।
सभी संकेत बताते हैं कि ब्रिटेन का ऐसा करना उसकी दीर्घ काल में जोखिम लेने वाली विदेश नीति का हिस्सा है, जिसमें चीन को लुभाकर ब्रिटेन के आधारभूत ढांचे और ऊर्जा संबंधी क्षेत्र में निवेश मिल सके। चीन भी लंदन को विश्व व्यापार के एक बड़े केंद्र के रूप में उभारना चाहता है, ताकि जल्द से जल्द उसकी मुद्रा युआन के अंतरराष्ट्रीय लेन-देन का माध्यम बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। इस यात्रा के दौरान चीन-ब्रिटेन के बीच एक संधि की गई है, जिसके अंतर्गत इंग्लैंड में 6 बिलियन पाउंड का निवेश करके चीनी तकनीक पर आधारित नया अणु बिजलीघर बनाया जाएगा, जिसे फ्रांस की एक कंपनी चलाएगी। इसके अलावा ब्रिटेन पहला ऐसा महत्वपूर्ण पश्चिमी यूरोपीय मुल्क है, जिसके साथ चीन-प्रायोजित उद्योग विकास बैंक की स्थापना करने के लिए एक समझौता किया गया है। ब्रिटिश सरकार के इस झुकाव की आलोचना वहां के विपक्ष ने की है।जिस तरह से ब्रिटेन ने चीन की ओर कदम बढ़ाने शुरू किए हैं, उससे जो नए राजनीतिक और भू-राजनीतिक आयामों का समीकरण उभरेगा, यह भारत एवं विश्व के लिए बड़ा महत्वपूर्ण होगा। अमेरिका के लिए यह खासतौर पर चिंता का विषय है क्योंकि ब्रिटेन लंबे अर्से से उसका निकटतम यूरोपीय सहयोगी रहा है और जिस तरीके से इसने चीन से गलबहियां डालनी शुरू की हैं, उससे वहां पर खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गयी है।
चीन ने पिछले वर्षों में दिमाग को चकराकर रख देने वाली जो आर्थिक तरक्की की थी, उससे वह विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा भंडार-स्वामी बना हुआ है। फिर भी इन दिनों उसकी आर्थिक रफ्तार धीमी पडऩे लगी है और ऐसा माना जा रहा है कि घरेलू मंदी ने उसे उकसाया है कि वह इस क्षतिपूर्ति के लिए विदेशों में सिल्क रूट (जो आधिकारिक तौर पर कागजों में एक सड़क मार्ग या पट्टी है) और इस जैसी फायदेमंद परियोजनाओं में निवेश करे। वैसे तो यूरोप के बाकी देश भी चीन के साथ आर्थिक संबंध बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन हैरानी इस बात से है कि कैसे कैमरून सरकार चीन की नजरों में चढऩे के लिए मानवाधिकार संबंधी उसके तमाम रिकॉर्ड को नजरअंदाज करके यह पाना चाहती है।
अमेरिका के राजनीतिक विश्लेषक यह निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि ब्रिटेन और बहुत हद तक यूरोपियन संघ के उसके भागीदार अब उनके देश की तुलना में आर्थिक मौकों की तलाश में पूर्व की ओर झुकाव रखने लगे हैं। यह सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगले माह होने वाली ब्रिटेन यात्रा के दौरान वहां की महारानी उनके सम्मान में भी भोज का आयोजन करेंगी, लेकिन जिस उत्साह का प्रदर्शन चीन को डोरे डालने के लिए ब्रिटेन ने दिखाया है, वह हैरानकुन है। उदाहरण के लिए कयास यह है कि दक्षिण-चीन सागर में सार्वभौमिकता तय करने, नए टापुओं को अपने क्षेत्र में मिलाने के चीन के फैसले और हाल ही में अमेरिकी नौसेना द्वारा उस इलाके की गश्त पर हुए तनाव जैसे मामलों में ब्रिटेन आइंदा चीन के खिलाफ कुछ कहने में गुरेज करेगा।
यहां पर सवाल यह पैदा होता है कि क्या कैमरून सरकार अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ लंबे संबंधों की एवज में अब अपना सारा ध्यान चीन के पाले में जाने के लिए लगा रही है? पहले से ही उसके बारे में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि क्या वह यूरोपीय संघ का सदस्य बना भी रहेगा या नहीं। 2017 में इस बारे में ब्रिटेन में जनमत संग्रह करवाने का कैमरून सरकार का प्रस्ताव है और खुद कैमरून की निजी इच्छा यह है कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो जाए।
जिस तरह के विशेष रिश्ते ब्रिटेन चीन से बनाने जा रहा है, उससे भारत-चीन के बीच विवादित मुद्दों पर ब्रिटेन द्वारा आगे अपनाए जाने वाले रुख के चलते भारत-ब्रिटेन संबंधों पर भी विपरीत असर पड़ेगा। जहां तक आर्थिक मामलों का संबंध है, ब्रिटेन इस पक्ष में है कि वह भारत में ज्यादा निवेश करे और आपसी व्यापार में इजाफा करे क्योंकि जितनी बड़ी तादाद में वहां पर अनिवासी भारतीयों की संख्या है, उससे बनने वाले दबाव को दोनों सरकारें नजरअंदाज नहीं कर सकतीं।
चीन की बढ़ती शक्ति और प्रभुता को प्रतिसंतुिलत करने के लिए भारत की नजदीकियां अमेरिका से बढऩे लगी हैं। भारत-जापान-अमेरिकी नौसेना का त्रिपक्षीय अभ्यास इस समीकरण का एक आयाम है। इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश जैसे कि वियतनाम के साथ भारत के मजबूत होते रिश्ते इसका अन्य रूप है। इन हालातों के मद्देनजर भविष्य में ब्रिटेन की भूमिका क्या होगी, यह देखना अभी बाकी है। लेकिन चीन-ब्रिटेन का ताजातरीन प्रेम प्रसंग यह संकेत देता है कि भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव होने जा रहा है। जिस वैभवशाली तरीके से शी जिनपिंग का स्वागत प्रधानमंत्री कैमरून के आधिकारिक निवास पर किया गया, जिस तरीके से बीयर पीने के दौरान दोस्ताना माहौल में दोनों के बीच बातचीत हुई और इसके अलावा जिनपिंग को शाही महल बकिंघम पैलेस में ठहराया जाना, सम्मान देने का सबसे बड़ा पैमाना है।
जाहिर है ब्रिटेन से वापसी करते समय जिनपिंग वहां मिले सम्मान से उसी तरह बहुत प्रभावित और अति प्रसन्न हुए होंगे जैसा कि चीनी किंवदंतियों में दर्ज है कि कैसे लाल बालों वाले दुष्ट (ब्रिटिश नुमांइदे) वहां के राजाओं को अपनी चाटुकारिता और वंदना से खुश कर लिया करते थे। ब्रिटेन की तरफ से देखें तो चांसलर जॉर्ज ऑस्बोर्न, जो चीन के प्रति इस नई विदेश नीति के रचयिता हैं, उन्हें यह उत्सुकता और घबराहट जरूर होगी कि क्या उनका यह प्रयास रंग लाएगा? विश्व अब हैरानी से देख रहा है कि चीन के प्रति अपने इस नव-उत्साह को लेकर ब्रिटेन अपने पुराने मित्र अमेरिका को कैसे मनाएगा। यूरोप की रक्षा के लिए संभावित परमाणु हमले से प्रतिरक्षा तंत्र में ब्रिटेन की प्रमुख भागीदारी सबको मालूम है। हालांकि अफगानिस्तान अभियान पर गए ब्रिटिश सैनिकों की वापसी अपने मूल कार्यक्रम के अनुसार होने वाली है। चीन-ब्रिटेन की इस नई दोस्ती का एक नतीजा यह निकलेगा कि भविष्य के बड़े फैसलों में जर्मनी की भूमिका अहम बन जाएगी। वहां की सत्ता संभालने वाली चांसलर एंजेला मार्केल पहले से ही यूरोपीय संघ में सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभर चुकी हैं। हालांकि इन दिनों शरणार्थियों को अपने देश में पनाह देने के मुद्दे पर देश के भीतर उनके प्रति आक्रोश का माहौल बन गया है।
सुश्री मार्केल ने पहले ही दस लाख शरणार्थी, जिनमें ज्यादातर सीरिया के हैं, उन्हें अपने देश में लाने का आंकड़ा छू लिया है। कुछ अपवादों के छोड़कर शरणार्थियों के इस बोझ में हिस्सा बांटने में यूरोपीय संघ के देशों के अनिच्छुक रवैये के चलते केवल मार्केल ही ऐसी हैं जो इसमें कुछ करना चाहती हैं । फिर भी रूस के अतिरिक्त यूरोप के देशों में जर्मनी एक महत्वपूर्ण शक्ति माना जाता है।