नीतीश की नई पारी में सियासी संभावनाएं

pushpendraपुष्पेंद्र कुमार। बिहार के बेहद प्रतीक्षित जनादेश के बाद 35वें मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने लगातार तीसरी बार और कुल मिलाकर पांचवी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। मुझे लगता है कि बतौर मुख्यमंत्री बिहार की सियासत को पहले से अधिक रोचक, रोमांचक और प्रयोगधर्मी बनाने में लालू प्रसाद यादव के योगदान की तुलना में नीतीश कुमार अधिक प्रभावशाली नेता के रूप में देखे जाएंगे। उन्होंने जोखिम उठाए और सफलता हासिल की। अधिकांश विश्लेषकों ने इस बात का इशारा किया है कि नीतीश कुमार की सफलता एक ऐसे नेता को, उसके शख्सियत को मिला जनादेश है जिसके बाद वे क्रमश: राष्ट्रीय विकल्प के रूप में निर्मित होने की राह पर हैं। नरेंद्र मोदी के बतौर प्रधानमंत्री शपथ ग्रहण में हमारे पड़ोसी मुल्कों के सभी राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया था तो यह एक स्टेट्समेन स्टेटमेंट समझा गया। जाहिर है कि नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में देश के कई मुख्यमंत्रियों ने शिरकत की है, तो इसके पॉलिटिकल स्टेटमेंट यानी सियासी मायने अवश्य ही होंगे। नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, भाजपा को पहली करारी शिकस्त देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के अलावा महाराष्ट्र में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में शामिल शिवसेना, कांगे्रस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, वामपंथी दलों के शीर्ष नेताओं से लेकर पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला, शीला दीक्षित जैसे नेताओं की मौजूदगी मानो सियासी इंद्रधनुष है जो राजनीतिक तौर पर आक्रमक चुनौती पेश कर रही भाजपा की लगातार दूसरी निर्णायक हार पर वाजिब संतोष का अनुभव कर सकती है। लेकिन नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की घटना का सबसे बड़ा संदेश महागठबंधन का प्रयोग है। लिहाजा पटना का गांधी मैदान सियासी भागीदारी को लेकर भविष्य के प्रयोगों कोई दिशा का संकेत है? बिहार के महागठबंधन को राष्ट्रीय प्रयोग और विकल्प में ढालने को लेकर चुनौतियां बड़ी हैं। समाजवादी पार्टी के प्रतिनिधि का इस शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद न होने से कम महत्व इस बात का भी नहीं है कि उत्तरप्रदेश में वापसी की उम्मीदें देख रही मायावती और उनकी पार्टी भी इस समारोह में शामिल नहीं हुई। महागठबंधन के प्रयोग का अधिक महत्व इस बात में है कि बिहार में नीतीश कुमार किस प्रकार का प्रयोग और प्रयास करते हैं। नीतीश कुमार ने अपने नए मंत्रिमंडल में अधिक संख्या में युवाओं और नए चेहरों को शामिल किया है। नीतीश कुमार जानते हैं कि उनकी इस सरकार की सफलता पिछले कार्यकाल की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि आम तौर पर आशंका जाहिर की गई है कि उनकी सरकार के कामकाज पर लालू प्रसाद यादव का दखल होगा। हालांकि मेरा भी मानना है कि यह मुमकिन नहीं है क्योंकि लालू प्रसाद बिहार में अपना राजनीतिक ऐजेंडा स्पष्ट कर चुके हैं, जिसमें वे बिहार मॉडल को खड़ा करने के लिए नीतीश को सहयोग करेंगे और वे खुद गैर-भाजपाई राष्ट्रीय महागठबंधन की मुहिम और विकल्प के लिए जमीन तैयार करेंगे। दरअसल लालू प्रसाद जानते हैं कि नीतीश सरकार में टिकाऊ और सहयोगपूर्ण भागादारी न केवल बिहार में उनकी राजनीतिक विरासत निर्मित करने के लिए जरूरी है बल्कि इसके जरिए भावी राष्ट्रीय महागठबंधन की स्थिरता और विश्वसनीयता के लिए उन्हें अधिक सचेत राजनेता की छवि प्रदान करेगी। तो क्या लालू एक बार फिर से, बिहार के समान, नीतीश के लिए राष्ट्रीय जमीन तैयार करने निकल पड़ेंगे या राष्ट्रीय चाणक्य के लिए चंद्रगुप्त कोई और है? सबसे अहम तथ्य तो यह है कि नीतीश सरकार में सहयोग के जरिए लालू अपने पिछले कामकाज के कथित जंगलराज के लेबल को भी हटाने में कामयाब हो जाएंगे। महागठबंधन ने जिसप्रकार दो-तिहाई जनादेश हासिल किया है, वह अप्रत्याशित नहीं है, बल्कि प्रभावशाली जीत है। महागठबंधन के गठन ने अपने पक्ष में अधिक मजबूत सामाजिक समीकरण के गणित की दावेदारी शुरू से ही की थी और जिसने भाजपा के कथित सियासी रसायनशास्त्र को पटखनी दी है। लेकिन मेरा मानना है कि बिहार के इस स्पष्ट जनादेश में भी नई प्रवृतियां दिखाई दे रही हैं। जातीय धु्रवीकरण वहां मौजूद तो है लेकिन जातीय प्रतिबद्धता ढीली हुई है और समाज मूलत: समावेशी विकास की उम्मीदों के लिए प्रतिनिधि चयन की समझ में परिपक्व हो रहा है। जाहिर है कि नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां अब अधिक बड़ी हैं। नीतीश कुमार के दौर में बिहार ने जिस विकास का अनुभव किया वह राष्ट्रीय विकास यात्रा के साथ कदमताल नहीं बल्कि बेहद निचले स्तर पर जा पहुंचे मानकों से ऊपर उठने की सफलता थी। बिहार देश के 29 राज्यों में सबसे कम प्रतिव्यक्ति आय वाला राज्य ही नहीं है, बल्कि बिहार के भीतर अलग अलग जनपदों में प्रतिव्यक्ति आय में भारी असमानताएं हैं। विपक्ष के प्रत्येक हमले को बिहार के अपमान का विमर्श बनाने की रणनीति में सफल रहे नीतीश-लालू रणनीति के कारण ही यह राज्य में तीसवर्षीय स्नातक कोर्स में पांच साल लग जाने और नकल की संस्कृति से बिहार को मुक्त करने जैसे प्रश्न चुनाव का मुद्दा नहीं बन सके लेकिन इतना स्पष्ट है कि अपने राष्ट्रीय महात्वाकांक्षाओं को विस्तार देने की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए नीतीश कुमार को राज्य में तुलनात्मक नहीं बल्कि राष्ट्रीय महत्व के स्पष्ट बदलावों को हासिल करना होगा। आज यह आम राय है कि 2019 के आम चुनाव में मोदी बनाम कौन में नीतीश आज सबसे संभावनाशील कौन-दावेदार हैं, लेकिन यह सफल लंबा है जिसकी अगली परीक्षा उत्तरप्रदेश में किसी महागठबंधन के आकार लेने में छिपी है। लेकिन बिहार के सफल महागठबंधन मॉडल के हिसाब से, क्या बिहार के समान अस्तित्व रक्षा का प्रश्न उत्तरप्रदेश या पश्चिम बंगाल में भी मौजूद है? यदि हां, तो क्या सभी राज्य विशेषों के तमाम विरोधाभासी गठबंधन राष्ट्रीय विकल्प में समायोजित हो जाएंगें? नीतीश के राष्ट्रीय अवतरण की पहली शर्त कांगे्रस और लालू का अभिभावकत्व और दूसरी समस्या कांगे्रस उपाध्यक्ष की दावेदारी है। सियासी त्याग और सद्भाव के अपवाद में लालू ने जिस प्रकार नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए जाने को संभव कर दिया है, वह 2019 में भी संभव है। लेकिन क्या वह राहुल होंगे या फिर अनुभवी मुख्यमंत्री नीतीश?