बुढ़ापे को कानून का सहारा

old ageसंगीता भटनागर। पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक मान्यताओं को पुख्ता करने में हिन्दी सिनेमा हमेशा से ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। हिन्दी सिनेमा ने जहां पुत्र की जिम्मेदारी उजागर करते हुए श्रवण कुमार जैसी फिल्में बनायीं तो उसने दूसरी ओर गांव की लड़कियों की आबरू की रक्षा करते हुए बेटे को गोली मारने जैसी मदर इंडिया भी हमें दी।
इसी तरह की सन् 1969 में एक फिल्म आयी थी-एक फूल दो माली। इस फिल्म में एक गीत था-तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा। इसकी अगली पंक्ति थी-आज उंगली थाम के तेरी तुझे चलना मैं सिखलाऊं, कल हाथ पकडऩा मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं।
लेकिन पिछले करीब दो दशकों के दौरान सामाजिक मूल्यों में आये बदलाव के कारण एक फूल दो माली फिल्म के इस गीत की अगली पंक्ति-तुम हाथ पकडऩा मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं, ऐसा लगता है कि अतीत की बात हो गयी है। आज स्थिति यह है कि परिवारों में वृद्ध माता-पिता और दूसरे बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा है। पुत्र-पुत्रियों और बहुओं तथा दामादों के इस आचरण के कारण आज घर की चारदीवारी के भीतर के विवाद अदालतों में पहुंचने लगे हैं।
पिछले दिनों अहमदाबाद में इसी तरह की एक घटना सामने आयी, जिसमें बेटे और उसकी पत्नी के साथ रोजाना की कलह से परेशान होकर 85 वर्षीय नारायणीदेवी ने वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण कानून 2007 के तहत जिला कलेक्ट्रेट में न्यायाधिकरण का दरवाजा खटखटाया। न्यायाधिकरण ने नारायणीदेवी के पक्ष में आदेश दिया और इसी के आधार पर उन्होंने अपने बेटे और बहू को पुलिस की मदद से घर से बेदखल कर दिया।
संप्रग सरकार ने 2007 में वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण कानून बनाया था। ऐसा लगता है कि इस कानून के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है और यह सिर्फ कानून की किताबों या संतानों से सताये जाने के कारण वकीलों की शरण लेने वाले वृद्धजनों तक ही सीमित रह गया है। करीब आठ साल पहले बना यह कानून काफी व्यापक होने के साथ ही सामाजिक मूल्यों की अनुभूति भी कराता है। इस कानून के तहत वरिष्ठ नागरिक का परित्याग दंडनीय अपराध है। इस अपराध के लिए तीन माह की कैद तथा पांच हजार रुपए जुर्माना हो सकता है। इस कानून के तहत भरण पोषण न्यायाधिकरण ऐसे वरिष्ठ नागरिक को उसके बच्चे या संबंधी से भरण पोषण के रूप में 10 हजार रुपए तक प्रतिमाह का भुगतान करने का आदेश दे सकते हैं। इस कानून में प्रावधान है कि न्यायाधिकरणों को ऐसे आवेदनों का निपटारा 90 दिन के भीतर ही करना होगा।
नारायणीदेवी गांधी के पुत्र राजेश गांधी और बहू ज्योति ने हालांकि अब गुजरात उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। फिलहाल उन्हें वहां से कोई अंतरिम राहत नहीं मिली थी। स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अब बेटा-बहू और बेटी-दामाद अपरिहार्य कारणों से अपने वृद्ध माता-पिता या परिवार के अन्य वृद्ध सदस्यों को साथ रखना नहीं चाहते। इसी का नतीजा है कि बेसहारा बन गये माता-पिता के लिये अब महानगरों में वृद्धाश्रम बनने लगे हैं।
घर के मुखिया या फिर वृद्धजनों को बेघर करने या वृद्धाश्रम में भेजने की मुख्य वजह आर्थिक तंगी नहीं बल्कि दिलों में आ गयी दूरियां ही लगती हैं। अदालतों में पहुंच रहे विवादों में अकसर यह देखा जा रहा है कि संतान ने माता-पिता की संपत्ति पर कब्जा करने के बाद उन्हें दरबदर की ठोकर खाने को मजबूर कर दिया।
वृन्दावन की विधवायें ऐसी ही प्रवृत्ति की जीती-जागती मिसालें हैं। इन विधवाओं के परिजन इन्हें अपने साथ रखना ही नहीं चाहते। इसकी वजह से ये वृन्दावन और मथुरा में भजन-कीर्तन और भिक्षाटन करके जीवन गुजारने के लिये मजबूर हैं। इन विधवाओं का मामला एक गैर सरकारी संगठन ने उच्चतम न्यायालय में उठाया था। मामले की गंभीरता को देखते हुए न्यायालय ने एक समिति गठित की। इस समिति की रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकार द्वारा संचालित चार आश्रयघरों में विभिन्न उम्र की 1700 से अधिक महिलाएं बेहद गरीबी और दयनीय स्थिति में रहती हैं। दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम हिस्सों में ऐसी हजारों घटनायें हो रही हैं, जिनमें संपत्ति हड़पने के लिये बूढ़े माता-पिता और अन्य वरिष्ठ नागरिकों को या तो घर से निकाल दिया गया है या फिर उन्हें ही घर छोड़कर वृद्ध आश्रम जैसी जगहों पर जाने के लिये बाध्य किया जा रहा है। ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं है जहां अकेलेपन से परेशान होकर ये वृद्ध खुद ही वृद्धाश्रम में आ गये हैं या फिर उनकी संतानों ने उन्हें वहां पहुंचा दिया है। समाज में वृद्धों के प्रति निरंतर बढ़ रहे अनादर का भाव खत्म करने के लिये जरूरी है कि गैर सरकारी संगठन वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कल्याण कानून के प्रति जागरूकता पैदा करने में सक्रिय भूमिका निभायें ताकि किसी बुजुर्ग को जीवन के अंतिम वर्षों में किसी वृद्धाश्रम में जाकर नहीं रहना पड़े।