पश्चिम पोषित आतंक के रक्तबीज

chama sharmaक्षमा शर्मा।
तुर्की का कमाल अतातुर्क हवाई अड्डा बम धमाकों से दहल गया। इस हवाई अड्डे का एक हिस्सा यूरोप में है और एक एशिया में। इस हमले में 41 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल भी हुए। कुछ वर्ष पूर्व मैं 2010 में पांच घंटे तक अपनी कनेक्टिंग फ्लाइट लेने के लिए इस हवाई अड्डे पर बैठी रही थी। यह देखकर चकित हो रही थी कि हवाई अड्डे के ऊपर एअरपोर्ट की जगह लिखा है-हवा। आग बुझाने के यंत्रों के नीचे लिखा था-यज्ञनाग्नि। यानी कि यज्ञ की अग्नि। इसका मतलब यज्ञ शब्द क्या यहां बना।
यह हवाई अड्डा बहुत बड़ा है। यहां इतनी Óयादा आवाजाही है कि लगता है जैसे किसी बस अड्डे पर बैठे हों। हवाई अड्डे के एक तरफ सड़क के पार दूर तक लहराता समुद्र और पानी पर चलती नौकाएं और क्रूज दिखते हैं। दूसरी तरफ दुनियाभर में मशहूर ब्लू मस्जिद भी दिखाई देती है। वहीं जिनेवा में रहने वाले एक बंगाली सÓजन से मुलाकात हुई थी। वे अपनी स्विस पत्नी के साथ थे और कह रहे थे कि तुर्की में रेडीकल्स बढ़ रहे हैं। यह मांग भी उठ रही है कि तुर्की को पश्चिम के संगठन नाटो से अलग हो जाना चाहिए क्योंकि नाटो अकसर इस्लामी देशों पर हमला करता रहता है।
तुर्की एक मुस्लिम बहुल देश है। यहां अस्सी प्रतिशत से अधिक सुन्नी मुसलमान रहते हैं। काफी खुला समाज है। बड़ी संख्या में औरतें बाहर दिखती हैं। वे काम करती हैं। इस खुलेपन का सारा श्रेय पिछली शताब्दी के शुरुआती वर्षों में तुर्की के शासक कमाल अतातुर्क को दिया जाता है। वह बेहद प्रगतिशील विचारों के थे। हालांकि एक वर्ग उन्हें तानाशाह कहता है और उनके किए सुधारों को पसंद नहीं करता। कमाल अतातुर्क ने औरतों की आजादी के पक्ष में काफी काम भी किया। उन्होंने एक तरह से औरतों को पर्दे से भी बाहर निकाला।
हालांकि अब एक लम्बे समय से तुर्की में कट्टरपंथी सिर उठा रहे हैं और अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। बताया जा रहा है कि तुर्की के शहर इस्तांबुल के अतातुर्क अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमला टूरिÓम से होने वाली आय को खत्म करने के लिए भी किया गया है। इन दिनों वहां सबसे अधिक टूरिस्ट आते हैं। एक बार आय के साधनों को खत्म कर दिया जाए, आर्थिक रीढ़ को कमजोर कर दें तो उस देश को पराजित करना और बर्बाद करना बहुत आसान होता है। जगह-जगह हुए इन बम धमाकों के लिए आईएस को जिम्मेदार माना गया है। धमाकों के बाद, तुर्की में छह आतंकियों को पकड़ा भी गया है। उनमें से एक विदेशी बताया जा रहा है। वहां आतंकवादियों को सिर पर नहीं उठाया जाता जैसा कि अकसर अपने यहां होता है। अपने यहां तो आतंकवादी पकड़े ही नहीं जाते। पकड़े भी जाते हैं तो साक्ष्यों के अभाव और राजनीतिक दवाब तथा वोट बैंक पालिटिक्स के चलते छूट जाते हैं।
पिछले कुछ सालों से आईएस ऐसी जगह हमला करवाता है जहां उसे अधिक से अधिक माइलेज मिले और साधारण लोग उसकी ताकत और क्रूरता से डरें। सिर कलम करते हुए उनके अपलोड किए वीडियो देखकर कौन नहीं थर्रा उठता। जिन लोगों ने आईएस को बनाया, उसमें अमेरिकी कूटनीति का भी हाथ है। अपने मामूली हितों के लिए जिन भस्मासुरों को अमेरिका और पश्चिमी ताकतों ने जगह-जगह खड़ा किया, वे अब उनकी तरफ ही लपक रहे हैं। इनमें चाहे आईएस हो या तालिबान।
एक तरीके से अमेरिका और पश्चिमी देशों ने पूरी दुनिया को आतंकवाद तोहफे में दिया है। जिसे आप हथियार थमाते हैं, दुर्दांत बनाते हैं, वह आपकी शक्ति की परीक्षा लेने और उससे निपटने तथा खत्म करने, आपकी तरफ ही दौड़ता है। ऐसा ही हो रहा है।
कहां हैं एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन वाच तथा अन्य मानवाधिकारों के नाम पर घडिय़ाली आंसू बहाने वाले संगठन। कश्मीर के मुद्दे पर जिनके बहुत आंसू आते थे, वे अब क्यों चुप हैं। या कि हमेशा की तरह आतंकवादियों के हाथों जो मारे जाते हैं, उनके लिए कोई आंसू नहीं बहाता। आखिर साधारण लोगों के लिए आंसू बहाने से कोई लाभ जो नहीं मिलता।
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का पहला वाक्य है कि कम्युनिÓम का भूत यूरोप को डरा रहा है। लेकिन अब इसे बदलकर इस तरह करना चाहिए कि दुनियाभर में फैले हथियारों के सौदागरों ने दुनिया को तबाह करने के लिए जो हथियार बनाए थे, वे उन्हीं की तरफ निशाना बांधकर फेंके जा रहे हैं। और आतंकवाद का भूत यूरोप को डरा रहा है। वहां त्राहि-त्राहि मची है। पश्चिमी देश एअर स्ट्राइक करके दो-चार को मारते हैं मगर आतंकवादी रक्तबीज की तरह सैकड़ों पैदा हो जाते हैं। वे घोषणा कर हमला करते हैं और कोई उन्हें नहीं रोक पाता। यह सिर्फ सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी ही नहीं है। इसमें लालची और दुनिया को अपने मुनाफे के लिए रौंदने वाले आर्थिक हितों की गाथा भी छिपी है।