जुबानी जंग में गिरावट की होड़

maya-swati3उमेश चतुर्वेदी।
भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की फिसली जुबान ने मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी के लिए प्राणवायु का काम किया है। लोकसभा चुनावों के दौरान अपना जमीनी आधार खो चुकी बहुजन समाज पार्टी के लिए दयाशंकर की फिसली जुबान उठ खड़ा होने और अपने वोट बैंक को फिर से बटोर पाने का मौका बनकर आई। लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा को जो समर्थन मिला था, हाल के दिनों में उसमें गिरावट मानी जा रही थी। उसे जोडऩे-जुटाने में भाजपा तेजी से जुटी थी, दयाशंकर की फिसली जुबान के बाद माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए जोडऩे-जुटाने की कवायद अब कठिन हो गई है।
इस बयान का भाजपा को कितना नुकसान होगा या कितना नफा, इस पर मीमांसा से पहले कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह देखना है कि बहुजन समाज पार्टी के देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन के दौरान जो कुछ हुआ, जो उसके कार्यकर्ताओं ने बोला, वह कितना जायज है। यह भी देखना होगा कि बहुजन समाज पार्टी के विरोध प्रदर्शन के दौरान जो तख्तियां प्रदर्शित की गईं, उन पर लिखे हर्फ कितने जायज रहे। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि बहुजन समाज पार्टी की एक महिला विधायक ने दयाशंकर सिंह की बारह साल की बेटी को लेकर जो कहा, क्या वह लोकतांत्रिक मर्यादा और संसदीय शब्दानुशासन की श्रेणी में आता है। और तो और, खुद मायावती ने जिस तरह देश की सर्वोच्च संसद के सदन राज्यसभा में जवाबी बयान दिया, क्या उसे भी जायज ठहराया जा सकता है। हैरत इस बात की है कि इन सवालों से मुठभेड़ की कोशिश न तो विपक्ष में दिख रही है और न ही सत्ता पक्ष में।
गांधी, नेहरू, पटेल, दीनदयाल, जयप्रकाश और लोहिया की वैचारिक राजनीतिक परंपरा का दावा करने वाले अधिसंख्य लोग ही आज राजनीतिक जमात के अहम हस्ताक्षर हैं। बदलाव की राजनीति के पैरोकार रहे हों या फिर पारंपरिक शुचिता की राजनीति के हस्ताक्षर, मर्यादित राजनीति को ज्यादातर लोग भूल चुके हैं। हालिया अतीत पर नजर डालें तो सियासी माहौल में बदजुबानी की कम होड़ नहीं रही है। याद कीजिए हाल ही में स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाए जाने की घटना को। तब जनता दल-यू के सांसद अली अनवर ने कहा था कि बेहतर है कि अब कपड़ा मंत्रालय में जाकर स्मृति ईरानी अपना तन ढंकेंगी। दिलचस्प यह है कि राजनीति में आने से पहले अली अनवर हिंदी भाषा के सम्मानित पत्रकार थे।
याद कीजिए शरद यादव के उस बयान को, जो उन्होंने राज्यसभा में दिया था। उन्होंने जिस तरह दक्षिण की महिलाओं को लेकर रोमांटिक किस्म की बात कही थी, वह क्या राज्यसभा जैसी बड़ी पंचायत के अनुकूल थी। दयाशंकर की फिसली जुबान से उठे बवंडर के बीच राजनीतिक वर्ग और मीडिया समूहों का एक हिस्सा बलात्कार पर दिए मुलायम सिंह यादव के उन दो बयानों को भी भूलता नजर आ रहा है, जिसमें से एक बयान में उन्होंने कहा था कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं। बयानों के तीर छोडऩे वाले मोहम्मद आजम खान भी इस परिदृश्य से नदारद नजर आ रहे हैं, जिन्होंने जयाप्रदा की तुलना वैशाली की नगरवधू से की थी। अतीत में बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह बनाने के लालू यादव के दावे को सिर्फ हंसी-मजाक में ही उड़ा दिया जाता है।
बसपा सुप्रीमो को अपना अतीत याद कर लेना चाहिए। 1993 तक तो उनकी ही पार्टी का नारा था-तिलक-तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। सवाल यह है कि क्या जूते मारना संसदीय और सार्वजनिक मर्यादा की श्रेणी में आता है। मायावती तो गांधी के राष्ट्रपिता होने के दर्जे पर भी सवाल उठा चुकी हैं। ऐसे बयानों की फेहरिस्त गिनाने लगें तो सियासी परिदृश्य ऐसा लगने लगेगा, मानो उसमें नीचे गिरने की होड़ लग गई हो।
इन अर्थों में देखें तो भाजपा कम से कम इस बार बाकी जहरीले बयानों के खिलाफ कार्रवाई की तुलना में बेहतर नजर आ रही है। कम से कम उसने अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ता दयाशंकर को अपने घर से ही बाहर कर दिया है। बेशक इसके पीछे उत्तर प्रदेश में उसे इस बयान से अपनी सियासी जमीन खिसकती नजर आना रहा हो। शायद यही वजह है कि पार्टी ने आनन-फानन में ना सिर्फ उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया, बल्कि पार्टी से भी छह साल के लिए निकाल बाहर किया।
लेकिन इस पूरे प्रकरण में सबसे बड़ा सवाल मायावती पर उठ रहा है। चूंकि वे दलित समुदाय से आती हैं और महिला हैं, इसलिए उन्हें और उनके कार्यकर्ताओं को यह छूट नहीं मिल जाती कि वे दयाशंकर सिंह की अल्पवयस्क बेटी को लेकर सार्वजनिक गालियां दें। यह मांग हो रही है कि दयाशंकर सिंह को गिरफ्तार किया जाये। सवाल यह भी है कि उनके खिलाफ बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जितनी गालियां दी हैं, उन सबके खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई होगी। इसके साथ यह भी सवाल है कि क्या ऐसी जुबानें बोलने वाले दूसरे दल भी अपने नेताओं पर ऐसी कार्रवाई करेंगे।