धर्मगुरुओं की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से मुक्ति मिले

ललित गर्ग। आज धर्म एवं धर्मगरुओं का व्यवहार एवं जीवनशैली न केवल विवादास्पद बल्कि धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत हो गयी है। नैतिक एवं चरित्रसम्पन्न समाज बनाने का नारा देकर तथाकथित धर्मगुुुरुओं ने अपने भौतिक एवं आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिये अशांति, अपवित्रता, असन्तलन एवं अंधकार को फैलाया है। राजनीति की ओर उनकी रवानगी, उनका व्यवसायी हो जाना, उनके सैक्स स्कैंडल का उछलना, उनके द्वारा महिलाओं का शोषण किया जाना गहरी सामाजिक बहस की मांग करता है। हाल में हमारे देश में ऐसे ही अनेक धर्मगुरुओं का उभार हुआ है। उनके प्रशंसकों की संख्या अब करोड़ों में है, उनका करोडों-अरबों का साम्राज्य है। इन तथाकथित बाबाओं एवं धर्मगुरुओं की अंध-भक्ति और अंध-आस्था कहर बरपाती रही है और उनसे जन-जीवन आहत है। इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं, मुख्य प्रश्न है कि कब तक इन धर्मगुरुओं एवं बाबाओं के स्वार्थों के चलते जनजीवन गुमराह होता रहेगा? कब तक इनकी विकृतियां से राष्ट्रीय अस्मिता घायल होती रहेगी? कब तक सरकारें इनके सामने नतमस्तक बनी रहेगी? कब तक कानून को ये अंगूठा दिखाते रहेंगे? कब तक जनता सही-गलत का विवेक खोती रहेगी? ये ऐसे प्रश्न है जिनका समाधान खोजे बिना इन धर्मगुरुओं एवं बाबाओं के त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण अपराधों एवं महत्वाकांक्षाओं से मुक्ति नहीं पा सकेंगे।कई कथित धर्मगुरुओं का व्यवसायी हो जाना तो आम बात है, लेकिन इन पर आपराधिक गतिविधियों के आरोप भी लगते रहे हैं। जमीन हड़पने और अवैध संपत्ति अर्जित करने के ही नहीं, हत्या और यौन शोषण के आरोप भी उन पर लगते रहे हैं। हैरानी की बात है कि इसके बावजूद ऐसे धर्मगुरुओं के पास भी लाखों लोग अंधभक्ति के साथ जाते हैं। इस तरह के लाखों अंधभक्त आज मौजूद हैं जिनसे तार्किक बहस करना लगभग असंभव है। जो धर्मगुरु अपराधों के आरोप से मुक्त हैं वे भी अपने संस्थानों के लिए तेजी से संपत्ति व भूमि जमा करने की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो सके हैं। उनमें भी वैभव प्रदर्शन एवं अपनी ताकत दिखाने की हौड लगी है। उनके आयोजन एवं संस्थाएं कानून को सरेआम नजरअंदाज करती है, इस संबंध में पारदर्शिता भी प्राय: उन्होंने नहीं अपनाई है। अब चंूकि ये धर्मगुरु राजनीति में असरदार भूमिका भी निभाना चाहते हैं अत: उनकी पारदर्शिता की जरूरत और बढ़ गई है। न केवल सरकारें बल्कि प्रशासन भी इन धर्मगुरुओं के आभामंडल में जी रहा है और इन और इनके समर्थकों की नाराजगी से बचना चाहता है? इन मामलों में हमारे राजनीतिक नेतृत्व के नकारेपन एवं वोट की राजनीति भी उभारती हुुई देखी गयी है। हमारे नेतागण किसी समुदाय विशेष का समर्थन हासिल करने के लिए उसका सहयोग लेते हैं और बदले में उसे अपना संरक्षण देते हैं। इसी के बूते ऐसे समुदायों के प्रमुख अपना प्रभाव बढ़ाते चले जाते हैं। प्रभाव ही नहीं अपना पूरा साम्राज्य बनाते जाते हैं। बात चाहे रामपाल की हो, आसाराम बापू की हो या फिर राम रहीम की- ऐसे धर्मगुरुओं की एक बड़ी जमात हमारे देश में खड़ी है। धर्म के नाम पर इस देश में ऐसा सबकुछ हो रहा है, जो गैरकानूनी होने के साथ-साथ अमानवीय एवं अनैतिक भी है।  इन धर्मगरुओं के मामलों में जहां कानून-व्यवस्था की भयानक दुर्गति और सरकार की घोर नाकामी आदि के अलावा भी अनेक सवालों पर हमें सोचने को विवश करता है। यह धर्म या अध्यात्म का कौन-सा रूप विकसित हो रहा है जिसमें बेशुमार दौलत, तरह-तरह के धंधे, अपराध, प्रचार की चकाचैंध और सांगठनिक विस्तार का मेल दिखाई देता है। इसमें सब कुछ है, बस धर्म या अध्यात्म का चरित्र नहीं है। इस तरह के धार्मिक समूह अपने अनुयायियों या समर्थकों और साधनों के सहारे चुनाव को भी प्रभावित कर सकने की डींग हांकते हैं, और विडंबना यह है कि कुछ राजनीतिक उनके प्रभाव में आ भी जाते हैं। यह धर्म और राजनीति के घिनौने रूप का मेल है। फटाफटा बेसूमार दौलत एवं सत्ता का सुख भोगने की लालसा एवं तमाम अपराध करते हुए उनपर परदा डालने की मंशा को लेकर आज अनेक लोग धर्म को विकृत एवं बदनाम कर रहे हैं, स्वार्थान्ध लोगों ने धर्म का कितना भयानक दुरुपयोग किया है, राम रहीम का प्रकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस बात पर जोरदार बहस की जरूरत है कि धर्मगुरुओं और राजनीति का गठबंधन देश के हितों के अनुकूल है या नहीं। दूसरा सवाल यह है कि कहीं इस गठबंधन से कुछ संवैधानिक सिद्धांतों, जैसे धर्म-निरपेक्षता का उल्लंघन होने का खतरा तो नहीं है। जब धर्मगुरु राजनीति की ओर आने की बात करते हैं, तो उनका सबसे बड़ा संदेश भ्रष्टाचार विरोध और नैतिकता का होता है। वे कहते है कि मौजूदा राजनीति की मुख्य समस्या भ्रष्टाचार है और वे उसे दूर करेंगे। राष्ट्र निर्माण के लिये यह बहुत अच्छा कार्य है पर क्यों न इसकी शुरूआत स्वयं धर्मगुरुओं के नाम पर ही हो रहे तरह-तरह के भ्रष्टाचार, धांधली एवं अन्य आपराधिक गतिविधियों को दूर करके की जाए? दुुुनिया को सुुधारने से पहले अपने आंगन को बुहार लिया जाए, ऐसा होने पर ही इन धर्मगरुओं की बातों पर लोगों को यकीन होगा। इस तरह की सार्थक पहल न कर प्राय: ये धर्मगुरु पूरे देश को अपनी नैतिक शक्ति के बल पर सुधारने का दावा करते हैं। वे जो कार्यक्रम लोगों के सामने रखते हैं वे अति सरलीकृत लोक-लुभावने कार्यक्रम होते हैं। करोड़ों रूपये खर्च करके वे लोगों को बड़े पैमाने पर एकत्र कर सकते हैं और ताली बजवा सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों में देश व दुनिया को बदलने की क्षमता प्राय: नगण्य ही होती है। इन बड़े-बड़े आयोजनों से कौनसा देशहित या समाजनिर्माण का कार्य होता है, कहना मुश्किल है। यह कैसी धार्मिकता है, यह कैसा समाज निर्मित हो रहा है जिसमें अपराधी महिमामंडित होते हैं और निर्दोष सजा एवं तिरस्कार पाते हैं। धर्म के ठेकेदारों का राष्ट्र में कैसा घिनौना नजारा निर्मित हुआ है। धर्म की आड में अपराध का साथ देने, दोषी को बचाने की यह मुहिम सम्पूर्ण मानवता एवं धार्मिकता पर भी एक कलंक है। यह देखा जाना भी समय की मांग है कि तथाकथित धर्मगुरु धर्म का पाठ पढ़ाते हैं या फिर अपने समर्थकों की फौज को धर्मांध बनाते हैं? धर्म एवं धर्मगुरुओं में व्याप्त विकृतियों एवं विसंगतियों से राष्ट्र को मुक्ति दिलाना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।धर्मगुरुओं के उभार का कोरा नकारात्मक प्र्र्र्रभाव ही नहीं है, कुछ संतुलित एवं वास्तविक धर्मगुरुओं का अच्छा असर भी देखा गया है। उनके प्रयासों से  बहुत से लोगों ने योग को अपनाया है, स्वास्थ्य व जड़ी-बूटियों संबंधी बहुत से अमूल्य परम्परागत ज्ञान को भी करोड़ों लोगों तक पहुंचाया गया है। नशामुक्ति की प्रेरणा एवं सकारात्मक वातावरण भी बना है, सामाजिक कुरीतियों एवं रूढिय़ों के खिलाफ भी जनजागृति का माहौल बना है, लोकतंत्र के प्रति जागरूकता के प्रयत्न भी हुए है। बड़ी संख्या में लोग स्वास्थ्य रक्षा के कुछ बुनियादी नियमों के प्रति सचेत हुए हैं। लेकिन धर्म की आड़ में जितनी बुराइयां फैल रही है, उसकी तुलना में यह बहुत कम है। जरूरत धर्मगुरुओं को वास्तविक धर्मगुरु बनने की है, एक संतुलित, आदर्श एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की है, पर धर्मगुरुओं की बढ़ती आकांक्षाएं, भौतिक साम्राज्य स्थापित करने एवं देश-दुनिया में अपनी यशकीर्ति बढ़ाने की अतिशयोक्तिपूर्ण इच्छाएं कई बार इस संतुलन को बिगाड़ देता है और लोग भ्रमित हो जाते हैं। इतना ही नहीं, कुछ धर्मगुरुओं ने अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए चमत्कारों का सहारा भी लिया है, हालांकि छोटे-मोटे जादूगर भी यह बता देते हैं कि ये चमत्कार वास्तव में हाथ की सफाई भर होते हैं। अंधविश्वासों व अंधभक्ति का सहारा लेकर लोकप्रियता प्राप्त करना अनुचित है। जो धर्मगुरु स्वयं इस राह को नहीं अपनाते हैं, वे भी अपने साथी धर्मगुरुओं के इस तरह के पाखंडों का पर्दाफाश करने का प्रयास नहीं करते। इन धर्मगुरुओं के बढ़ते पाखंड एवं आपराधिक गतिविधियों को समय रहते नहीं रोका गया तो यह ऐसा अंधेरा फैलायेगा, जिसमें बहुत कुछ स्वाहा हो जाना है।