लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है संसद का संचालन

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कृष्णमोहन झा।
संसद का मानसून सत्र गत 21 जुलाई को प्रारंभ हुआ था और 13 अगस्त को समाप्त हो गया। इस अवधि में तय कार्यक्रम के अनुसार 176 घंटे संसद की कार्यवाही चलना थी और 3150 सवाल पूछे जाने थे परन्तु संसद की कार्यवाही में व्यवधान के कारण 119 घंटे बिना किसी कामकाज के ही जाया हो गए। केवल 6 सवालों के उत्तर दिए गए और यह कठिन है कि 6 सवालों के जो जवाब सरकार की ओर से दिए गए उनसे प्रश्रकर्ता सांसद संतुष्ट हो गए है। संसद का कामकाज इतनी बार बाधित हुआ कि 255 करोड़ रुपए भी पानी में बह गए। कुल मिलाकर मात्र 32 प्रतिशत कामकाज हुआ और संसद को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। सदन के अन्दर हंगामे के कारण संसद का कामकाज जिस तरह प्रभावित हुआ उसकी क्षतिपूर्ति का विकल्प सत्र की अवधि बढ़ाकर खोजा जा सकता था परंतु इसमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने दिलचस्पी नहीं दिखाई और सरकार के पास तो यह तर्क मौजूद ही था कि जब कांग्रेस और वामदलों की रूचि सदन के कामकाज को ठप करने में ही है तो सत्र की अवधि बढ़ाकर भी किसी उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकती इसलिए मानसून सत्र को अनिश्चित काल के लिए तय समय पर ही स्थिगित करने का फैसला ले लिया गया। हो सकता है कि एक पखवाड़े के बाद संसद का विशेष सत्र बुलाकर जीएसटी बिल को पारित करने की कोशिश सरकार की ओर से की जाए। अब देखना यह है कि अगर सरकार इस विकल्प को अमल में जाने पर गंभीरता से विचार कर रही है तो वह अगले एक पखवाड़े में विपक्ष के साथ नए सिरे से संवाद प्रारंभ करने की कोई पहल करती है या नहीं।
अब सवाल यह उठता है कि संसद के मानसून सत्र के आखिरी दो तीन दिनों में जिस तरह की तल्ख टिप्पणियां सत्ता पक्ष एवं विपक्षी दल कांग्रेस के सदस्यों ने एक दूसरे के लिए की क्या उससे उपजी कटुता को आसानी से भुलाया जा सकता है। विपक्षी कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने संसद के अपने जिस रौद्र रूप के दर्शन कराए उसके पीछे उनकी यह अहसास कराने की मंशा अवश्य रही होगी कि वे अपनी पहले की पप्पू वाली छवि से बाहर निकलकर एक च्एंग्रीयंग मैनज् की छवि गढऩे के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके हैं। मेरी अपनी राय में तो वे काफी हर तक सफल भी हुए। राहुल गांधी इसे भी अपनी सफलता मान सकते हैं कि ललित मोदी की गोपनीय मदद को लेकर उन्होंने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर जो आरोप लगाए उसने विदेश मंत्री को इतना तिलमिला जाने पर विवश कर दिया कि वे आपा ही खो बैठीं। इसी तरह भाजपा के एक सदस्य की एक टिप्पणी को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का सदन के गर्भगृह में पहुंच जाना आश्चर्य का विषय बन गया। यह टिप्पणी सदन की कार्यवाही से निकाल दी गई। मुख्य रूप से मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के सदस्यों के भारी शोरगुल और व्यक्तिगत छींटाकशी के लिए जाना जाने वाला यह संसद सत्र अब ऐसे अनेक सवाल छोड़ गया है जिनके समाधान से ही इस संसद के आगे के सत्रों के सुचारू रूप से संचालन की संभावनाएं बलवती हो सकेंगी।
मेरे विचार से तो सबसे अहम सवाल यह है कि क्या सदन में प्रधानमंत्री की उपस्थिति के लिए सरकार को विवश करने का अधिकार विपक्ष को क्यों मिलना चाहिए। यह सही है कि राष्ट्रीय महत्व के गंभीर मुद्दों पर प्रधानमंत्री की मौजूदगी में चर्चा की मांग विपक्ष पहले भी करता रहा है जब आज की सत्ताधारी पार्टियां विपक्ष में बैठा करती थी। उस समय भी प्रधानमंत्री से चुप्पी तोडऩे की मांग होती थी और वही स्थिति इस बार भी संसद सत्र के दौरान दिखाई दी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वंसुधरा राजे सिंधिया द्वारा आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी की कथित मदद को लेकर प्रधानमंत्री के रूख को जानने के लिए अगर विपक्षी पार्टियां और विशेषकर कांग्रेस ने सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी परंतु अपना मौन न तोडऩे का दृढ़ निश्चय कर चुके प्रधानमंत्री से वह एक शब्द भी नहीं कहलवा पाई। सरकार की ओर से दूसरे मंत्री जवाब देते रहे परंतु प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को अनुग्रहीत नहीं किया। कांग्रेस अगर यह उम्मीद लगाए बैठी थी कि वह सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री की कुर्सी से हटवाने में सफल हो जाएगी तो इसकी रंचमात्र भी संभावना नहीं थी। सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान में से किसी का इस्तीफा संसद सत्र के दौरान नहीं होना था और आगे के लिए भी इन्हें अभयदान मिल गया लगता है। शायद कांग्रेस को भी अंदर ही अंदर यह अहसास तो था कि इनमें से किसी का भी इस्तीफा नहीं लिया जाएगा इसीलिए उसने सदन में आक्रामक और उग्र व्यवहार से अपनी ताकत का अहसास सरकार को करा देने का फैसला किया। सत्र की शुरुआत में ही इन तीन नेताओं के इस्तीफों की जो मांग उसने उठाई थी उसे अगर वह बीच में छोडकऱ संसद की कार्यवाही के सुचारू संचालन में सहयोग देने लगती तो उसके लिए यह पराजय स्वीकारने जैसा ही होता इसलिए कांग्रेस को सत्र की शुरुआत से लेकर उसके अनिश्चितकाल के लिए स्थगित होने तक उपनी मांग पर डटे रहना पड़ा परंतु सदन की कार्यवाही बाधित कर देने की जो तोहमत उसके ऊपर लग गई उसने कांग्रेस को परेशानी में तो डाल ही दिया है। संसद का मानसून सत्र स्थगित हो जाने के बाद अब कांग्रेस को गंभीरता के साथ यह विचार करना होगा कि संसद के अंदर उसकी मांग पूरी न होने के बाद वह अब किस तरह सरकार को घेरने में सफल हो सकती है। उसे यह भी तय करना होगा कि संसद की कार्यवाही को बाधित किए बिना वह सशक्त विपक्षी दल के रूप में सरकार के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकती है। चूंकि वस्तु एवं सेवा कर विधेयक के लिए स्वयं कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने पहल की थी इसलिए उसे पारित कराने में तो उसको सहयोग प्रदान करना ही चाहिए परंतु उसे यह रणनीति भी तैयार करना चाहिए कि केन्द्र में उसके कार्यकाल में हुए फैसलों पर अगर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी अमल करते है तो उसका श्रेय कांग्रेस के खाते में भी दर्ज हो। दरअसल हमारे संसदीय लोकतंत्र में एक कमी यह भी है कि एक दल की सरकार अपने कार्यकाल में जिन फैसलों को अमल में नहीं ला पाती वही फैसले अगर दूसरे दल की सरकार अमल में लाने के लिए पहल करती है तो पर्वूवर्ती सरकार के घटक दल उसका विरोध करने के बहाने खोजने लगते है। उदाहरण स्वरूप कांग्रेस आज यह कह रही है कि वह वस्तु और सेवाकर विधेयक की विरोधी नहीं है वरन उसका विरोध इस मामले में आवश्यक प्रक्रिया न अपनाए जाने को लेकर है। इसी तरह अगर आज की भाजपा नीत केंद्र सरकार संसद के अंदर हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही बाधित होने का आरोप कांगे्रेस पर लगा रही है तो वह यह क्यों भूल जाती है कि अतीत में अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए ऐसे ही उपाय वह भी अपना चुकी है लेकिन जैसे को तैसा की रणनीति को अमल में लाकर संसदीय लोकतंत्र की सफलता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। सभी दलों को मिलकर इस स्वतंत्रता दिवस पर यह संकल्प लेना होगा कि संसद की कार्यवाही के सुचारू संचालन में सक्रिय सहयोग प्रदान करने से कभी पीछे नहीं हटेंगे इसी बिंदु पर मैं अपना यह मतव्य अवश्य प्रगट करना चाहूंगा कि प्रधानमंत्री स्वयं भी अगर विपक्ष के साथ संवाद प्रारंभ करने की पहल करेंगे तो निश्चित रूप से वह उनके बड़प्पन का ही परिचायक होगा। सुलह का रास्ता सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर ही निकालना होगा। खेद की बात यही है कि दोनों पक्षों ने इसे प्रतिष्ठा की लड़ाई का रूप दे दिया है।