न्यायिक फैसलों से छिड़ेगी महिला अधिकारों की बहस

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पिछले दिनों देश के दो राज्यों के उच्च न्यायालयों ने महिला उत्पीडऩ के मामलों में चौंकाने वाले फैसले दिये हैं जो आने वाले दिनों में महिला अधिकारों पर बने कानूनों पर नयी बहस छेडऩे के लिए पर्याप्त हैं। पहला ताजा फैसला तो पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय ने एक बलात्कार मामले में दिया, जिसमें बलात्कार के आरोपी को जमानत देते हुए कहा गया कि मान-प्रतिष्ठा व शालीनता के साथ-साथ अपनी पवित्रता को कायम रखना एक महिला की ही जिम्मेवारी है। यह फैसला अदालत ने महिला द्वारा दायर उस केस पर सुनवाई करते हुए दिया, जिसमें महिला ने आरोप लगाया था कि आरोपी पुरुष ने डेढ़ साल तक उससे संबंध बनाये रखे और बाद में शादी करने से मुकर गया। अदालत का मानना था कि विधवा महिला और पुरुष दोनों ने अपनी मर्जी से संबंध बनाये थे। खासकर महिला जानती थी कि पुरुष विवाहित है और दो बच्चों का बाप भी। जबरदस्ती किसी का यौन उत्पीडऩ बलात्कार की श्रेणी में आता है लेकिन इस केस में ऐसा नहीं। ऐसे में एक पक्ष का दूसरे पर शोषण, बलात्कार का केस दायर करना नेक-नीयती नहीं बल्कि कानून के दुरुपयोग की श्रेणी में आता है।
दूसरा, मामला बाम्बे हाईकोर्ट का है, जिसमें अदालत ने 60 हजार रुपये कमाने वाली महिला को उसके पति से 70 हजार रुपये प्रति माह गुजारा भत्ता देने के आदेश दिये। हिन्दू कानून की धारा 24 पति की कमाई पर भी उतनी ही लागू होती है, जितनी पत्नी पर। अब महिलाएं आत्मनिर्भर हैं। कई मामलों में तो पत्नी का पैकेज पति से कहीं ज्यादा है। ऐसे दंपति की कभी किसी वजह से अनबन होने पर पत्नी द्वारा गुजारा भत्ते के लिए पति को अदालत में खींचना बदनीयत व दुर्भावना है। पहले महिलाओं की कमाई का कोई जरिया नहीं था लेकिन आज महिला पढ़-लिखकर स्वावलंबी हो गयी है। यह स्वावलंबन उनमें स्वाभिमान की भावना पैदा करता है। मगर स्वाभिमान की रक्षा के नाम पर किसी को परेशान करना बदनीयत कहलायी जायेगी। कानून हमें शोषण और किसी तरह की ज्यादती से बचाने के लिए बने हैं। मगर इन्हीं कानूनों का सहारा लेकर हम किसी को उत्पीडि़त करते हैं, धोखा देते हैं तो यह कानून की भावना के खिलाफ है, भले ही वह महिला हो या पुरुष।