गुजरात से उभरा एक वैकल्पिक सत्य

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हरीश खरे।
नरेन्द्र मोदी क्योंकि बहुत ही चुस्त व्यक्ति हैं, वह इस तथ्य को पहचानने वाले पहले व्यक्ति होंगे-हालांकि वह इसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे-कि अगस्त 25, 2015 वह दिन है जब गुजरात ने अंतत: उन्हें अस्वीकार करने की प्रक्रिया शुरू की। भावी इतिहासकार 25 अगस्त को एक ऐसी तिथि के रूप में अंकित कर सकते हैं जिस दिन सब कुछ छितरा गया और मोदी की राजनीतिक ढलान शुरू हो गयी। यह अतिरंजनापूर्ण बयान है? अतिशयोक्ति है? एक खयाली पुलाव है? मार्च 2002 से अगस्त 24, 2015 तक नरेन्द्र मोदी के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति, वस्तुत: कोई भी दूसरा व्यक्ति, ऐसा नहीं था जो गुजरात के किसी भी हिस्से में पांच लाख लोगों की भीड़ जुटा सके। पिछली बार जब इतने बड़े स्तर पर लोगों का जमावड़ा हुआ था, वह पिछली सदी के आठवें दशक के मध्य हुआ था, नवनिर्माण आंदोलन के दिनों में। अहमदाबाद के ठीक हृदय-क्षेत्र में, अगस्त 25 का विराट जमावड़ा, मोदी की अनिच्छा और गुजरात के राजनीतिक घटनाक्रम पर उनकी कड़ी निगरानी एवं नियंत्रण के बावजूद हुआ। और 2002 के बाद से नागरिक प्रशासन की मदद के लिए सेना को नहीं बुलाया गया है। कर्फ्यू, पुलिस गोलीबारी, मौतें जैसे शीर्षक बीते युग की बात हो चुके हैं, हमें यही बताया जा रहा था। वह रॉकस्टार, जिसने मेडिसन स्कवायर गार्डन में उपनगरीय गुजरातियों को चमत्कृत कर दिया था, हार्दिक पटेल नाम के एक नवोदित द्वारा अपदस्थ कर दिया गया है। स्थानीय पटेल समुदाय हार्दिक के इशारे पर नाच रहा है।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि केवल दस दिन पहले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री लालकिले की भव्य प्राचीर का इस्तेमाल हमें जातिवाद और सम्प्रदायवाद के खतरे के प्रति आगाह करने के लिए कर रहे थे। और कुछ ही दिनों के उपरांत वह गया (बिहार) में थे, उस बीमारू राज्य पर उपकारों और विशेष पैकेजों की बौछार करते हुए, अपने स्वयं के विकास की राजनीति के प्रशस्ति गान गाते हुए और नीतीश कुमार तथा लालू प्रसाद यादव जैसे जाति की राजनीति करने वालों के विरुद्ध प्रवचन देते हुए। अब स्वयं उनके अपने घरेलू मैदान पर जातीय गणनाएं तथा मांगें गर्व से सिर उठाकर खड़ी हो गयी हैं। यह जो पटेल विस्फोटन हुआ है, उसकी एक पृष्ठभूमि है। यहां उस पृष्ठभूमि को याद करना जरूरी है।
1981 में ये अहमदाबाद के उपनगरीय क्षेत्र खादिया के पटेल थे, जिन्होंने आरक्षण की नयी नीतियों के विरुद्ध उग्र आवाज उठायी थी। उस समय उनका यह आंदोलन माधव सिंह सोलंकी नीत नवनिर्वाचित कांग्रेस सरकार के विरुद्ध था। कांग्रेस ने खाम रणनीति पर सवार होकर सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी। खाम यानी केएचएएम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) के समावेशी वादे ने व्यापक लाभ देने वाले चुनाव परिणाम दिये; और गुजरात का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह रूपांतरित हो गया। वे पटेल जो दशकों से गुजरात की राजनीति पर हावी थे, यहां के नियंत्रणकारी राजनीतिक गलियारों से परे खिसका दिये गये। 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने राजनीतिक वर्चस्व को अधिक मजबूत करते हुए जीत की पुनरावृत्ति की। पटेल समुदाय को एक बार पुन: आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाने का बहाना मिला। अगड़ी जातियों, विशेषकर पटेल समुदाय के, इस असंतोष को आसानी के साथ हिंदुत्ववादी नव-परियोजना में खपा लिया गया। वर्षों तक हिंदुत्ववादी ताकतें इस बात पर अपनी पीठ थपथपाती रहीं कि किस तरह वे जाति आधारित खाम और वंचितों के सामाजिक समुच्चयन की इसकी समावेशी राजनीति की हवा निकालने के लिए धार्मिक मुहावरे का इस्तेमाल करने में सफल रही थीं।
अब वे ही पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं। गुजरात 1981 के दिनों में लौट गया है। पटेल लोग मोदी के मुख्य समर्थक थे/हैं। वे देश में और देश के बाहर प्रवासी भारतीयों के तौर पर 2002 के बाद के मोदी और उनके आख्यान के निरंतर समर्थन में काफी वाचाल, आक्रामक और आग्रहपूर्ण रहे हैं। अब, 2015 में भाजपा के उन्हीं प्रभाव क्षेत्रों में हिंसा के फूट पडऩे की खबरें मिल रही हैं। यह तर्क देना संभव है कि पाटीदार विस्फोटन यह संकेत देता है कि वे वस्तुगत परिस्थितियां, जिन्होंने गुजरात में मोदी परिघटना को पंख दिये थे, मई 16, 2014 को निरर्थक हो गयी। विशुद्ध व्यावहारिक राजनीति के अर्थ में 2002 के कार्यक्रम ने अंतत: अपना प्रयोजन खो दिया है।
इसे थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करें। 2002 के बाद के मोदी और भाजपा गुजराती अस्मिता की रक्षा की बड़ी लड़ाई में गुजरातियों को लामबंद करने, उत्साहित करने और अपने साथ जोडऩे में सफल रहे हैं। पाटीदारों ने नव हिंदू हृदय सम्राट का भरपूर स्वागत किया, पहली बार तब जब उन्होंने वाजपेयी के विरुद्ध संघर्ष किया जब वाजपेयी विचित्र राजधर्म मंत्र का जाप कर रहे थे। फिर तब स्वागत किया जब उन्होंने उस सोनिया गांधी से टकराहट मोल ली जिन्होंने उनके ऊपर मौत का सौदागर आरोप चस्पा किया था, उसके बाद वे उस जहरीले संप्रग के विरुद्ध अपने सम्राट के साथ खड़े रहे जो नकली मुठभेड़ मामले में जिम्मेदारी की मांग कर रहा था।
दिल्ली की लंबी यात्रा वांछित विजय के साथ समाप्त हुई। वे वस्तुगत परिस्थितियां जिन्होंने मोदी परिघटना को बनाए रखा था, अचानक ही तिरोहित हो गयीं। हिंदू हृदय सम्राट अब उस सबका शासक और अधिपति है, जिसका वह रायसीना पहाड़ी से पर्यवलोकन करता है, छद्म- धर्मनिरपेक्षवादी अब धूल चाट रहे हैं, और यहां तक कि न्यायपालिका भी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और व्यवहारों को बनाए रखने के प्रति निरुत्साहित दिखती है। केंद्रवाद का विरोध जो गुजरात में मोदी परिघटना का मुख्य मोर्चा बना था, वह मई 24, 2014 को उस समय भंग हो गया जब राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में नये प्रधानमंत्री ने पद की शपथ ग्रहण की। गुजरात के बहुसंख्यकों के पास अब डरने को कुछ नहीं है। उनका रक्षक अब मुख्य दंडाधिकारी और शासनाधिकारी है। भयभीत मुसलमान अपनी दयनीय मलिन बस्तियों में पहले ही वापस लौट चुके हैं।मोदी परियोजना की पर्याप्त उजागर सांप्रदायिक टेक की बात अलग, यह पाटीदार विस्फोटन मांग करता है कि विकास के गुजरात माडल के नाम पर हमें जिन-जिन बातों पर भरोसा करने के लिए बाध्य किया गया था, उन सबका संतुलित मूल्यांकन हो।
कथित गुजरात मॉडल का झीनापन अब अत्यधिक प्रदर्शनात्मक ढंग से उजागर हो चुका है। जो लोग इस मॉडल के नाम पर किये गये दावों पर सवाल उठाते थे, उन्हें गुजरात विरोधी ठहरा दिया जाता था और उन्हें छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बताकर उनकी निंदा की जाती थी। बढ़ती हुई आर्थिक असमानताओं की पीड़ा को कभी भी इस गुंजायमान गुजरात वाले नजरिए में हस्तक्षेप नहीं करने दिया गया। बल्कि, जो लोग कठोर आर्थिक यथार्थ के निचले छोर पर खड़े थे, उन्हें हिंदुत्व के अलंकरण और अनुष्ठानों से नवाज दिया गया। पर यथार्थ अभी तिरोहित नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, किसी को भी यह पूछने की अनुमति नहीं मिली कि सानंद की सुप्रसिद्ध नैनो परियोजना में कितने स्थानीय गुजरातियों को रोजगार उपलब्ध हुआ। यहां तक कि, किसी को भी यह तक पता नहीं कि गुजरात सरकार और टाटा के बीच अनुबंध की शर्तें क्या थीं। हमें जो बताया गया, वह यह है कि कैसे एक व्यवसाय समर्थक, बाजार समर्थक, विकास समर्थक, औद्योगिकीकरण समर्थक मुख्यमंत्री ने एक ऐसे उद्यमी को फुसलाने का अवसर हथिया लिया, जिससे पश्चिम बंगाल के पश्चगामी राजनेता नफरत करते थे। यह वह निर्णायक क्षण था जब मोदी मॉडल की गुंजायमानता को पुन: पुष्ट और प्रतिष्ठित कर दिया गया। शीघ्र ही उद्योग जगत के कप्तान तत्काल मुख्यमंत्री को अच्छे चाल-चलन का प्रमाणपत्र जारी करने के लिए अहमदाबाद में लाइन लगाकर खड़े हो गये। दिल्ली यात्रा का मार्ग तय कर लिया गया।
2014 से पहले और उसके बाद ऐसे चीयर लीडरों की कमी नहीं थी जो मोदी परिघटना और इसकी प्रासंगिकता की तारीफ के पुल बांध रहे थे तथा मांग कर रहे थे कि मोदी माडल को देशभर में दोहराया जाये। ऐसे पंडितों में जो श्रेष्ठतम बड़े विद्वान थे, ने घोषणा कर दी कि भारत विकास, योग्यता, संवृद्धि, मुक्तिदायी आधुनिकता के नये व्याकरण में पूरी तरह दीक्षित हो गया है। लेकिन अगस्त 25 को एक नया यथार्थ उभरकर आया।यदि विकास का गुजरात मॉडल इतना ही सफल, इतना ही रूपांतरकारी, इतना ही क्रांतिकारी था तो मात्र 21 साल का एक युवक जाति केंद्रित लामबंदी का आधार कैसे बन सका? और क्यों बिहार को किसी अनुमानित जाति-पार विकास के शब्दाडंबर पर भरोसा कर लेना चाहिए?