बिहार चुनाव और सोशल साइट पर सक्रियत

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बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें आ गई हैं। चुनाव 12 अक्टूबर से शुरू होकर पांच चरणों में 5 नवंबर को संपन्न होगा। यानी राज्य में करीब एक महीना तक चुनावी माहौल बना रहेगा। लंबा चुनावी दौर आम तौर पर साधन-संपन्न दलों को फायदा पहुंचाता है। इससे चुनावी अटकलों और कयासबाजी को बल मिलता है, जिससे मतदाता प्रभावित होते हैं। यह सही है कि बिहार ने अतीत में चुनावी हिंसा झेली है, पर अब स्थितियां बदल गई हैं। बेहतर होता कि कम अवधि में ही चुनाव निपटा लिए जाते।
बहरहाल, प्रचार के पारंपरिक तरीकों के लिए विख्यात इस राज्य में अबकी बार नया चुनावी रंग देखने को मिलेगा। लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने हाईटेक प्रचार से सबको चौंका दिया था। लेकिन इस बार दूसरे दल भी इस पर ध्यान दे रहे हैं। इसलिए इस बार दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वी पक्षों की तरफ से तकनीक का जबर्दस्त प्रयोग देखने को मिलेगा। सोशल वेबसाइट पर सक्रियता अभी से देखी जा रही है। सच कहें तो यह महज एक राज्य का इलेक्शन नहीं रह गया है। लगभग सभी पार्टियां इसे आम चुनाव पार्ट-2 के रूप में लड़ रही हैं। केंद्र की बीजेपी सरकार और विपक्ष, दोनों ने इसमें अपना सब कुछ झोंक देने का इरादा जाहिर कर दिया है। एक तरफ जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस का महागठबंधन है तो दूसरी तरफ विस्तारित एनडीए। केंद्र सरकार अपनी थैली जितना खोल सकती थी, खोल चुकी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार को एक लाख 65 हजार करोड़ रुपये की सौगात दे चुके हैं। दरअसल बिहार में मोदी के निजी करिश्मे की परीक्षा भी होनी है। उनकी अजेयता का मिथक वैसे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में ही टूट गया था, लेकिन बीजेपी उसे अपवाद साबित करने पर तुली हुई है। इस तरह बिहार में ही तय होगा कि जनता का भरोसा मोदी सरकार में अब भी पहले जैसा ही है, या इसमें तेज गिरावट आई है। दूसरी तरफ देश का अपोजिशन यहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लोकसभा चुनाव ने उसको लगभग हाशिए पर ला पटका था। लेकिन धीरे-धीरे संसद और उसके बाहर विपक्ष ने अपनी बिखरी ताकत समेटनी शुरू की है। इस क्रम में नीतीश कुमार ने अपने सबसे प्रबल विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया। इससे बाकी पार्टियों को भी जम कर लडऩे की प्रेरणा मिली है।
दोनों गठबंधनों से अलग छह वामपंथी पार्टियों ने भी आपस में हाथ मिलाया है। उनकी ताकत कुछ क्षेत्रों में ही सीमित है, मगर उनकी मौजूदगी चुनाव प्रचार को कुछ अलग रंग देगी। वैसे चुनाव मैदान में खड़े दो बड़े गठबंधनों के भीतर हर रोज जैसी हलचलें हो रही हैं, वे इस बात का संकेत हैं कि परस्पर विरोधी हितों को समेटकर चलना अब आसान नहीं रह गया है। जैसे, हाल तक जनता परिवार के साथ खड़े मुलायम सिंह यादव अचानक उससे अलग हो गए हैं। दूसरी तरफ एनडीए के भीतर भी टिकट को लेकर जबर्दस्त मारामारी है। यह इस बात का संकेत है कि आम चुनाव से अब तक सियासत का मुहावरा काफी बदल चुका है।