कुछ खास करने की बेला है

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अरविंद त्रिपाठी। दबंग और माफिया भूमि और भवन पर कब्जा करते हैं। दबंग और माफिया कोई हो सकता है। सफेदपोश और नकाबपोश दोनों। जड़, जमीन और जंगल पर कब्जा करने की तरह ही दिल और दिमाग पर भी जबरिया कब्जा किया जाता है। अपनी जमीन पर असहाय आखों से कब्जा होते देखते रहने की तरह लोग समय गुजर जाने के बाद अपने मन और मस्तिष्क पर कब्जा कर लिए जाने की बात समझ पाते हैं। पांच साल तड़पते हैं। गरीबी और गुरुबत में घिसटती अपने जिन्दगी के लिए नेताओं को कोसते हैं। ऐसा करके वह पूरी मासूमियत के साथ भले ही अपने दोष को छिपाने की कोशिश करते हैं लेकिन कर्ज और जुगाड़ के तंग पिजड़े में कैद उनकी जिन्दगी, उन्ही से उनके करतूत की सच्चाई बयां करती रहती है। तब हाथ मलते हुए एक हारे जुआड़ी की तरह वह अपनी आत्मा की आवाज को सुनते हैं, गुनते हैं अगली बार अपने न छले जाने की कसमें खाते हैं लेकिन..शरीर से स्वयं को आजाद मानने वाली अधिसंख्य जनता यह मानने को तैयार नहीं है कि वह पीढिय़ों पहले से जातिय और धार्मिक सूबेदारों की गुलाम है। गुलामी उनके खून में है। उनके पूर्वज अंग्रेजों के गुलाम थे और अब उन्ही की वंशजें जाति, धर्म और सम्प्रदाय पर हुक्म चलाने वाले हुक्मरानों की गुलाम हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि तब जबरन गुलामी थी आज वही गुलामी स्वेच्छा से है। तब अपनी इच्छा से कुछ करने की आजादी नहीं थी। आज लोग अपनी इच्छा से जाति और मजहब के कारागार से बाहर आने को तैयार नहीं हैं। तब अपनी स्वेच्छा से जीवन जीने की जो छटपटाहट थी, आजादी के बाद वही छटपटाहट जाति-धर्म से संक्रमित होकर कोमा में जा चुकी है।
आज इच्छा विकास की है, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छा जीवन देने की है लेकिन पतित मन, जाति और मजहब की गुलामी से त्रस्त है। लिहाजा अपनी दुर्दशा की सारी व्यथा-कथा जानने के बाद भी परतंत्र मन जाने-अनजाने जाति और मजहब की परिधि में औंधे मुंह गिर पड़ता है। फिर भावी जिन्दगी बौखलाहट, बेचैनी और घबराहट के साथ पांच साल की गुलामी काटती है। फिर अगला पांच साल। तिल-तिल कर जीता-मरता गुलाम भारत पीढ़ी दर पीढ़ी श्मशान और कब्रिस्तान तक पहुंचता जा रहा है। छद्म (नकली) स्वतंत्रता के तीब्र मानसिक प्रवाह में आदमी तिनके की तरह बहता जा रहा है। धारा के विपरीत खड़े होने का उसमें साहस नहीं। माद्दा नहीं, योग्यता और काबलियत नहीं। जाति, विरादरी की यह कमजोरी वंशानुगत गुणों (डीएनए) की तरह उसकी संतानों में भी उतरेगी, जैसा कि आज तक उतरती आई है। वंश परम्परा से मिले इस नाकारात्मक गुणों के आधार पर सौ प्रतिशत तय है कि जिस तरह हमारे पूर्वज जोड़-बटोर कर जीते थे, जिस तरह हम जोड़-घटाकर इज्जत बचाने को प्रयासरत हैं। थोड़ा-बहुत अंतर के साथ हमारी औलादें भी इसी तरह जिन्दगी को घसीट कर जीने के लिए विवश होंगीं।होशोहवास में कसम खाना होगा। योग्य व्यक्ति को ही वोट करेंगे। चाहे वह किसी जाति या धर्म का हो। बिना इस प्रण के हम सब नेक इरादों की शव यात्रा में एक अंक मात्र बने रहेंगें। हम नमक और प्याज से रोटी खाकर जीवन को दीर्घायु करने में जुटे रहेंगे जबकि माननीय लोग संसद की कैण्टीन में 10 रुपए में मुर्ग-मुसल्लम उड़ाते रहेंगे।