नाम की राजनीति कितनी मुफीद

politics-word-cloud

सियाराम पांडेय शांत। डाक टिकटों पर अब इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के चित्र नजर नहीं आएंगे। केंद्र सरकार प्राप्त टिकटों की जो नई सीरीज जारी करने जा रही है, उसके मुताबिक तो कुछ ऐसा ही है। नई सीरीज में पं. दीनदयान उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया आदि के नाम शामिल है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर 5 रु. के डाक टिकट जारी किये जाते हैं लेकिन केन्द्र सरकार ने इन दोनों ही नामों को डाक टिकटों की सूची से हटाने का निर्णय लिया है। जवाहर लाल नेहरु, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, सत्यजीत राय, होमी जहांगीर भाभा, जे.आर.डी. टाटा और मदर टेरेसा के नाम भी नई सीरीज में शामिल रहेंगे, ऐसा विश्वास व्यक्त किया गया है।
सवाल इस बात का है कि सरकार ने इंदिरा और राजीव गांधी के नाम पर डाक टिकट न छापने का निर्णय क्यों लिया? यह डाक टिकट सामान्य कागज के टुकड़े नहीं है। देश के नागरिक के सम्मान में सरकार द्वारा जारी किये गये कागज के सिक्के जैसे है। विदेशों में वहां की मुद्राओं पर जीवित राजाओं या मृत महापुरुषों के चित्र छापे जाते हैं। और उन्हें किसी भी सूरत में सिक्कों से हटाया नहीं जाता। वैसे भी राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के नाम पर डाक टिकटों के प्रकाशन का निर्णय इस देश की चुनी हुई सरकार ने लिया था। तो फिर उसे अचानक हटाने की जरूरत क्यों पड़ी क्योंकि अब दोनों ही राजनैतिक हस्तियां इस धरती पर नहीं है। मृत्यु के उपरांत तो किसी भी प्रकार की खता होती ही नहीं। डाक टिकट तो किसी भी नागरिक की विशेष उपलब्धि को याद करने के लिए जारी किये जाते हैं।इंदिरा गांधी ने भारत-पाक युद्ध में भारत को मजबूती दी थी। बांग्लादेश को पाकिस्तान को अलग कराकर पूरे विश्व में भारतीय कूटनीति का परचम का झण्डा लहराया था। उनकी इस उपलब्धि का पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें आयरन लेडी आफ दुर्गा की उपाधि दी थी। इंदिरा गांधी के दौर में भारत की विदेश नीति की सभी लोहा मानते थे। वहीं राजीव गांधी ने भारत को आधुनिक बनाने की कोशिश की। उसे कम्प्यूटर विधा से जोड़ा। आज अगर अधिकांश हाथों में कम्प्यूटर, मोबाइल और लैपटॉप है तो उसका श्रेय राजीव गांधी को जाता है। उनके इस अवदान को हम कमतर कैसे आंक सकते है। कांग्रेस का यह आरोप हो सकता है कि नरेंद्र मोदी सरकार राजनैतिक दुर्भावनावश ऐसा कर रही है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम हटाना तो शुरुआत भर है। सरकार तो पं. जवाहर लाल नेहरू का भी नाम डाक टिकटों से हटा सकती है। केंद्र सरकार की तमाम विकासशील योजनाओं से पहले ही इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम हटाए जा चुके हैं। बहुत सारी योजनाओं से अभी भी उनके नाम हटने हैं और मोदी सरकार इस दिशा में सचेष्ट भी है।
निश्चित तौर पर केंद्र सरकार ने यह निर्णय बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का मनोबल तोडऩे के लिहाज से लिया है। अम्बेडकर पर सिक्का जारी करने की घोषणा तो केंद्र सरकार पहले ही कर चुकी है। इसके पीछे उसकी योजना दलितों के बीच यह संदेश देने की है कि वह उनके मान बिन्दुओं की सुरक्षा के प्रति बेहद गंभीर है। नरेंद्र मोदी कांग्रेस के परिवारवाद की निरन्तर मुखालफत करते रहे हैं। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के डाक टिकटों का ना छापा जाना उनकी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को कदाचित वे यह संदेश देना चाह रहे है कि उनकी पार्टी कांग्रेस के परिवारवादी राजनीति को हरगिज बर्दाश्त कर पाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में उन्हें हाल ही में आया बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी का वह बयान याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि भाजपा और उससे जुड़े राजनैतिक दल अपने परिवार को ही टिकट दे रहे हैं। फिर वे हमारे ऊपर परिवारवाद की राजनीति का आरोप क्यों लगा रहे हैं?
आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है कि किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती का (प्रधानमंत्री से बड़ा और महत्वपूर्ण पद और क्या हो सकता है।) नाम डाक टिकटों की प्रकाशन श्रृंखला से बाहर कर दिया। बिना यह जांचे-परखे कि उनका नाम इस श्रृंखला में पहले क्यों शामिल किया गया और उसे आनन-फानन में हटाने की जरूरत क्या आ पड़ी। पं. दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी संघ के आदर्श रहे हैं। उन्होंने इस देश को बहुत कुछ दिया है। उनका यथेष्ट मूल्यांकन पूर्ववर्ती केंद्र सरकार करती, तां कदाचित यह ज्यादा उपयुक्त होता लेकिन देश में जिस तरह चीन्ह-चीन्ह कर अपनों को महिमामंडित किया जा रहा हैं। उसकी जितनी भी आलोचना की जाए, कम है। केंद्र सरकार का इस लिहाज से यह प्रयास सामयिक हो सकता है। उसकी सोच हो सकती है कि हम अगर अपनों को सम्मान नहीं दे सकते तो औरों से अपेक्षा क्यों रखें। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अपने बुत बनाते वक्त भी शायद यही सोचा होगा। पं. दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम डाक टिकटों की प्रकाशन श्रृंखला से जोड़कर केंद्र सरकार ने उनकी वैचारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक थाती को संजोने का ही नाम किया है। लगे हाथ जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के नाम पर अपनी सहमति की मुहर लगाकर उन्होंने बिहार और यूपी की राजनीति में अपना कद बढ़ाने की भी प्रच्छन्न कोशिश की है। जयप्रकाश नारायण का बिहार में बेहद सम्मान है। उनके बहाने भाजपा का बिहार का राजनीति दुर्ग फतह करना चाहते हैं। यही वजह है कि प्रधानमंत्री लोहिया और जे.पी. के चेलों को अक्सर आईना दिखाते रहते हैं। महागठबंधन की राजनीति पर भी उन्होंने शरद यादव, नीतीश कुमार, और लालू यादव की खुलकर आलोचना की थी। जे.पी. और लोहिया पर डाक टिकट जारी करने के केंद्र सरकार के फैसले से महागठबंधन के राजनीतिक धड़ों के पैरों तले की जमीन खिसक गई है। उनकी स्थिति भई गति सांप छछूंदर केरी। उगलत लीलत प्रीति घनेरी वाली होकर रह गई है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम डाक टिकट से हटाकर उसने जनता-जनार्दन को खासकर बिहार को यह संदेश देने की कोशिश भी की है कि केंद्र सरकार वंशवाद की राजनीति को चलने देने के पक्ष में हरगिज नहीं है। इस घटना से कांग्रेस तिलमिलाई भी है और उसने राजीव गांधी औरा इंदिरा गांधी का नाम डाक टिकट हटाए जाने की न केवल निंदा की है बल्कि उससे इस बावत देश से माफी मांगने को भी कहा है।
केंद्र सरकार ने जितने भी नाम डाक टिकट प्रकाशन श्रृंखला में शामिल करना चाहती है, वे सभी आदरणीय हैं, वरेण्य हैं। देश के गौरव हैं। आप्त पुरुष हैं। उनका नाम बहुत पहले ही डाक टिकटों पर छप जाना चाहिए था। अगर अभी तक ऐसा नहीं हुआ था तो यह उनके प्रति उपेक्षा भाव ही है। इससे यह साबित हो गया है कि कांग्रेस महापुरुषों को सम्मान देने में भी पक्षपात करती है लेकिन मोदी सरकार ने सभी तबके के महापुरुषों को यथाशक्य सम्मानित करने का जो प्रयोग किया है, वह काबिले तारीफ है। अंबेडकर के बहाने जहां वह दलितों को साध रही है, वहीं लोहिया और जयप्रकाश नारयण को मान देकर वह यूपी और बिहार में अपने वर्चस्व का झंडा गाडऩा चाहती है लेकिन उसे यह भी सोचना होगा कि देश के विकास में पं. जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का योगदान कम नहीं रहा है। उन्होंने भारत को आगे बढ़ाने में मील के पत्थर की भूमिका निभाई है। बेहतर होता कि मोदी संसार अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करती। जहां तक विकास योजनाओं से नाम हटाने का सवाल है तो यह किसी भी सरकार का अपना रवैया है लेकिन सम्मान के नाम पर तो राजनीति और पूर्वाग्रह से काम नहीं लिया जाना चाहिए। केंद्र सरकार को यह भी सोचना होगा कि बार-बार उसके फैसलों पर अंगुलियों क्यों उठती है? उसे यह भी सोचना होगा कि दो प्रधानमंत्रियों के नाम अचानक डाक टिकट प्रकाशन श्रंृखला से हटाने का देश और देश से बाहर क्या संदेश जाएगा। सम्मान देकर लौटाने की भारतीय परंपरा नहीं रहीं है। कम से कम हक पर तो विचार किया जाता। एक ओर तो इस देश का नेतृवर्ग खुद को माननीय कहलाने में फख्र महसूस करता है, वहीं दूसरी ओर वह माननीयों का सम्मान भी नहीं करना चाहता है। जो सम्मानित हो चुके हैं, उनके गले से माला उतार लेना चाहता है। सम्मान देना बुरा नहीं है। डाक टिकट जारी करना ही है तो सभी आप्त पुरुषों को एक झटके में सम्मान दे दिया जाना चाहिए। यह प्रयोग बेहद खर्चीला है लेकिन इससे किसी को भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाने का मौका नही मिलेगा।अन्य पार्टियों के नेताओं की उपेक्षा कर अपने मनपसंद नेताओं को सम्मान देने वाली बात गले नहीं उतरती।