जीवंत समाज के लिए किताबें

book fair

नीरज। कभी-कभी मन में आता है कि किसी ने सच ही कहा है कि जब पुस्तकें सड़क के किनारे फुटपाथ पर रखकर बेची जा रही हों और जूते शो-रूम में रखकर तो उस समाज को जूतों की ही जरूरत ज्यादा है, पुस्तकों और ज्ञान की नहीं। यह समय का विडंबनापूर्ण व्यवहार है कि आज हर जगह ऐसी स्थितियां देखने को मिल जाएंगी। एक ओर ऐसी परिस्थितियां बन गयी हैं कि किताबों के प्रति वह स्थान नहीं बन पाता, दूसरी ओर ऐसा वर्ग भी बन गया है कि किताबों आदि के बजाय उसकी बातचीत का रुझान कुछ और होता है।
बुद्धिजीवियों, प्रगतिशीलों, सहिष्णुतावादी और सौहार्द फैलाने वाले व्यक्तियों को जहां जेल, हत्या और दहशत की जिंदगी जीने को मिले और इसके विपरीत सांप्रदायिक, असहिष्णुतावादी, परंपरावादियों-पोंगापंथियों को राजकीय सम्मान और सत्ता का संरक्षण मिल रहा हो तो समझना चाहिए कि समाज दिशा से भटक गया है। अपने देश में ही नहीं, इससे बाहर जाकर भी ऐसी परिस्थितियां दिखती हैं जब कभी किसी ब्लॉगर की हत्या की खबर आती है तो कभी किसी को धमकी दिये जाने की चर्चा होती है। बस कुछ दिन के हल्ले के बाद खबर और चर्चा दोनों गायब हो जाती हैं।
पिछले कुछ समय से नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और कलबुर्गी की हत्या इस समाज के स्वरूप और मंशा पर सवाल खड़ा करती है कि आखिर यह देश, यह समाज किस दिशा में जाना चाहता है या अतिवादी, पुराणवादी-शास्त्रवादी लोग इसे सत्ता के बलबूते किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? गोविंद पनसारे, दाभोलकर और कलबुर्गी कोई व्यक्ति नहीं, ये संस्थाएं हैं जिन्हें समर्थन प्राप्त था इस देश के प्रगतिशीलों और सहिष्णुतावादियों का। इनकी हत्या इस संस्था को तोडऩे का प्रयास है। अगर ऐसा नहीं होता तो इन बुजुर्गों से आखिर किसके धर्म, किसके स्वार्थ को खतरा था। वस्तुत: खतरा व्यक्ति से नहीं, विचारधारा से होता है और यह विचारधारा की हत्या का प्रयास है।
जिस प्रगतिशील के मन में प्रश्न उठा वही तो है नरेंद्र दाभोलकर, पनसारे या कलबुर्गी। अब समय आ गया है, देश और दूरदराज के गांवों में यह बात फैलाने का कि आसाराम, रामपाल, राधे मां, नित्यानन्द, सदानंद और पता नहीं कितने आनंद इस देश और समाज को दिशा देंगे या पनसारे, कलबुर्गी या दाभोलकर जैसे लोग। चुनना आपको है, सोचना आपको है- भविष्य आपका है। ये आप अ’छी तरह जानते होंगे कि आपको जूतों की Óयादा जरूरत है कि पुस्तकों की! पुस्तकें ही वह भंडार हैं जो हमेशा आपका साथ देंगी, आपको सोचने के लिये कुछ विषय देंगी और उनके भीतर छिपा होगा समाज का आईना, जिसमें हम देख सकेंगे उसमें अपनी जगह। पुस्तकें ही तो सब कुछ हैं।